Friday 24 October 2014

विजिगीषा का महत्त्व


विजिगीषा का अर्थ है, विजयकी इच्छा, विजय की आकांक्षा यह विजिगीषा मनुष्य जीवन को सार्थक बनाने में अत्यंत आवश्यक है। भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता में बताते हैं कि विश्‍व में दो प्रकार के लोग होते हैं। एक दैवीगुण संपदावाले और दुसरे आसुरी गुण संपदावाले। भगवान के शब्द हैं, ‘द्वौ भूतसर्गो लोकेस्मिन्, दैव आसुर एव च’ (अध्याय 16, श्‍लोक 6)। इन दैवी संपदावाले लोगों और आसुरी संपदावाले लोगों में संघर्ष अनिवार्य है। हम संघर्ष टालने का कितना भी प्रयत्न करें, वह आसुरी संपदावालों के हठधर्मिता के कारण असफल हो जाता है। फिर संघर्ष अपरिहार्य होता है। इस संघर्ष में विजय प्राप्त करना नितराम आवश्यक हो जाता है। यह विजय की आकांक्षा ही विजिगीषा है।

रामायण का उदाहरण
रामायण का उदाहरण लीजिये। रावण सीता का अपहरण करता है। अंगद ने मनाया, विभीषण ने मनाया, फिर भी रावण मानता नहीं। मातृवत् परदारेषु यह अपनी संस्कृति का एक आदर्श है। परस्त्री को माता के समान देखो, यह इसका अर्थ है। रावण नहीं मानता। युद्ध अटल हो जाता है। फिर युद्ध से डरना नहीं चाहिये।  प्रभु रामचंद्र को युद्ध करना ही पडता है। और वे इसमें विजय पाते हैं। 

भगवान श्रीकृष्ण
भगवान श्रीकृष्ण के जीवन में भी ऐसाही प्रसंग आता है। कौरव और पाण्डवों में युद्ध होता है। द्यूत में कौरवों की ओर से कुटिलमति शकुनी है। और पाण्डवोंकी ओर से युधिष्ठिर हैं। द्यूत में युधिष्ठिर हार जाते हैं। द्यूत की शर्त के कारण युधिष्ठिर को अपने भाईयों के साथ बारह वर्ष वनवास में, और एक वर्ष अज्ञातवास में रहना पडता है। अज्ञातवास में यदि उन को किसीने पहचाना तो उनको फिरसे 12 वर्षों का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास भोगना पडेगा। यदि इस शर्त का परिपालन हुआ, तो कौरव प्रमुख दुर्योधन पाण्डवों का संपूर्ण राज्य उन्हें लौटाएगा। पाण्डव शर्त पूर्ण कर आते हैं। किन्तु दुर्योधन उनका राज्य लौटाने से मुकर जाता है। भगवान श्रीकृष्ण स्वयं मध्यस्थ बनकर आते हैं। और कहते हैं कि पूरा राज्य रहने दो, केवल पाँच गाँव दीजिये। दुर्योधन का उत्तर रहता है, पाँच गाँवों की क्या बात करते हो, सुई के नोंक पर रह सकेगी इतनी भी जमीन नहीं मिलेगी।

अब युद्ध अटल हो जाता है। और युद्ध में विजय प्राप्त करना अनिवार्य रहता है। कुरुक्षेत्र के रण में 18 दिनों तक पाण्डवों और कौरवों के बीच घनघोर युद्ध होता है। इतना घनघोर की 18 अक्षौहिणी की विशाल सेना में से केवल दस लोग जीवित बचते हैं। पाण्डवों में सात और कौरवों में तीन. बस्स! 
कौरवों के पक्ष में बडे बडे रणधुरंधर हैं। भीष्माचार्य हैं, द्रोणाचार्य हैं, महारथी कर्ण हैं। विजय प्राप्त करने का मतलब होता है,इनको परास्त करना। मतलब होता है इनको मारना। फिर भगवान कृष्ण अपना कौशल दिखाते हैं। वे शत्रुओं की कमजोरी का ध्यान रखते हैं। युद्ध में इसकी बहुत आवश्यकता होती है। विजय पानी है तो दुष्मनों की दुर्बलता जाननी ही पड़ती है। इसलिए भगवान कृष्ण ने भीष्माचार्य के सामने शिखण्डी को खडा किया। भीष्माचार्य की प्रतिज्ञा थी कि जो नर भी नहीं, नारी भी नहीं,नपुंसक है, उसपर शस्त्र नहीं चलाएंगे। और अर्जुन ने शिखण्डी के पीछे खडे होकर भीष्माचार्य के ऊपर शरवृष्टि की। भीष्माचार्य रथ में गिर गये। कोई कहेगा कि यह पापमार्ग है। नहीं। हमनें नित्य संदर्भ ध्यान में लेना चाहिए। भीष्माचार्य की विजय होती तो राज्य भीष्माचार्य का नहीं होता। वह दुर्योधन का ही होता। उस दुर्योधन का कि जिसको कपट द्यूत से परहेज नहीं थी। अपनी भाभी को भर सभा में विवस्त्र करने की शरम नहीं थी। मतलब हैं, भीष्माचार्य जैसे ज्ञानी, सत्यप्रतिज्ञ पुरुष व्यक्ति का राज्य नहीं होता। वह दुष्ट दुर्योधन का होता। और भीष्म पितामह उसकी ओर से रणमैदान में खड़े थे। उन को मारना सत्पक्ष की विजय के लिए अवश्यंभावी था। 

