Monday 24 June 2013

पत्रकारिता कैसी है. कैसी होनी चाहिए?

पत्रकारिता आज हमारे सार्वजनिक जीवन का अविभाज्य घटक बन चुकी है. हमने जनतांत्रिक व्यवस्था स्वीकार की है. इसका अर्थ ही यह है कि सब शक्तियों का केंद्रीकरण हमें मान्य नहीं. ऐेसा केंद्रीकरण तानाशाही व्यवस्था का लक्षण है. जनतंत्रमें भी व्यवस्था होती ही है. सामान्यत:, इस राज्यव्यवस्था के एक-दूसरे से संबंधित, लेकिन एक-दूसरे से स्वतंत्र और एक-दूसरे पर अंकुश रख पाने वाले, तीन स्वतंत्र भाग सर्वत्र मान्यता प्राप्त है. 1) विधायिका - मतलब विधि मंडल. इस संस्था के पास कानून बनाने के अधिकार है; और इस में लोगों के प्रतिनिधि समाविष्ट होंगे, 2) कार्यपालिका - मतलब प्रशासकीय व्यवस्था. कानून कौन अमल में लाएगा? अर्थात् प्रशासन, मतलब सरकार. यही कार्यपालिका है और 3) न्यायपालिका - कानून के शब्दों और उसके पीछे की भावना का मर्म ध्यान में लेकर, उस कानून का कार्यान्वयन कार्यपालिका की ओर से सही हुआ या नहीं, यह देखनेवाली व्यवस्था मतलब न्यायपालिका.

चौथा स्तंभ
यह तीन व्यवस्थाएँ जनतांत्रिक व्यवस्था के तीन महत्त्व के अंग है फिर भी वे एक-दूसरे से जुडे है. विधिमंडल में जिन प्रतिनिधियों का बहुमत होता है, उन्हीं प्रतिनिधियों या उनके चुनिंदा समूहों की ओर से कानून का कार्यान्वयन होता है, साथ ही कानून बनाने में भी इन प्रतिनिधियों के शब्द और इच्छा को वजन होता है. कारण, जनतंत्र में बहुमत का ही प्राबल्य होता है. न्यायपालिका स्वतंत्र होती है, ऐसा कहा जाता है. लेकिन न्यायपालिका के न्यायाधिशों की नियुक्ति कौन करता है? उन नियुक्तियों की जिम्मेदारी भी अंततोगत्वा प्रशासन पर ही आती है. इस कारण जनतांत्रिक व्यवस्था के यह जो तीन स्तंभ है, उनकी एक-दूसरे के साथ संलग्नता मान्य करनी ही पडती है. इस कारण जनतांत्रिक व्यवस्था में एक चौथे स्तंभ को भी मान्यता प्राप्त है. वह स्तंभ पत्रकारिता है. वह, इन तीन अंगों के समान एक-दूसरे से संलग्न नहीं. वह इन तीनों से स्वतंत्र है और यह तीन स्तंभ उनके कर्तव्य कैसे निभा रहा है, यह बताने का दायित्व इस चौथे स्तंभ का है. पहले तीन स्तंभ, जनतांत्रिक व्यवस्था के एक जुलूस के घटक कहे जा सकते है. लेकिन यह जुलूस कैसे चल रहा है, यह कौन बताएगा? जुलूस के घटक तो नहीं बता सकेंगे, जो बाजू में खडे होकर जुलूस का निरीक्षण करेंगे, वे ही जुलूस कैसे चल रहा है, यह बता सकेंगे. यह तटस्थमतलब किनारे खड़ी, और नि:पक्ष रीति से वह जुलूस देखनेवाली, उसका मूल्यांकन करनेवाली शक्ति मतलब पत्रकारिता. जनतांत्रिक व्यवस्था में जनप्रबोधन यह भी एक अवश्यंभावी भाग होता है. उस जनप्रबोधन की जिम्मेदारी इस चौथे स्तंभ की होती है. जनतंत्र में, लोक-शिक्षा का महत्त्व कोई भी नहीं नकारेगा.

