Monday 28 January 2013

नीतीन गडकरी जी का अभिनंदन

भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर लगातार दुसरी बार आरूढ होने की संभावना होते हुए भी, श्री नीतीन गडकरी जी स्वयं चुनाव मैदान से हट गए, इसके लिए मैं उनका अभिनंदन करता हूँ. उनके इस समझदारी के निर्णय से पार्टी की फूट टली; कम से कम वह प्रकट नहीं हुई. मेरा मत है कि, इस पद के लिए चुनाव होता तो कम से कम ७० प्रतिशत मत लेकर गडकरी जी विजयी होते. लेकिन इससे पार्टी में पड़ी दरार उजागर हो जाती. १४ नवंबर के, मेरे भाष्य- जिसने काफी सनसनी फैलाई थी, के समारोप में मैंने कहा था कि, ‘‘भाजपा एकरस है, उसके नेताओं के बीच परस्पर सद्भाव है, उनके बीच मत्सर नहीं, ऐसा चित्र निर्माण होना चाहिए, ऐसी भाजपा के असंख्य कार्यकर्ताओं की और सहानुभूतिधारकों की भी अपेक्षा है. इसमें ही पार्टी की भलाई है; और उसके वर्धिष्णुता का भरोसा भी है.’’ वह अपेक्षा नीतीन गडकरी जी ने स्वयं के उदाहरण से, कुछ अनुपात में ही सही, पूर्ण की है.

एक षडयंत्र
भाजपा के संविधान के अनुसार एक व्यक्ति लगातार (दूसरी बार), अध्यक्ष नहीं बन सकता था. संविधान की इस धारा में संशोधन कर, वह व्यक्ति पुन: एक बार उस उच्च पद पर रह सकती है, ऐसा परिवर्तन किया गया. यह संविधान संशोधन गडकरी जी के लिए ही है, ऐसा स्वाभाविक ही निष्कर्ष निकाला गया. भाजपा में एक ऐसा भी वर्ग था, जिसे यह पसंद नहीं था. इस वर्ग के लोगों ने इस संविधान संशोधन को विरोध तो नहीं किया था; लेकिन उसी क्षण से गडकरी विरोधी षडयंत्र ने जन्म लिया होगा. गडकरी जी का जिस पूर्ति उद्योग समूह के साथ संबंध था, वास्तव में जो उद्योग समूह उनकी ही पहल से निर्माण हुआ और उनके ही नेतृत्व में फला-फूला, उसके आर्थिक व्यवहार के बारे में कुछ समाचार प्रसारमाध्यमों में प्रकाशित हुए. सरकार ने भी उन समाचारों की दखल ली और उस उद्योग समूह के आर्थिक व्यवहारों की जॉंच की जाएगी, ऐसा घोषित किया. गडकरी जी ने इस जॉंच का स्वागत ही किया. लेकिन इतने से न असंतुष्ट आत्माओं का समाधान नहीं होना था. उनमें के एक स्वनामधन्य राम जेठमलानी ने गडकरी जी के त्यागपत्र की मांग की. सरकार की जॉंच का क्या निष्कर्ष आता है, इसकी राह देखना भी उन्हें आवश्यक नहीं लगा.
दो-ढाई माह पहले की बात है. एक ऐसा अनुमान व्यक्त किया गया और मेरे ११ नवंबर के भाष्य पर जो प्रतिक्रियाएँ मुझे प्राप्त हुई, उनमें भी एक अनुमान व्यक्त किया गया कि, भाजपा के ही कुछ श्रेष्ठ व्यक्तियों ने या किसी एक व्यक्ति ने प्रसारमाध्यमों को यह मसालादिया होगा. राम जेठमलानी के बाद उनके पुत्र महेश जेठमलानी ने, जो भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य थे, ऐसे कलंकितव्यक्ति के हाथ के नीचे काम करना मुझे संभव नहीं, ऐसा घोषित कर कार्यसमिति की सदस्यता का त्यागपत्र दिया था. लेकिन उस समय भी कलंकसिद्ध नहीं हुआ था. इतना ही नहीं आरोप-पत्र की तो बात छोड दे, गडकरी जी को नोटीस तक नहीं भेजी गई थी. फिर भी जेठमलानी पिता-पुत्र को गडकरी जी कलंकितलगे. इसलिए मुझे ऐसा लगा कि यह गडकरी जी के विरुद्ध का षडयंत्र है, और यह मैंने अपने उस ढाई माह पहले के भाष्य में लिखा. उसके बाद यशवंत सिन्हा और शत्रुघ्न सिन्हा ने भी गडकरी जी के त्यागपत्र की मांग की. अमेरिका में वाशिंग्टन में रहने वाले भाजपा के एक समर्थक ने भी मुझे ई-मेल पत्र भेजकर अपनी ऐसी ही भावना व्यक्त की थी. उनके पत्र का पहला ही वाक्य है,  ''I am saddened by your support for Gadkari'' मुझे तो पूरा विश्‍वास हुआ कि, यह गडकरी जी के विरुद्ध का पक्षांतर्गत षडयंत्र है. लेकिन ११ नवंबर के भाष्य के बाद यह षडयंत्र शांत हुआ. सब को लगा कि, सब कुछ मिट चुका है और गडकरी जी का पुन: अध्यक्ष बनने का मार्ग साफ हो गया है. लेकिन फिर इन लोगों ने उनका अविरोध चुनाव नहीं हो ऐसा संकल्प किया. वैसे समाचार भी प्रसारमाध्यमों में प्रकाशित हुए. उसी दौरान आय कर विभाग ने पूर्ति उद्योग समूह के कुछ कार्यालयों पर छापे मारने के समाचार आए. गडकरी जी के नामनिर्देश पत्र भरने के दो दिन पूर्व ही यह समाचार प्रकाशित हुआ. अनेकों के मन में संदेह निर्माण हुआ और वह आज भी है कि, सरकार इतने विलंब से क्यों जागी? करीब तीन माह तक सरकार किस बात की प्रतीक्षा कर रही थी? इन षडयंत्रि लोगों के और सरकार के परस्पर कुछ अनुबंध तो नहीं? अर्थात् यह केवल संदेह है. सच क्या है, यह कौन बताएगा?