अश्‍वत्थामा मृत:
भीष्माचार्य के पश्‍चात द्रोणाचार्य कौरव-सेना के सेनापति बने। वे पाण्डवों के भी गुरु थे। किन्तु दुर्योधन के पक्ष में थे। द्रोणाचार्य भी अत्यंत पराक्रमी थे। किन्तु उन की एक दुर्बलता थी। अपने पुत्र अश्‍वत्थामा पर उनका असीम प्रेम था। उनको परास्त करने के लिए अश्‍वत्थामा को मारना आवश्यक था। भीम ने अपना ही एक बडा हाथी, जिसका नाम अश्‍वत्थामा था, उसको मार डाला और द्रोणाचार्य सुन सके इतनी जोर से चिल्लाया कि अश्‍वत्थामा हत:। द्रोणाचार्य ने उसकी बात को नहीं स्वीकारा और अभूतपूर्व पराक्रम प्रकट कर पाण्डवों की सेना की जबरदस्त हानि की। तब ़श्रीकृष्ण की सलाह से कि इस समय सत्यात् ज्याय: अनृतं वच: यानी इस समय सत्य से असत्य बोलना श्रेयस्कर हैं, युधिष्ठिर ने अश्‍वत्थामा मृत: यह कहा। आगे नरो वा कुंजरो वायानी आदमी या हाथी नहीं जानता यह भी कहा। किन्तु रणवाद्यों की गंभीर आवाज में द्रोणाचार्य उसे नहीं सुन सके। उन्होंने शस्त्र नीचे डाल दिए। और धृष्टद्युम्न ने उनका शिरश्र्छेद किया। 

क्व ते धर्मस्तदा गत:
कर्ण के बारे में भी यही बात है। द्रोणाचार्य के पश्‍चात कर्ण कौरव सेना का सेनापति बना। अर्जुन के साथ युद्ध करते समय उसके रथ का एक पहिया जमीन में धस गया। तब, रथ से नीचे उतरकर कर्ण अर्जुन से कहता है, ‘हे अर्जुन मैं नि:शस्त्र हूँ। और नि:शस्त्रों पर वार करना यह अधर्म है। तू धर्मयुद्ध के नियमों का जानकार है। अत: जरा रुक, मैं रथ का पहिया उपर उठाकर, तुझसे लडूंगा। मैं ना तुझसे डरता हूँ, ना कृष्ण से। तब सचमुच अर्जुन थम जाता है, तब श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘इस पर बाण चलाओ। दुष्ट लोग जब संकट में पडते हैं, तब उनको धर्म का स्मरण होता है। और कर्ण से सवाल करते हैं कि जब द्रौपदी को भर सभा में विवस्त्र करने का आप लोगों ने प्रयास किया तब तुम्हारा धर्म कहाँ गया था। क्व ते धर्मस्तदा गत:। धर्मयुद्ध का नियम है कि एक व्यक्ति पर अनेकोंने शस्त्राघात नहीं करना चाहिए। तुम अनेकों ने अभिमन्यु को घेर कर उसकी हत्या की। तब क्व ते धर्मस्तदा गत: क्व ते धर्मस्तदा गत:’, इस वचन से अन्त होनेवाले, भगवान श्रीकृष्ण के नौ प्रश्‍न महाभारत के कर्णपर्व में है। तात्पर्य यह है कि विजय पाने हेतु,शत्रु की दुर्बलताओंका भी ध्यान रखना चाहिए। हम भारतीय यह बात भूल गए। अत: पराक्रमी होते हुए भी हमें हार खानी पडी। इसके दो उदाहरण मैं यहां प्रस्तुत करता हूँ। 