प्राचीन भारत में की व्यवस्था
हमारे भारत देश में, ऐसी जनतांत्रिक व्यवस्था प्राचीन समय में थी? - इस प्रश्‍न का तुरंत हाँया नाउत्तर देना कठिन है. सामान्यत: राजशाही ही थी. कुछ गणराज्य भी थे, यह सच है. लेकिन वे बहुत छोटे-छोटे थे. विदेशी आक्रमकों के सामने वे टिक नहीं पाए. ईसवी सन् से पूर्व चौथी शताब्दी में ग्रीस के राजा अलेक्झांडर ने भारत पर आक्रमण किया, तब उस आक्रमण का प्रतिकार सीमावर्ती प्रदेश के गणराज्य सफलता से नहीं कर पाए. अंत में आर्य चाणक्य ने साम्राज्य की स्थापना कर उस आक्रमण के सब परिणाम पूरी तरह से मिटा दिए. उसके बाद गणराज्य करीब-करीब समाप्त हो गए.
साम्राज्य के साथ सम्राट आता ही है. राजशाही में भी राजा होता ही है. यह राजाकैसे बनता था? अर्थात् परंपरा से. राजा का चुनाव जनप्रतिनिधि करते थे, ऐसे उल्लेख हमारे अतिप्राचीन साहित्य में मिलते है. वैदिक साहित्य में समितिऔर सभाऐसी दो व्यवस्थाओं का उल्लेख है. इसमें की समितिजनप्रतिनिधियों की ही होती थी और वह राजा का चुनाव करती थी. लेकिन चुनाव की यह स्वतंत्रता मर्यादित थी, ऐसा दिखता है. मतलब समितिअपने में से ही किसी को राजा नहीं बना सकती थी. राजा, राजघराने से ही आता था. समिति का काम उस पर मुहर लगाना होता था. समितिको, राजा को पदच्युत करने का भी अधिकार होगा. लेकिन उसके स्थान पर राजघराने में की ही अन्य व्यक्ति का चुनाव करना पडता था. समिति ने क्रूर वेन राजा को पदच्युत किया था, और उसके स्थान पर उसका पुत्र वैन्य पृथू को राजपद दिया था, ऐसी कथा है. जनता के प्रतिनिधियों में से कोई राजा नहीं बन पाया. प्रजा के प्रतिनिधियों की सम्मति लेने की परंपरा आगे भी कई वर्ष चलती रही, ऐसा दिखता है. राजा दशरथ ने जब राम को यौवराज्याभिषेक करना तय किया, तब उसने पौर मतलब नगरवासी और जनपद मतलब ग्रामवासी लोगों के प्रतिनिधियों को बुलाकर उनके सामने अपना प्रस्ताव रखा था और उनकी सम्मति के बाद ही राम को युवराज पद पर बिठाने का निर्णय लिया था.

राजा और प्रजा का हित
इस परंपरा का अर्थ स्पष्ट है. वह यह कि, राजा ने प्रजा का मत जान लेना चाहिए और प्रजा का हित ध्यान में रखना चाहिए. राजधर्ममतलब राजा के वह कर्तव्य जो उसे प्रजा के साथ जोडते है. महाकवि कालिदास ने भी राजा प्रकृतिरंजनात्मतलब वह प्रजा का रंजन करता है इसलिए उसे राजा कहते है, ऐसा कहा है. ईक्ष्वाकू कुल के प्रसिद्ध राजा दिलीप की राज्यव्यवस्था का वर्णन करते हुए कालिदास कहता है -
प्रजानां विनयाधानाद् रक्षणाद् भरणादपि।
स पिता पितरस्तासां केवलं जन्महेतव:॥
वह (दिलीप) प्रजाजनों को शिक्षा देता है, उनकी रक्षा और भरण करता है इस कारण, मानो वह उनका पिता बन गया था. उनके माता-पिता केवल उनके जन्म के निमित्त थे.
आर्य चाणक्य ने भी
प्रजासुखे सुखं राज्ञ: प्रजानां च हिते हितम्।
नात्मप्रियं हितं राज्ञ: प्रजानां तु प्रियं हितम्।
ऐसा बताया है. इस श्‍लोक का अर्थ स्पष्ट है - प्रजा के सुख में राजा का सुख है. प्रजा के हित में राजा का हित है, राजा का स्वयं का अलग हित नहीं होता, प्रजा को जो प्रिय वही राजा के लिए हितकारक. सभासमिति के हाथ के नीचे न्यायादन का काम करती थी. तात्पर्य यह कि राजा पर प्रजा के कल्याण का दायित्व होता था. 