कौन जिता?
गडकरी जी ने अपना नाम पीछे लेने का समाचार २२ जनवरी की रात दूरदर्शन के चॅनेल पर आया. दि. २३ को, इंडिया टी. व्ही., एनडीटीव्ही, झी और एबीपी माझा चॅनेल के प्रतिनिधि इस बारे में मेरी प्रतिक्रिया जानने के लिए मुझसे मिलने आए. इस लेख के आरंभ में मैंने जो वाक्य लिखा है वही बात मैंने मराठी, हिंदी और अंग्रेजी में बताई कि, यह सही कदम है, समझदारी का निर्णय है. उनमें से एक ने पूछा कि, इसमें कौन जिता? मैंने उत्तर दिया, विजय के श्रेय के लिए पहला क्रमांक प्रसारमाध्यमों का है और दूसरा गडकरी जी के विरुद्ध षडयंत्र रचने वालों का. जो होना था वह अब हो चुका है. राजनाथ सिंह भाजपा के अध्यक्ष बने है. विशेष यह कि, वे सर्वानुमति से उस पद पर निर्वाचित हुए है. मैं उनका अभिनंदन करता हूँ.
पार्टी विथ अ डिफरन्सयाने एक विशिष्ट, अलग प्रकार की पार्टी ऐसी उसकी गरिमामय पहचान, इस पार्टी के कार्यकर्ता और नेता बताते थे; लेकिन इस सब घटनाक्रम ने ‘पार्टी विथ डिफरंसेसमतलब मतभेदों से सनी पार्टी ऐसी उसकी प्रतिमा बन गई थी. उसे सुधारने का मौका नए अध्यक्ष को मिला है. राजनाथ सिंह अनुभवी सियासी नेता है. उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके है. केन्द्र में भी मंत्री थे और मुख्य यह कि इससे पहले भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके है. सब की सहमति से उन्हें यह पद मिला है. उन सब के सहयोग की अपेक्षा वे रखते होगे, तो वह स्वाभाविक ही है. परीक्षा की घडी बहुत दूर नहीं. सवा वर्ष के भीतर ही लोकसभा का चुनाव हो रहा है; उसमें पार्टी एकजुट होकर उतरेगी, ऐसा विश्‍वास है.
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सुशील कुमार शिंदे का निषेध
हिंदू दहशतवाद’, ‘भगवा आतंकवाद’, ‘संघ के शिबिर मतलब आतंकवादियों को प्रशिक्षण देने की शाला’ - जैसी बातें भारत के हाल ही में गृहमंत्री बने सुशील कुमार शिंदे के मुँह से निकली इसका मुझे बहुत ही अचरज हुआ. दुख भी हुआ. मैं उन्हें पहचानता हूँ. शायद वे भी मुझे पहचानते होगे. ऐसी उटपटांग बातें कहने का उनका स्वभाव नहीं. सदा मुस्कुराते रहने वाला वह व्यक्तिमत्त्व है. उनके मुख से ऐसी हल्के दर्जे की बाते निकली, इसका मुझे बहुत अचरज हुआ. हिंदू आतंकवादकहे तो स्वयं शिंदे भी उस आतंकवाद के संवाहक सिद्ध होते है. कारण वे हिंदू है. फिर, ऐसा स्पष्टीकरण आया कि, उन्होंने हिंदू आतंकवादनहीं कहा था, ‘भगवा आतंकवादयह उनका शब्द था. सुशील कुमार शिंदे को इस रंग के सब अर्थच्छटाओं की जानकारी निश्‍चित ही होगी. भगवारंग, पवित्रता, त्याग, संन्यस्त जीवन का निदर्शक है. इसलिए वह लोगों के आदर, सम्मान और पूजनीयता का रंग बना है; प्रतीक बना है. उसे आतंकवाद से जोडकर सुशील कुमार ने सारे हिंदूओं की इस भावना का अपमान किया है.