पृथ्वीराज और घोरी
पहला उदाहरण पृथ्वीराज चौहाण का है। महम्मद घोरी ने पृथ्वीराज चौहाण के राज्यपर आक्रमण किया। लडाई में घोरी की हार हुई। घोरी पकडा गया। किन्तु घोरी ने गयावया करते ही पृथ्वीराज ने उसे छोड दिया। क्यों? उसने गलती से नहीं, सोच समझ के आक्रमण किया था। उसका दण्ड उसको मिलना आवश्यक था। एैसे ही राजा को युक्तदण्ड कहते हैं। घोरी मुक्त होने का बाद स्वस्थ नहीं बैठा। उसने फिर से आक्रमण किया। अब बारी पृथ्वीराज के हार की थी। घोरी ने उसे छोडा नहीं। वह अपने राज में पृथ्वीराज को ले गया। मुसलमानों की रीत का अवलंबन कर उसको पहले अन्धा किया। और बाद में उसकी कत्ल की। विजय की परिपाटी पृथ्वीराज भूल गए। भारत में पश्‍चिम से आनेवाली मुसलमानी सत्ता का प्रारंभ हुआ। 

अल्लाउद्दीन खिलजी
दुसरा उदाहरण अल्लाउद्दीन खिलजी का। उसने चित्तौेड पर आक्रमण किया। क्योंकि चित्तौड नरेश की लावण्यवती पत्नी पद्मिनी उसे चाहिये थी। परस्त्री की चाह रखना अपने संस्कृति में महान पाप बताया हैं। किन्तु अल्लाउद्दीन भारत की संस्कृति को माननेवाला नहीं था। उसने पद्मिनी की बेशर्मी से मांग की। जब चित्तोड काबीज करना सम्भव नहीं हुआ, तो उसने शान्ति का नाटक रचा। कहा कि, ‘पद्मिनी नहीं चाहिए, उस लावण्यवती को केवल देखना चाहता हूँ। फिर भी राजपूत नहीं माने।  तो अल्लाउद्दीन ने कहा कि केवल आइने में उसे देखूंगा और चला जाऊँगा। राजपूत, अल्लाउद्दीन चित्तौड क्यों आया था, यही भूल गए। आयने में प्रतिबिम्ब दिखाने से लडाई टल सकती है, ऐसा सोचकर उसके लिए कबूल हो गये। अल्लाउद्दीन आया और आयने में पद्मिनी का सौंदर्य देखकर खुश हुआ। इस सब बातचीत में विश्‍वास निर्माण हुआ। और पद्मिनी के पतिदेव, मेहमान का आदर करने के लिए अल्लाउद्दीन को उसकी छावनी में छोडने के लिए उसके साथ गये। अल्लाउद्दीन ने वहीं उसे कैद किया और कहा कि पद्मिनी मिलेगी तभी छुटकारा होगा। राजपूत तो इसे माननेवाले नहीं थे। फिर लडाई हुई। बातचीत के दौरान, अल्लाउद्दीन के दूतों का किलेपर कई बार आवागमन हुआ। किले के दुर्बल स्थानों को उन्होंने देख लिया। वे किलेपर चढ गए। अपनी सतीत्व की रक्षा के लिए दो हजार राजपूत रमणीयोंने जौहर कर अपने देह अग्नि को समर्पित किए। पद्मिनी अल्लाउद्दीन को नहीं मिलीं। किन्तु चित्तौड उसके कब्जे में आ गया। विजिगीषा होती, तो अल्लाउद्दीन जब स्वयं पद्मिनी के रूप को आयने में देखने आया, तब जिंदा नहीं लौटता।