नारद और पत्रकारिता
लेकिन, राजा राज्य कैसा करता है, यह सामान्य जन को बतानेवाली व्यवस्था मतलब पत्रकारिता उस समय नहीं थी. प्राचीन काल में तो थी ही नहीं. लेकिन बाद में भी नहीं थी. इतना ही नहीं समितिऔर सभाइन व्यवस्थाओं का भी आगे चलकर लोप हुआ. यह लोप कब हुआ और क्यों हुआ, यह बतानेवाले कोई प्रमाण नहीं. पिछले कुछ समय में पत्रकारिता का संबंध नारद मुनि के साथ जोडा गया है और वह संबंध नारद जयंति के साथ भी जोडा गया है. किसी नई व्यवस्था का संबंध प्राचीनत्व के साथ जोडकर, अपनी परंपरा का गौरवबोध करा देने में वैसे तो कुछ अनुचित नहीं. लेकिन यह बताना ही चाहिए कि, नारद आद्य पत्रकार नहीं था. बहुत हुआ तो हम उसे संवाददाता कह सकते है. पत्रकारिता में’ ‘पत्रशब्द है. उस पर लेखन अभिप्रेत है. उस समय तो वह नहीं था. नारद मुनि क्या करते थे, यह हम पं. महादेव शास्त्री ने संपादित किए भारतीय संस्कृतिकोशमें के वर्णन से जान सकते है. संस्कृतिकोश बताता है -
‘‘नारद शब्द सुनते ही भारतीयों के कल्पना-सृष्टि में एक विशिष्ट मूर्ति खड़ी होती है. सदा हरिकीर्तन में निमग्न, गले में वीणा, निरंतर भ्रमंति, विनोद जिसके रोम-रोम में भरा है, कलह निर्माण करना उसकी सहज लीला, ऐसा यह व्यक्तिचित्र है. नारद ईश्‍वर की द्वंद्वात्मक लीला चलाने के लिए मदद करता है. जहाँ मद, दंभ और विद्वेष इन आसुरी शक्तियों का अतिरेक होता है, वहाँ सही समय पर प्रविष्ट होकर वह उन शक्तियों का सफाया करता है. नारद को जहाँ प्रवेश नहीं ऐसा स्थान ही त्रिलोक में नहीं. सप्त स्वर्ग से सप्त पाताल तक उसका अनिरुद्ध संचार रहता है. अनेक राजाओं की राज सभा में और अन्त:पुर में कलहाग्नि सुलगाकर वह वहाँ हाहाकार मचाता है, और कुछ ही समय में वहाँ स्वर्गसुखों का बाज़ार भी लगा देता है.’’ (मराठी भा. सं. को. खंड - 5, पृ. 55 का हिंदी अनुवाद)
मेरे मतानुसार पत्रकारों का काम कलह लगाना नहीं है. कुछ पत्रकार यह काम करते है, यह मुझे मान्य है. लेकिन यह उनका कर्तव्य नहीं. नारद और संवाददाता में एक ही साम्यबिंदु है और वह यह कि, दोनों का सर्वत्र संचार रहता है. और नारद यह एक ही होगा ऐसा भी नहीं. वह कुलनाम भी हो सकता है. जैसे वसिष्ठ, विश्‍वामित्र आदि. वसिष्ठ राजा दिलीप के समय भी थे और उनके बाद की पाँचवी पीढ़ि के राजा राम के समय भी थे. उसी प्रकार विश्‍वामित्र. हरिश्‍चन्द्र से दशरथ तक उनका अस्तित्व है. अत: वह कुलनाम ही थे यह स्वीकार करना ठीक होगा.