पार्टी दूर हटी
शिंदे जिस कॉंग्रेस पार्टी से है, जिस पार्टी के होने के कारण उन्हें गृहमंत्री पद के लिए चुना गया, उस पार्टी के गले भी शिंदे का यह प्रतिपादन नहीं उतरा. उस प्रतिपादन के गंभीर और दुष्प्रभावी परिणाम पार्टी के ध्यान में आए और कॉंग्रेस के अधिकृत प्रवक्ता ने, पार्टी को शिंदे के इस वक्तव्य से दूर किया. उचित तो यह होता कि, इसके बाद शिंदे संपूर्ण हिंदू जनता की माफी मांगकर अपने पद से त्यागपत्र देते. ऐसा होता तो लोग मानते कि, आदमी से भूल होती ही है, कारण मनुष्य स्खलनशील है, यह सब जानते है; अनजाने कभी जुबान फिसल जाती है. लोग उन्हें निश्‍चि ही क्षमा करते. लेकिन सुशील कुमार ने, उनके नाम को शोभा देने जैसा कुछ भी नहीं किया. ऐसा लगता है कि, फिलहाल वे मौनव्रत में है.

संघ और आतंकवाद
श्री शिंदे की तीसरी खोज यह है कि, संघ के शिबिरों में आतंकवाद का प्रशिक्षण दिया जाता है. शिंदे महाराष्ट्र से आते है. सोलापुर से. सोलापुर में संघ है ही. वहॉं कभी न कभी संघ के शिबिर लगे ही होगे. कितने आतंकवादी निकले सोलापुर से? प्रस्तुत लेखक ने भी संघ शिक्षा वर्ग में तीन वर्ष का प्रशिक्षण लिया है. इन वर्गों में अनेक वर्ष शिक्षक का भी काम किया है. फिर मैंने भी आतंकवाद ही सीखा होगा और वही मैंने और को भी सिखाया होगा. क्या यह हमारे मित्र सुशील कुमार शिंदे को मान्य है?