छत्रपति शिवाजी
यह विजिगीषा छत्रपति शिवाजी महाराज में थी। विजापुर के बादशहा का सेनापती अफजल खाँ, दरबार में शिवाजी को जिन्दा या मरा पेश करता हूँँ, इस प्रतिज्ञा के साथ बडी भारी सेना लेकर निकला। शिवाजी के पास सेना छोटी थी। मैदान में अफजलखान कामुकाबला नहीं किया जा सकता था। अफजलखान की नीति थी, शिवाजी को कैसे भी करके मैदान में लाना। शिवाजी की नीति थी, कि अफजलखान को संकरी घाटी में लाना। शिवाजी को क्रोध के वश में लाने के लिए, अफजलखान ने समूचे महाराष्ट्र का अत्यंत पवित्र स्थल पंढरपुर का मंदिर भ्रष्ट किया। फिर भी शिवाजी शान्त ही रहे। फिर शिवाजी की कुलदेवता तुलजा भवानी के मन्दिर को उसने भ्रष्ट किया। फिर भी शिवाजी शान्त। शिवाजी ने भयभीत होने का बहाना धारण किया। मित्रता का हाथ बढाया। और अफजलखान को प्रतापगड की घनी झाडी में आने को प्रोत्साहित किया। दोनों की व्यक्तिगत भेेंट तय हुई। आलिंगन होते ही शिवाजी ने अपने बाघनख उसके पेट में घुसा दिए। कुछ लोग कहते हैं कि पहला वार अफजलखान ने किया और बाद में आत्मरक्षा के लिए शिवाजी ने बाघनख चलाए। यह सहीं नहीं है। मिर्झा राजा जयसिंह को लिखे पत्र में शिवाजी ने स्वयं लिखा है कि अफजलखान के प्रसंग में मैं पहला वार नहीं करता तो यह खत मैं कैसे लिख पाता। इस संपूर्ण प्रकरण में शिवाजी महाराज एक क्षण भी नहीं भूले कि अफजलखान उन्हें जिंदा या मरा, आदिलशाह के दरबार में हाजिर करने का बीडा उठा कर निकल पडा था। अल्लाउद्दीन के प्रसंगपर यदि चित्तौडगढ पर शिवाजी होते तो अल्लाउद्दीन जिंदा नहीं लौट पाता। 

विजिगीषा की महत्ता
मनुष्य जीवन में, जब आसुरी गुणोंवालों से मुकाबला होता है, तब विजय ही एकमात्र लक्ष्य होना चाहिए। आसुरी शक्ति को परास्त करना यहीं एकमात्र उद्देश्य होना चाहिए। अन्यथा आसुरी शक्तिवालों से दुनिया की रक्षा असंभव है। आखिर कीर्ति विजयी पुरुष की ही होती है।  महाकवि कालिदास अपने रघुवंश महाकाव्य की प्रस्तावना में लिखते हैं कि मैं, किन गुणोंसे युक्त रघुवंश के राजाओं का वर्णन करने जा रहा हूँ। उनके अनेक गुणों में से ‘‘यथाकालप्रबोधिनाम्’’ (उचित समय पर जागनेवाले), ‘यथापराधदण्डानाम्’ (अपराध के अनुरूप दण्ड देनेवाले) और सबसे महत्त्वपूर्ण है यशसे विजिगीषूणाम्’ (कीर्ति के लिए विजय की आकांशा रखनेवाले) इन गुणों का भी वर्णन करता है। विजिगीषा की ऐसी महत्ता है। राजपूत अत्यंत पराक्रमशाली थे, किन्तु विजयशाली नहीं बन पाए।

-मा. गो. वैद्य
2.10.14.


Wednesday 22 October 2014

बच्चों की शिक्षा और परिवार

बच्चों की शिक्षा का प्रारंभ उनके परिवार से ही होना चाहिये। इस के लिये माता का बडा महत्त्व है। वीर अभिमन्यू जब अपनी माँ के गर्भ में था, तभी उसने भगवान् श्रीकृष्ण से चक्रव्यूह का भेद करने की कला सीख ली थी। इस प्रसंग को कपोलकल्पित समझकर उस पर अविश्‍वास करना योग्य नहीं। नया विज्ञान भी कहता है कि गर्भ पाँच महिनों का होने पर भ्रूण को संवेदना प्राप्त होती हैं। अनेक शिक्षित महिला डॉक्टर गर्भसंस्कार केंद्र चलाते हैं। गर्भवती स्त्री के वाचन का, व्यवहारों का तथा संस्कारों का भी परिणाम भ्रूणपर होता है।


 माता का सान्निध्य
मेरी दृष्टि से बच्चों की आयु के छ: वर्ष पूर्ण होने तक, उन्होंने अपनी माता के साथ ही रहना चाहिये। मैं प्राथमिक वर्गों के पूर्व, शिक्षा देने वाली व्यवस्था से अनुकूल नहीं हूँ। आज शिक्षित महिलाएं नौकरी करती हैं। डेढ-दो साल के बच्चों को एक तो नौकरानी के हाथ सौंपती हैं,या पालनाघर में भेजती हैं। और तीन साल पूरे होते ही उसे स्कूल भेजती हैं। यह पद्धति संस्कारों की दृष्टि से ठीक नहीं है। आखिर शिक्षा का उद्देश्य क्या है। पैसे कमाने की कला सिखाना यह शिक्षा का उद्देश्य नहीं हो सकता। शिक्षा के कारण व्यक्ति, समाज का अच्छा, शीलवान्,सभ्य नागरिक बने, यही शिक्षा का सही उद्दिष्ट है। और जिस वातावरण में, वह संस्कारक्षम अवस्था में रहता है, उस वातावरण का बडा महत्त्व है। ऐसा वातावरण परिवार में ही निर्माण करना सुलभ है। 