पाश्‍चात्त्यों का ॠण
नारद को पत्रकारिता का मूल पुरुष मानने में मुझे तो कोई औचित्य नहीं दिखता. सीधे पाश्‍चात्त्यों से हमने यह विद्या और कला सीखी यह मानना उचित है.  वैसे भी दुनिया के किसी भी भाग से जो सीखने लायक है, वह सीखने में कोई हीन भाव नहीं. इंग्लंड में भी जनतंत्र एकदम नहीं आया. राजा श्रेष्ठ या जनप्रतिनिधियों की सभा पार्लमेंट श्रेष्ठ, यह संघर्ष करीब सौ साल तक चला. उस संघर्ष में एक राजा को फाँसी पर लटकाया गया तो एक को जान बचाकर भागना पडा. तब कहीं पार्लमेंट की श्रेष्ठता सिद्ध हुई. वहाँ भी क्रमश: विकास होता गया. महिलाओं को मताधिकार प्राप्त होने के लिए तो बीसवी सदी लगी. इस विकासमान कालखंड में ही समाचरपत्रों का उदय हुआ. उसे जनतंत्र का चौथा स्तंभ ऐसी प्रतिष्ठा प्राप्त हुई. वह एक व्यवसाय भी बन गया और साथ ही उसकी निरामयता के लिए तथा जनहित की रक्षा के लिए कुछ तत्त्व भी निश्‍चित हुए. पहले इसमें के प्रमुख तत्त्वों की चर्चा करेंगे और बाद में उन तत्त्वों के मानदंड पर आज की भारतीय पत्रकारिता का मूल्यांकन करेंगे.

अमेरिका में की पत्रकारिता
अमेरिका मतलब संयुक्त राज्य अमेरिका में जनतंत्र अधिक निकोप है. इस कारण पत्रकारिता भी परिपक्व है. समाचारपत्रों के संपादकों ने स्वयं के लिए लिखित स्वरूप में कुछ मार्गदर्शक तत्त्व निश्‍चित किए है. 23 अक्टूबर 1975 को इन तत्त्वों की उन्होंने नए सिरे से रचना की और पहले की सन् 1922 की तत्त्वसंहिता रद्द की. उन तत्त्वों की आस्थापना में (प्रि-अ‍ॅम्बल) पत्रकारों की तत्त्वनिष्ठा (integrity) पर जोर दिया गया है. इस संहिता की पहली ही धारा में कहा है कि, ‘‘समाचार प्राप्त करना और उसके प्रसारण पर मत प्रदर्शन करना इन क्रियाओं का पहला उद्देश्य जनकल्याण होगा. उन्होंने दी जानकारी के आधार पर लोगों को उन घटनाओं का मूल्यांकन करते आना चाहिए. जो पत्रकार स्वार्थ साधने के लिए उन्हें प्राप्त सामर्थ्य का उपयोग करते है, वे स्वयं के व्यवसाय के साथ द्रोह करते है. अमेरिका में पत्रकारिता को संविधान ने जो स्वतंत्रता दी है, उसका उद्देश्य केवल जानकारी देना या चर्चा कराना नहीं. उसका उद्देश्य समाज में जो शक्ति केंद्र है, उन केंद्रों के अधिकारियों के व्यवहार की नि:पक्ष चिकित्सा भी करना है.’’