गृह विभाग से प्रश्‍न
चॅनेल वालों ने मुझसे इस बारे में भी प्रश्‍न पूछे. मैंने कहा, ‘‘आरोप गंभीर है. हमारे देश के कानून का भंग करने वाले उन सब के विरुद्ध मुकद्दमें दर्ज कर कानून को अपना काम करने दे.’’ शिंदे और उनके  गृह सचिव ने कहा है कि, उनके पास सबूत है. फिर मुकद्दमें दर्ज करने में विलंब क्यों? वे किसकी अनुमति की राह देख रहे है? उनके अधिकार में काम करने वाले राष्ट्रीय अन्वेषण विभागने दस आतंकवादी स्वयंसेवकों के नाम प्रकाशित किए है. कुछ समय के लिए मान भी ले कि, अन्वेषण विभाग सही कह रहा है. इन दस में साध्वी प्रज्ञासिंग ठाकुर का भी नाम है. गृहमंत्रालय के सचिव नासमझ हो सकते है. लेकिन शिंदें तो वैसे नहीं. क्या उन्हें इतना भी पता नहीं है कि, संघ में किसी महिला को प्रवेश नहीं होता? फिर वह महिला संघ के प्रशिक्षण शिबिर में कैसे आएगी? एक नाम स्वामी असीमानंद का है. वे गुजरात के डांग जिले में प्रसिद्ध है. वे संघ में कब थे, उन्होंने कब प्रशिक्षण लिया, क्या गृह विभाग यह बता सकेगा? दो या तीन भूतपूर्व संघ प्रचारकों के नाम भी उन्होंने दिए है. उनमें एक नाम है सुनील जोशी. सरकारी रिपोर्ट बताती है कि, वे १९९० से २००३ तक संघ के प्रचारक थे. दिसंबर २००७ में उनकी हत्या की गई. उनकी हत्या किसने की? क्यों की? बाहर के लोगों ने उनकी हत्या की या आरोपित आतंकवादियों में से किसी ने उन्हें मारा? इन पॉंच वर्षों में सरकार मतलब उनका गुप्त अन्वेषण विभाग इतना भी खोज नहीं पाया, यह आश्‍चर्यजनक नहीं है? संदीप डांगे यह और एक भूतपूर्व प्रचारक का नाम इस सूची में है. बताया जाता है कि वे फरार है. इतने समय में सरकारी गुप्तचर विभाग उन्हें भी नहीं ढूंढ पाया, इससे इस विभाग की कार्यकुशलता का अनुमान लगाया गया, तो वह शिंदे साहब को मान्य होगा? कॉंग्रेस मे भ्रष्टाचारी नेताओं की, जिन पर आरोप लगे है और मुकद्दमें चल रहे है, की संख्या कम नहीं होगी. टू जी स्पेक्ट्रम, राष्ट्रकुल क्रीडा घोटाला, कोयला खदान घोटाला, आदर्श इमारत घोटाला यह कॉंग्रेसजनों के भ्रष्टाचार के ताजे उदाहरण सर्वपरिचित है. इससे संपूर्ण कॉंग्रेस पार्टी भ्रष्टाचारी है, ऐसा निष्कर्ष किसी ने निकाला तो वह सुशील कुमार शिंदे को मान्य होगा? और उसके बाद भी वे पार्टी में रहेगे? उत्तर सुशील कुमार जी ने ही देना है.
मुझे यहॉं अधोरेखित करना है कि, यह सरकारी अन्वेषण शाखा सफेद झूठ बोल रही है, यह सिद्ध हुआ है. हिंदू आतंकवादी बताकर जिन्हें पकड़ा गया है, उनके विरुद्ध समझौता एक्स्प्रेस में बम रखने का आरोप है. लेकिन हमारे देश के एक बुद्धिवंत एस. गुरुमूर्ति ने इस मामले की बारीकी से जॉंच की और उनका निष्कर्ष है कि, यह हमला लष्कर-ए-तोयबा इस इस्लामी अतिरेकी संगठन ने ही किया था. अरीफ कासमनी इस लष्करके संगठक की उसमें मुख्य भूमिका थी. उन्होंने इसकी पूरी रिपोर्ट २०-११-२०१२ को राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को प्रस्तुत की, उस समय प्रणव मुखर्जी भी चकित हुए. गुरुमूर्ति ने यह बात भी स्पष्ट की है कि, २० जनवरी २००९ को महाराष्ट्र आतंकवाद विरोधी दस्ते ने रचि - कर्नल पुरोहित ने समझौता एक्स्प्रेस में रखे गए बम के लिए आरडीएक्स उपलब्ध करा दिया था - यह कहानी झूठ है. फिर भी २४ जनवरी १३ को हिंदू टेररशीर्षक में कुछ हिंदू-द्वेषी महाभागों ने एक पत्र प्रसिद्ध कर तथाकथित हिंदू आतंकवादियों को कर्नल पुरोहित ने ही आरडीएक्स दिया था, ऐसा उल्लेख किया ही है. झूठ की भी कोई सीमा होनी चाहिए या नहीं? गुरुमूर्ति जी का वह संपूर्ण लेख न्यू इंडियन एक्स्प्रेसइस चेन्नई से निकलने वाले दैनिक के २४ जनवरी के अंक में प्रकाशित हुआ है. जिज्ञासू अवश्य पढ़े. (पढें : http://www.vskbharat.com//Encyc/2013/1/24/True-lies-of-Sushil-Kumar-Shinde.aspx?NB=&lang=2002&m1=&m2=&p1=&p2=&p3=&p4=)

पाकी आतंकवादियों को आनंद
शिंदें के वक्तव्य से, उनकी प्रतिष्ठा कितनी बढ़ी, या उनकी पार्टी को मुसलमानों के मत अपनी ओर मोडने के लिए कितना लाभ होगा, यह तो उन्हें ही पता है. लेकिन पाकिस्तान के आतंकवादियों को निश्‍चित ही इसका लाभ हुआ है. मुंबई में हुए बम विस्फोटों का सूत्रधार, लष्कर-ए-तोयबा का एक प्रमुख नेता, भारत सरकार जिसे गिरफ्तार करने की और भारत के हवाले करने की मांग कर रही है, वह हफीज सईद खुषी के मारे उछल रहा है. शिंदे जी क्या आपको यही अभिप्रेत है? मुझे विश्‍वास है कि आपने इसकी कल्पना भी नहीं की होगी. लेकिन यह हुआ है. भारत ही अपनी जमीन पर आतंकवाद प्रशिक्षित कर रहा है, ऐसा निष्कर्ष उसने आपके वक्तव्य से निकाला है. अनजाने ही सही आपकी फिसली जुबान से यह महान् प्रमाद हुआ है फिर भी आपको गृहमंत्री के रूप में बने रहने में स्वारस्य अनुभव होता है!

- मा. गो. वैद्य
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी) 
Babujivaidya@gmail.com 

         
        
          

Monday 21 January 2013

पाकिस्तान टिकने, टिकाए रखने में क्या मतलब है?