एक प्रयोग
बच्चों को अच्छे संस्कार प्राप्त हो इस लिये गर्भवती ने भी अच्छी किताबे पढनी चाहिये। हमने अठरा वर्षों तक अपने घर में चातुर्मास में प्रतिदिन रात को 9 से 10 बज तक अच्छे किताबों के सामूहिक वाचन का कार्यक्रम चलाया था। छोटे से छोटे बच्चों से लेकर, घर के सब लोग उस में शामिल हो यह नियम था। अडोस-पडोस के कुछ परिवार भी आते थे। अच्छे विचारों का आप ही आप प्रक्षेपण होता था। इस के सुफल हमने देखे हैं। हर घर में इस प्रकार अपने परिवारजनों के लिये, वर्ष में कुछ समय तक यह सामूहिक वाचन का प्रयोग हो। परिवारजनों के ज्ञान की भी वृद्धि होगी और संस्कार भी होंगे। संस्कार का अर्थ अच्छा होना। जैसा है वैसा रहना यह प्रकृति है। पशु प्रकृति से ही चलते हैं। किन्तु मानव संस्कृति-सम्पन्न हो सकता है। इस हेतु संस्कारों का विशेष महत्त्व है। संस्कार यानी वे उपाय हैं जिनसे मनुष्य शीलवान्, बलवान्, विजिगीषु और देशाभिमानी बन सकता है। ऐसे मनुष्य ही अपने समाज का गौरव बढा सकते है।


 नौकरी का सवाल
कोई सवाल करेगा कि क्या महिलाओं ने नौकरी नहीं करनी चाहिये। मैं कहूँगा कि अवश्य करें। किन्तु छोटे से छोटा बच्चा छ: वर्षों का होने के बाद। अच्छे परिवारों में महिलाओं के नौकरी की आर्थिक दृष्टि से आवश्यकता भी रहती नहीं। शिक्षित होने पर नौकरी करनीही चाहिये यह कौनसी रीत है। महिलाएं निजी व्यवसाय भी कर सकती हैं। ट्यूशन क्लासेस भी चला सकती हैं। आयु की जिस अवस्था में बच्चा अच्छे संस्कार ग्रहण कर सकता है, उस अवस्था में संस्कार देने की व्यवस्था हो, यह मेरे प्रतिपादन का मतलब है। 


परीक्षा की व्यवस्था
बच्चों को शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार हो, यह बात अब सर्वमान्य हो गयी है। वह ठीक ही है। किन्तु छ: वर्षों का होने के बाद ही वह पाठशाला जाये। आज के जमाने में गुरुकुल की व्यवस्था फिर से नहीं लाई जा सकती। किन्तु जैसा शिक्षा लेने का अधिकार है, वैसाही शिक्षा देने का भी अधिकार हो। शासन के द्वारा परीक्षा लेने की व्यवस्था हो। चार वर्षों के बाद, तथा 7 वी और 10 वी के पश्‍चात्, ऐसी शासन पुरस्कृत, किन्तु स्वत: में स्वायत्त और स्वतंत्र व्यवस्था हो। प्राथमिक, पूर्व माध्यमिक और माध्यमिक शिक्षा के स्तर पर यह व्यवस्था बच्चों की परीक्षा लेगी। और उनके आगे बढने का मार्ग प्रशस्त करेगी। 


राष्ट्र के लिये
बच्चा पाठशाला में जाने लगने के पश्‍चात भी अपने घर का वातावरण संस्कारों के अनुकूल रखने का दायित्व माता-पिता का है। ऐसे प्राप्त संस्कार बच्चों को आयु के अठारह वर्ष पूर्ण होने के बाद उन्हे स्वतंत्रता रहे। मुझे विश्‍वास है कि संस्कारक्षम आयु में प्राप्त संस्कारों के कारण वह सभ्य, सच्छील, स्वाभिमानी, राष्ट्राभिमानी नागरिक के नाते अपने को प्रस्तुत करेगा। जिस से अपना राष्ट्र भी बडा होगा। आखिर राष्ट्र भी क्या होता है? राष्ट्र यानी लोग ही होते हैं। People are the Nation.और जैसे लोग होंगे वैसाही राष्ट्र होगा। लोगों से ही राष्ट्र बनता है। किसी व्यवस्था से नहीं। 
-मा. गो. वैद्य
दि. 13-10-2014