समाचारपत्र स्वतंत्रता किसलिए?
‘‘समाचारपत्रों की स्वतंत्रता (Freedom of the Press) सही में लोगों की स्वतंत्रता है. सरकारी हो या नीजि, क्षेत्रों की ओर से, लोगों पर होनेवाले आघातों से उस लोकस्वतंत्रता की रक्षा पत्रकारिता को करते आनी चाहिए. हम जो समाचार दे रहे है वह सत्य और अचूक है इस बारे में पूरी तरह सचेत रहना होगा. पत्रकार उस समाचार के स्त्रोतों के दबाव में नहीं होने चाहिए.’’
यह तत्त्व ध्यान में लेकर अलग-अलग समाचारपत्रों ने अपने संवाददाताओं के लिए कुछ पथ्य भी बताए है. उनमें से एक यह कि, संवाददाता भेटवस्तु न स्वीकारे. समाचारपत्रों ने, उनकी यात्रा और भोजन का खर्च करना चाहिए. रिपोर्टर्स एथिक्स’ (संवाददाताओं का नीतिशास्त्र) इस पुस्तक में, ब्रुस स्वेन ने अलग-अलग समाचारपत्रों ने अपने संपादकों के लिए निर्धारित किए तत्त्व, परिशिष्ट में दिए है. शिकागो सन् टाईम्स, डेस मॉईनेस रजिस्टर, ट्रिब्यून, लुई व्हिले कोरियर जर्नल, स्क्रिप्स हॉवर्ड न्यूजपेपर्स, वॉशिंग्टन पोस्ट आदि समाचारपत्रों ने अपने कर्मचारियों के लिए बनाए नियमों और पथ्यों का उसमें अंतर्भाव है. नमूने के लिए वॉशिंग्टन पोस्टक्या कहता है वह देखने लायक है.
1) खुले मन से और पूर्वग्रह न रखते हुए काम करने की उन्होंने (संवाद्दाताओं ने) प्रतिज्ञा ली है.
2) जिनकी आवाज नहीं निकलती उनकी बात जान लेना, उद्दडण्ता की कृति टालना और सभ्य रीति से तथा खुलकर जनता से मिलना यह उनकी जिम्मेदारी है.
3) हमारा खर्च हम करेंगे, समाचार के स्त्रोतों से कोई भेट-वस्तु नहीं लेंगे, हम केवल वॉशिंग्टन पोस्टसे संबंध है. अन्य किसी के साथ हमारी कोई संबंधता नहीं.
4) गलति न हो, इसकी हम खबरदारी लेंगे. गलति हुई तो तुरंत सुधारेंगे. अचूकता ही हमारा लक्ष्य है और निष्कपटता हमारा बचाव है.
हमारे देश के समाचारपत्र अपने कर्मचारियों के लिए ऐसी आचारसंहिता बनाएंगे? मुझे तो आशा नहीं. स्वेन की यह पुस्तक हिंदुस्थान पब्लिकेशन कार्पोरेशन, दिल्लीने प्रकाशित की है. सब उसे अवश्य पढ़े.

सरकार और समाचारपत्र
समाचारपत्रों के मालिकों, प्रबंध संपादकों, और कर्मचारी संपादकों को पढ़ने के लिए मैं और एक पुस्तक की सिफारिस करता हूँ. पुस्तक का नाम है, ‘मास् मीडिया इन् अ फ्री सोसायटी’. इसमें छ: विख्यात पत्रकारों के लेख है. वह पुस्तक ऑक्सफर्ड अँड आयबीएच पब्लिशिंग कंपनी, 66, जनपथ, नई दिल्ली, ने प्रकाशित की है. उसमें बिल मॉयर्स इस पत्रपंडित का प्रेस अँड गव्हर्नमेंटशीर्षक का सुंदर लेख है. यह बिल मॉयर्स अमेरिका के अध्यक्ष का प्रसिद्धि अधिकारी था. नौकरी छोडकर उसने न्यूज डेयह समाचारपत्र निकाला. वह लिखता है, ‘‘पत्रकारिता और सरकार एक-दूसरे के मित्र नहीं; प्रतिस्पर्धी है. दोनों का उद्देश्य लोकहित ही होना चाहिए. इसमें हर किसी का विशिष्ट स्थान है. हमारे संविधान ने ही राष्ट्रपति का स्थान निर्माण किया है, तो उसी संविधान ने पत्रकारिता को संरक्षण दिया है. पत्रकारों ने यह ध्यान में रखना चाहिए की, राष्ट्रपति को राज्य चलाने का जनादेश प्राप्त है और राष्ट्रपति ने यह मान्य करना चाहिए की, पत्रकारिता को, मैं कैसे राज्य कर रहा हूँ यह खोज निकालने की स्वतंत्रता है. दोनों कैसे काम करते है, इस पर हमारी मुक्त और जो स्वतंत्र व्यवस्था (जनतंत्र) है, उसकी परिणामकारकता निर्भर है.’’