जम्मू-कश्मीर की नियंत्रण रेखा पर तैनात पाकिस्तानी सेना की टुकडी ने नियंत्रण रेखा लांघकर- मतलब भारत की सीमा में घुसकर, दो भारतीय सैनिकों की हत्या की और उनमें से एक सैनिक का सिर भी काटकर ले गये. इस क्रूरता से सारा देश भड़क उठा. अनेक सियासी पार्टिंयों ने पाकिस्तान के इस कृत्य का तीव्र निषेध कर पाकिस्तान के साथ जैसे को तैसाव्यवहार कर, सबक सिखाने की मॉंग की. लेकिन भारत सरकार शांत रही. उसने नियंत्रण रेखा के दोनों ओर के सेनाधिकारियों की शांति-बैठक (ध्वज मिटिंग) का प्रस्ताव रखा. पाकिस्तान की ओर से पहले तो उसे सकारात्मक प्रतिसाद नहीं मिला. भारत में वातावरण इतना गर्मा गया कि, हवाई सेना प्रमुख को, ‘हमें अन्य विकल्पों का विचार करना पड़ेगाऐसा कहना पड़ा. स्थल सेनाध्यक्ष ने भी ऐसे ही कठोर निर्धार के शब्दों का प्रयोग किया. अंत में देर से ही सही, वह क्रूर घटना घटित होने के एक सप्ताह बाद, प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को भी कहना पड़ा कि, ‘‘इस राक्षसी कृत्य के बाद, पाकिस्तान से हमारे संबंध सामान्य नहीं रहेगे.’’ प्रधानमंत्री अपने वक्तव्य से देश के जनता की भावना ही व्यक्त कर रहे थे.

क्षुब्धता का आविष्कार
८ जनवरी को नियंत्रण रेखा पर हुए उस निर्दयी कत्ल के बाद सारा देश क्षुब्ध हुआ. परिणामस्वरूप हॉकी खेलने के लिए भारत में आये पाकिस्तानी खिलाडियों को वापस लौटना पड़ा. महिला विश्‍व क्रिकेट के मॅच मुंबई में होने वाले थे. मुंबई के क्रिकेट नियामक मंडल ने बताया कि, ये मॅच मुंबई में नहीं हो सकेगे. फिर वे मॅच अहमदाबाद में लेने का विचार प्रकट हुआ. वहॉं के क्रिकेट मंडल ने भी वही भूमिका ली. अब, वे मॅच ओडिशा में होगे, ऐसा समाचार है.

शौर्य और क्रौर्य
लेकिन कुछ प्रसार माध्यमों को, भारत का यह द्वेष पसंद नहीं. उन्होंने इसकी भडकाऊ देशभक्ति   (Chauvinistic Jingoism)  कहकर आलोचना की है. इन लोगों को  पाकिस्तान के हितचिंतककहा तो वह उन्हें जचेगा नहीं. लेकिन प्रश्‍न यह है कि, उन्हें पाकिस्तान हितचिंतकक्यों न कहे? पाकिस्तान की सरकार और सेना कहती है कि, हमने भारत के सैनिक का सिर काटा ही नहीं. विपरीत उनका तो आरोप है कि भारत के ही सैनिकों ने नियंत्रण रेखा लांघकर पाकिस्तान की सीमा मे प्रवेश किया. कुछ समय के लिए हम यह मान भी ले कि, भारतीय सैनिकों ने नियंत्रण रेखा का उल्लंघन किया. इसलिए पाकिस्तान की सेना ने उन पर गोलियॉं चलाई और उन्हें मार डाला. लेकिन मारे हुए सैनिक का सिर क्यों काटा? पहले सिर काटकर, बाद में उसे मारा गया, ऐसा तो नहीं हुआ? और ऐसा होना असंभव नहीं. मुसलमानों के सिर पर कौनसा भूत सवार होता है पता नहीं, उन्हें क्रौर्य अधिक पसंद होता है. शौर्य और क्रौर्य का भेद ही उनके ध्यान में नहीं आता.