हमारे देश में परिवर्तन
भारत की परिस्थिति का विचार करने पर हमारे ध्यान में आएगा कि, अंग्रेजों के राज्य में हमारे यहाँ पत्रकारिता का उदय हुआ. उस पराधीनता के समय स्वतंत्रता प्राप्त करना यह सब सार्वजनिक क्रियाकलापों का ध्येय था और स्वतंत्रता के आकांक्षी जननेता और स्वतंत्रता लिए किए जानेवाले आंदोलन सामान्य लोगों तक पहुँचाने का कार्य समाचारपत्रों ने स्वीकारा था. इस कारण पत्रकारिता ध्येयनिष्ठ थी. ऐसी ध्येयनिष्ठता स्वतंत्रता के बाद के समय टिकना संभव नहीं था और आवश्यक भी नहीं था. उसका व्यवसाय बनना अपरिहार्य था. लेकिन इस व्यवसाय का भी एक नीतिशास्त्र है, वह उस व्यवसाय में काम करनेवाले पत्रकारों के लिए भी बंधनकारक होना चाहिए.

संघ की शिक्षा
हमने भी जनतांत्रिक व्यवस्था स्वीकार की है. हमारे यहाँ विविध सियासी पार्टियाँ रहना अटल है. वैसी वह है भी. समाचारपत्रों के मालिकों के सियासी हितसंबंध या विशिष्ट सियासी पार्टी के साथ की नजदीकी स्वाभाविक है. लेकिन समाचार देते समय, इस हितसंबंध या नजदीकी का, समाचार की सत्यता पर परिणाम नहीं होना चाहिए. मतप्रदर्शन के लिए संपादकीय पृष्ठ है. वही वह मत आने चाहिए. उन्हें समाचारों में नहीं घुसेड़ा जाना चाहिए. समाचार निर्मल और निष्कपट होना चाहिए. वह सत्य बतानेवाला होना चाहिए. अचूक होना चाहिए. समाचार, समाजजीवन में जो जो घटित होता है, वह सब बतानेवाला होना चाहिए. एक उदाहरण देने लायक है. वह ‘तरुण भारत’ के संबंध में है. सन् 1966 में मैंने, इस समाचारपत्र के संपादकीय विभाग में प्रवेश किया. उसके पहले की वह घटना है. अर्धेंदुभूषण बर्धन यह कम्युनिस्ट पार्टी के विख्यात नेता नागपुर के है, यह सब जानते होगे. वे एक बार पश्‍चिम नागपुर से विधानसभा पर चुने भी गए थे. उनके एक कार्यक्रम और उसमें के उनके भाषण का समाचार तरुण भारत में प्रकाशित नहीं हुआ था. श्री बाळासाहब देवरस तरुण भारत संचालित करनेवाली श्री नरकेसरी प्रकाशन संस्था के अध्यक्ष थे. उस समय वे संघ के सरकार्यवाह भी थे. बर्धन के भाषण का समाचार तरुण भारत में नहीं आया यह देखकर वे संपादकीय कक्ष में आये और पूछा कि, ‘‘बर्धन ने क्या कहा, यह जानने के लिए मैंने दूसरा समाचारपत्र पढ़ना चाहिए क्या?’’ ध्यान दे कि, यह प्रश्‍न पूछनेवाले रा. स्व. संघ के बड़े अधिकारी थे और विषय कम्युनिस्ट नेता के वक्तव्य का था.