क्रौर्य का कारण?
अब सेना के अधिकारी बता रहे है कि, ऐसे सिर काटकर ले जाने की यह कोई पहली ही घटना नहीं. इसके पहले भी दो बार भारतीय सैनिकों के बारे में ऐसी ही घृणास्पद घटनाएँ हो चुकी थी. तथापि, इस पर हमने आश्‍चर्य करने का कारण नहीं. कारगिल युद्ध के समय, भारतीय हवाई सेना का एक विमान चालक भूल से पाकिस्तान की सीमा में चला गया, तो उसे पकडकर, भीषण यातनाए देकर उसकी हत्या की गई. कुछ वर्ष पूर्व बांगला देश के सैनिकों के हाथ कुछ भारतीय सैनिक लगे. उन्हें केवल जान से मारा नहीं गया. उनकी चमडी उधेडी गई थी. महमद घोरी ने पृथ्वीराज चव्हाण की आँखें निकालकर फिर उसकी हत्या की. औरंगजेब ने भी संभाजी महाराज की आँखें निकालकर, फिर एक-एक अवयव पर शस्त्राघात कर उनकी हत्या की थी. यह जंगली अवस्था के मध्ययुग की घटनाए है, ऐसा हम मानते है. नही, यह मध्ययुग के जंगलीपन का आविष्कार नहीं. वह मुस्लिम समाज के अंतर्भूत क्रौर्य का आविष्कार होगा ऐसा लगता है. इसलिए ऐसा राक्षसी क्रौर्य २० वी और २१ वी सदी में भी हमें दिखाई देता है. यह घटनाए अपवादात्मक नहीं. कश्मीर की घाटी से कश्मिरी पंडितों को खदेडने के लिए यही तरीका घाटी के मुसलमानों ने अपनाया था. जिज्ञासू, तेज एन्. धर की पुस्तक  'Under the shadow of militancy : the diary of an unknown Kashmiri' पढ़े. आदमी को एकदम नहीं मारना. यातनाए देकर देखने वाले के मन में महशत निर्माण करना और फिर आदमी को खत्म करना, ऐसी यह रीति है. यह रीति इस्लाम की सीख से आई कहे या, अरब टोलियों के चरित्र के अनुकरण से आई ऐसा माने, यह विवाद का मुद्दा है. लेकिन वह मुसलमानों के शौर्य का, क्रौर्य का अविभाज्य घटक बना है. सन् १९७१ में, हमारे कब्जे में पाकिस्तान के, एक-दो नहीं, करीब ९२ हजार सैनिक कैदी थे. छॉंटा गया एक का भी सिर? सिमला समझौते के बाद उन कैदियों को पाकिस्तान वापस लौटाया गया. सैनिकों के वापसी का ऐेसा एक कार्यक्रम मैंने सीमा की वाघा चौकी पर देखा है. कैदी सैनिक हाथ में पवित्र कुरान की पुस्तक लेकर भारतीय सीमा में से, नो मॅन्स लॅण्ड में और वर्हां से पाकिस्तान की सीमा मे गये. ऐसा क्यों हुआ? और पाकिस्तान या बांगला देश का व्यवहार ऐसा क्यों नहीं हो सकता, इस प्रश्‍न का उत्तर मुसलमानों ने ही देना चाहिए.

द्वेष में से जन्म
भारत में के कई लोगों को लता है कि, पाकिस्तान के साथ हमारे संबंध अच्छे रहे. शांतता के हो. परस्पर व्यापार हो, यातायात चलता रहे. खेल, नाटक, सिनेमा आदि क्षेत्रों में परस्पर सहयोग रहे. इससे दोनों देशों के बीच के संबंध सुधरेगे. लेकिन यह अपेक्षा व्यर्थ है. हम सब, कम से कम समझदार लोग, प्रसार माध्यम और पाकिस्तान के प्रति प्रेम-भावरखने वाले सज्जन यह जान ले कि, यह संभव नहीं. कारण, पाकिस्तान की जनता भले ही शांततापूर्ण जीवन चाहती हो, वहॉं की सेना भारत के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध रखना नहीं चाहती. पाकिस्तान का जन्म ही भारत के, सही में हिंदूओं के द्वेष से हुआ है. हाल ही में वकार अहमद इस लेखक का द आयडिऑलॉजी  ऑफ पाकिस्तान : अ थॉर्नी इश्युशीर्षक का लेख पढ़ा. लेखक प्रश्‍न करता है कि, पाकिस्तान का सिद्धांत क्या है? ‘इस्लामकहे तो बांगला देश पाकिस्तान से विभक्त क्यों हुआ? १९४७ में तो बांगला देश पाकिस्तान का ही भाग था. वहॉं भी इस्लाम मानने वाले मुसलमान ही बहुसंख्य थे. ऐसा होते हुए भी टिक्काखान के सैनिकों ने मुसलमान बंगाली स्त्रियों पर अत्याचार क्यों किए? वकार अहमद प्रश्‍न उपस्थित करते है कि, स्वतंत्रता मिलने के बाद, हिंदुस्थान में जनतांत्रिक व्यवस्था में बहुसंख्य हिंदुओं का ही राज्य आएगा और उस राज्य में मुसलमानों की उन्नति और प्रगति नहीं हो पाएगी, इसलिए पाकिस्तान की मांग की गई ऐसा कहे तो बड़ी संख्या में मुसलमानों को भारत में ही क्यों रहने दिया गया? हम साथ रहते तो हमारी (मुसलमानों की) जनसंख्या ४० प्रतिशत होती. इससे हमारे सियासी अधिकार प्राप्त करने के लिए हमें अधिक ताकत मिलती. फिर विभाजन की मांग क्यों? वकार अहद के प्रश्‍नों का सही उत्तर एक ही है और वह है हिंदूओं का द्वेष.

राष्ट्र निर्माण का आधार इस्लाम नहीं
सब समझ ले कि, इस्लाम, राष्ट्र निर्माण का आधार नही हो सकता. अन्यथा अरेबिया, येमेन, सीरिया, इराक, इरान, अफगाणिस्थान यह अलग राष्ट्र बनते ही नहीं और न उनके बीच परस्पर संघर्ष होते. ये संघर्ष अभी भी चल ही रहे है. राष्ट्र बनने के लिए लोगों का एक समान इतिहास आवश्यक होता है. समान परंपरा आवश्यक होती है. वर्तमान का संबंध भूतकाल से होना चाहिए. कुछ जीवन मूल्य मतलब अलग संस्कृति चाहिए. यह शर्ते जो समाज पूर्ण करता है, उसका राष्ट्र बनता है. उस समुदाय को उस संस्कृति के मूल्यों का भान होना चाहिए. पाकिस्तान के पास ऐसा कुछ भी नहीं है. १९४७ के पूर्व का संपूर्ण पाकिस्तान का अलग इतिहास नहीं है. महापुरुष नहीं. समान सांस्कृतिक मूल्य भी नहीं. इस्लाममजहब यही एकमात्र जोडने वाला बंध था. लेकिन वह राष्ट्रभाव निर्माण नहीं कर सकता, यह ऊपर बताया ही है. उसमें वह सामर्थ्य होता, तो बांगला देश विभक्त ही न होता. उर्दू के आग्रह से पाकिस्तान के टुकड़े हुए ऐसा कहे, तो उर्दू उनकी धर्मभाषा है ही नहीं. पवित्र कुरान उर्दू में नहीं लिखा गया. इरान या इराक की भाषा या करीब के अफगाणिस्थान की भाषा भी उर्दू नहीं; फिर उर्दू का दुराग्रह क्यों? मेरा तो मत है कि वह एक बहाना था. संपूर्ण पाकिस्तान की जनसंख्या में पूर्व पाकिस्तान की- मतलब आज के बांगला देश की जनसंख्या अधिक थी. पाकिस्तान के सत्ता-सूत्र बंगाली भाषी मुस्लिमों के हाथ न जाए, इसलिए सब उठापटक थी. इस कारण ही अवामी लीग को बहुमत मिलने के बाद भी, उस पार्टी के नेता मुजीबुर रहमान को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया. उन्हें कैद में डाल दिया. उसके बाद का इतिहास सर्वज्ञात है.

अशांत पाकिस्तान
मुझे यहॉं यह अधोरेखित करना है कि, पाकिस्तान राष्ट्र है ही नहीं. वह एक कृत्रिम राज्य है. अँग्लो-अमेरिकनों की वैश्‍विक सियासी सुविधा के लिए उसकी निर्मिति हुई है और उनकी वह सुविधा ही पाकिस्थान को टिकाए रखे है. लेकिन, अब दुनिया की राजनीति में आमूलाग्र परिवर्तन हुआ है. रूस का भय नहीं रहा. शीतयुद्ध समाप्त हो चुका है और इधर पाकिस्तान अशांत है. हाल ही में पाकिस्तान के बलुचीस्थान प्रान्त में, एक घटना में, करीब एक सौ शिया पंथी मुसलमानों की हत्या की गई. क्यों? कारण एक ही कि, वे मुस्लिम थे लेकिन अल्पसंख्यक शिया पंथी थे. बलुचीस्थान अशांत है. सिंध में स्वायत्तता के लिए अनुकूल हवाएँ फिर चलने लगी है. १९४७ तक वायव्य सरहद प्रान्त में कॉंग्रेस पार्टी की सरकार थी. लेकिन पश्तुभाषी पठान भारत के  साथ संलग्नता चाहते थे. आज क्या स्थिति है, बताया नहीं जा सकता. लेकिन इस प्रान्त के कुछ भागों में पाकिस्तान सरकार की हुकुमत नहीं चलती, टोली वालों का हुक्म चलता है, यह वस्तुस्थिति है.

तानाशाही से लगाव
पाकिस्तान एक असफल राज्य  (Failed State) है. वह टिकना संभव नहीं. वहॉं गत पॉंच वर्षों से जनतांत्रिक व्यवस्था दिखाई दे रही है. लेकिन यह अमेरिका के दबाव में हुआ है. ऐसा लगता है कि इस्लाम का जनतंत्र से बैर है. तुर्कस्थान जैसा एखाद अपवाद छोड़ दे, तो करीब सब मुस्लिम राष्ट्रों में अभी-अभी तक तानाशाही थी. अमेरिका के दबाव में जनतंत्र का दिखावा चल रहा है. अमेरिका ने हस्तक्षेप रोक दिया तो फिर सर्वत्र तानाशाही स्थापित होगी. और देशों को छोड़ दे. हमारे करीब के अफगाणिस्थान और पाकिस्तान का ही विचार करते है. एक वर्ष बाद अफगाणिस्थान से अमेरिका और उसके साथ अन्य नाटो राष्ट्र अपनी फौज वापस ले जाने वाले है. उसके बाद अफगाणिस्थान में पुन: तालिबान की सत्ता आएगी इस बारे में संदेह नहीं. पाकिस्तान में कभी भी जनतांत्रिक व्यवस्था स्थिर नहीं हो पाई. १९५८ में अयूब खान यह फौजी सत्ताधारी बने. न्होंने ११ वर्ष सत्ता चलाई. १९६९ में याह्या खान ने उन्हें हटाकर अपनी सत्ता स्थापन की. याह्या खान भी फौजी अधिकारी ही थे. उनके बाद याह्या खान ने झुल्फिकार अली भुत्तो को सत्ता सौंपी. उनके चुनाव के माध्यम से स्थिर होने के पूर्व ही झिया-उल-हक इस फौजी अधिकारी ने उन्हें पदच्युत कर और एक बनावट मुकद्दमे का आधार लेकर फॉंसी पर लटका दिया. फिर एक विमान दुर्घटना में झिया-उल-हक की मौत हुई. फिर कुछ समय के लिए जनतांत्रिक व्यवस्था कायम हुई, और सेनापति मुशर्रफ ने प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को बरखास्त कर सत्ता अपने हाथ में ली. अब २०१३ में पाकिस्तान में चुनाव होने है. लेकिन पाकिस्तान के फौजी प्रमुख कयानी की सत्ता पर नज़र है. कयानी ने जरदारी को पदच्युत कर सत्ता हथियाने का समाचार मिलने के लिए बहुत लंबे समय राह देखनी पड़ेगी ऐसा नहीं लगता.