समग्रता और एकात्मता से देखने का दृष्टिकोण
मैं तरुण भारत का संपादक बनने के बाद भी अनेक वर्ष श्री बाळासाहब देवरस श्री नरकेसरी प्रकाशन संस्था के अध्यक्ष थे. मेरे कार्यकाल में मैं काँग्रेस के नेताओं के लेख प्रकाशित करता था. उस पर चर्चा भी प्रकाशित होती थी. तरुण भारत में का कामगार जगत्यह कामगारों से संबंधित साप्ताहिक स्तंभ एक बार कुछ समय के लिए मैंने इंटक के एक नेता को और, फिर एक बार लाल बावटाइस वाम विचारधारा के नेता को भी चलाने के लिए दिया था. इस संदर्भ में श्री बाळासाहब या संघ के अन्य किसी अधिकारी की ओर से कभी कोई आक्षेप नहीं लिया गया.
और एक प्रसंग बताने जैसा है. बात 1981 की है. तरुण भारत की पुणे संस्करण को 25 वर्ष होने के निमित्त पुणे में एक कार्यक्रम आयोजित था. प्राचार्य शिवाजीराव भोसले मुख्य वक्ता थे. उन्होंने अपने भाषण में कहा, ‘‘तरुण भारत के संचालक और पत्रकार रा. स्व. संघ के होने के बाद भी, उनके समाचारपत्र में सब को स्थान मिलता है.’’ उसके बाद मेरा आभार प्रदर्शन का भाषण था. मैंने कहा, ‘‘शिवाजीराव ने हमारी प्रशंसा करने के लिए हम उनके आभारी है. लेकिन मैं एक संशोधन करना चाहता हूँ. संघ के स्वयंसेवक होने के बाद भी हम सबको स्थान देते हैइसमें हमारा गौरव नहीं. हम संघ के स्वयंसेवक होने के कारण ही सबको स्थान दे पाते है. कारण संपूर्ण समाज की ओर समग्रता और एकात्मता से देखने की सीख हमें संघ में मिली है.’’ इस पृष्ठभूमि पर, हालही में तरुण भारत के एक भूतपूर्व मुख्य संपादक के अमृतमहोत्सव का एक हृद्य समारोह नागपुर में होने के कार्यक्रम के समाचार की एक पंक्ति भी तरुण भारत में प्रकाशित नहीं हुई. इसे क्या कहे? इसे समाचारपत्र का कौनसा नीतिशास्त्र माने? इसमें किसका गौरव हुआ? यह किसके लिए अशोभनीय रहा?

अपप्रवृत्ति का उगम
संवाददाताओं को प्रभावित करने के लिए भेटवस्तुओं की खैरात तो बटँती ही है. साथ ही संवाददाताओं के व्यसनों की भी पूर्ति होती है. पहले डेस मॉईनेस रजिस्टरऔर ट्रिब्यूनइन दो अमेरिकी समाचारपत्रों का उल्लेख किया है. उन्होंने अपनी नीति घोषित करते हुए कहा है कि, कभी कभार खेलों का आयोजन करनेवाली संस्था, समचारपत्रों के संवाददाताओं को अपने खर्च से ले जाती है, उस स्थिति में हमारी कंपनी हमारे संवाददाता के हवाई या अन्य यात्रा-खर्च के हिस्से का चेक उस संस्था को भेज देगी. यह आदर्श नीतिमत्ता. लेकिन किसी ने हमें मुफ्त सवारी दी या नाटक के पास दिये, इस कारण हमारा समाचार या हमारा मूल्यांकन बाधित नहीं होने देंगे, ऐसी नीति कोई तत्त्वाग्रही संवाददाता निश्‍चित कर सकता है. इस स्थिति में संस्था भी उसके समर्थन में खड़ी रहनी चाहिए.
मेरे मित्र खामगाँव के पत्रकार श्री राजेश राजोरे ने  पत्रकारितेतील वास्तव’ (पत्रकारिता में का वास्तव) यह पुस्तक लिखी है. इस क्षेत्र के सारे अनुचित व्यवहारों की जानकारी उसमें मिल सकती है. आज अधिकांश समाचारपत्र पूँजीपतियों के स्वामित्व में है. काला पैसा सफेद करने के लिए समाचारपत्र एक अच्छा माध्यम है. यह एक दृष्टि से ठीक भी है. कम से कम जनता के प्रबोधन के लिए उस पैसे का सदुपयोग हो रहा है. श्री राजोरे के पुस्तक के प्रकरणों के शीर्षक ध्यान देने लायक है. बोगस पत्रकार’, ‘शासकीय दलाल की पत्रकार?’ (शासकीय दलाल या पत्रकार?), ‘पत्रकार परिषद, भेटवस्तू आणि ओल्या पार्ट्या’ (पत्रकार परिषद, भेटवस्तु और शराब की पार्टियाँ), ‘मोठ्या पेपरच्या वार्ताहरांची दुकानदारी’ (बड़े समाचारपत्रों के संवाददाताओं की दुकानदारी), ‘पत्रकारिता सोडून सर्व काही करणारे पत्रकार’ (पत्रकारिता छोडकर सब कुछ करनेवाले पत्रकार), ‘निष्ठा बदलणारे पत्रकार’ (निष्ठा बदलनेवाले पत्रकार), ‘वाचकांना मूर्ख समजणारे पत्रकार’ (वाचकों को मूर्ख समझनेवाले पत्रकार), ‘पत्रकार दिन की दीन पत्रकार’ (पत्रकार दिन या दीन पत्रकार), ‘बुडवे पत्रकार’ (डुबानेवाले पत्रकार), इन शीर्षकों के प्रकरणों में अपप्रवृत्तियों को बलि पडनेवाले पत्रकारों का चरित्रचित्रण है. पत्रकार यह अवश्य पढ़े और स्वयं स्वयं का मूल्यांकन करे.