नई रणनीति
यह सब ब्यौरा देने का कारण यह कि, पाकिस्तान मतलब पाकिस्तान की सरकार मतलब पाकिस्तान की जनता ऐसा समझने की गल्ती हम न करे. पाकिस्तान मतलब पाकिस्तान की फौज यह समीकरण हमने ध्यान में लेना चाहिए; और उस फौज का पराभव करके ही हम पाकिस्तानी जनता को सुखी कर सकते है. खेल या अन्य मनोरंजन के माध्यमों के सद्भाव पर पाकिस्तान सरकार या पाकिस्तानी फौज की नीति निर्भर नहीं रहेगी. अत: हमें पाकिस्तान को टिकाए रखने में रुचि होने का कारण नहीं. पाकिस्तान का विघटन ही हमारी दृष्टि से हितप्रद होगा. शुरुवात पाकव्याप्त कश्मीर से करने में हर्ज नहीं. महाराजा हरिसिं द्वारा भारत में विलीन किया गया संपूर्ण जम्मू-कश्मीर राज्य, भारत का अविभाज्य घटक है, यह हमारी अधिकृत भूमिका है. वह हमने राष्ट्र संघ में रखी भी है. २२ फरवरी १९९४ को हमारी सार्वभौम संसद के दोनों सदनों ने एकमत से पारित किए प्रस्ताव में इस भूमिका का पुनरुच्चार किया गया है. इस जम्मू-कश्मीर राज्य का कुछ भाग पाकिस्तान ने आक्रमण कर, अवैध रूप में अपने कब्जे में रखा है. वह वापस लेने का हमे अधिकार है. वैसा मौका, कारगिल युद्ध के समय हमें प्राप्त हुआ था. अब पुन: १४ वर्ष बाद, हमारे सैनिकों के बर्बर कत्ल के बाद हमें वह मौका मिला है. इस पाकव्याप्त कश्मीर की बहुतायत जनता पाकिस्तान की चुंगुल से छूटना चाहती है. इसका हमें लाभ मिल सकता है. उन्हें भारत से मदद की अपेक्षा है.  
बलुचीस्थान और सिंध भी स्वतंत्र होने के लिए उत्सुक है. वहॉं के लोगों को हमारी मदद चाहिए. भारत से पंजाब को तोड़ने के लिए पाकिस्तान खलिस्थान वालों को मदद कर सकता है, तो हमने बलूच और सिंधी लोगों की मदद क्यों नहीं करनी चाहिए? श्रीमती इंदिरा गांधी की नीति का अनुसरण करना चाहिए. कैसे और कितनी मदद करना यह ब्यौरे और रणनीति के विषय है. केवल इतना ही ध्यान में लेना चाहिए कि, पाकिस्तान के टिके रहने और उसे टिकाए रखने में हमें आस्था होने का कारण नहीं. फिर लघु दृष्टि के सेक्युलॅरिस्ट और सतही सोच रखने वाले प्रसार माध्यम कुछ भी कहे. इसका अर्थ पाकिस्तान के स्वातंत्र्योत्सुक प्रान्तों को भारत के साथ राजनीतिक दृष्टि से संलग्न करे यह नहीं. प्रथमतः सांस्कृतिक दृष्टि से वे हमारे नजदिक आने चाहिए. फिर उन्हें समावेशकता के तत्त्व का (inclusiveness) महत्त्व समझ आएगा. जैन, बौद्ध, सिक्ख ये सब अपनी धार्मिक विशेषताएँ और पंथोपपंथों का अस्तित्व कायम रखते हुए एक विशाल संस्कृति के - जिसे हिंदू संस्कृति कहा जा सकता है - भाग बने है. मुसलमान भी वैसे बन सकते है. फिर सुन्नी, शिया, कादियानी, सूफी सब समन्वय के साथ रह सकेगे और भारतीय जनता के साथ, इन प्रान्तों की जनता के सही अर्थ में स्नेह-बंध निर्माण हो सकेगे. हमें ऐसे ही स्नेह-बंध अपेक्षित है!

- मा. गो. वैद्य
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी )
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