समाचारपत्रों के मालिकों के लिए
हालही में पेड न्यूजका मामला बहुत चर्चा में है. लेकिन इस मामले से संपादकों का संबंध होने की संभावना नहीं. जो व्यवसाय के लिए इस क्षेत्र में उतरे है, उन मालिकों का इससे अधिक संबंध होता है. समाचारपत्रों के मालिकों के अनुचित व्यवहार की पोल खोलनेवाले कुछ प्रकरण श्री राजोरे के पुस्तक में है. उनके शीर्षक - ‘1 रु.चे किंमतयुद्ध’ (1 रु.का मूल्य युद्ध), ‘न दिसणार्‍या वर्तमानपत्रांचा प्रचंड खप’ (दिखाई नहीं देनेवाले समाचारपत्रों की बिक्रि के बड़े आँकड़े), ‘मालक पत्रकार’ (मालिक पत्रकार), ‘खपासाठी वाट्टेल ते’ (बिक्रि के लिए कुछ भी), ‘ती वर्तमानपत्रें चालतात कशी?’ (वे समाचारपत्र कैसे चलते है?) आदि. विज्ञापन समाचार के रूप में प्रकाशित करना यह एक अपप्रवृत्ति है; और इसमें बड़े बड़े समाचारपत्र भी शामिल है, ऐसा मेरा अनुभव है.
समाचारपत्र को अस्मिता (personality) संपादक से प्राप्त होती है. लेकिन आज ऐसा मुख्य संपादक नियुक्त करने की अनुकूल प्रवृत्ति नहीं. व्यवस्थापक ही संपादक मतलब संपादक के सारे अधिकार अपने हाथों में लेते दिखते है. उसके लिए प्रबंध संपादकयह  प्यारा नाम है. लेकिन वे मुख्यत: प्रबंधक है, संपादक नहीं. इसका अर्थ वार्ता-लेखन, संपादकीय नीति, ये लोग निश्‍चित करते है. इस कारण अनेक समाचारपत्र अपनी पहचान खो बैठे है. उनमें से कुछ तो किसी व्यक्ति या किसी सियासी पार्टी के बुलेटिन लगते है.

चौथे स्तंभ के गौरव के लिए
तात्पर्य यह कि, जनतांत्रिक व्यवस्था के चौथे स्तंभ की प्रतिष्ठा प्राप्त यह क्षेत्र भी भ्रष्टाचार से अछूता नहीं. अभी तक वे भ्रष्टाचार से सने नहीं. इसलिए सुधार की संभावना है. लेकिन सुधार कौन करेगा? सरकार के कानून से वह नहीं होगा. इस व्यवसाय में आए मालिक, मुख्य संपादक, संवाददाता और अन्य लेखकों ने ही संयुक्त रूप से एक होकर इसके लिए राह ढूंढनी चाहिए. अपने पद का अहंकार परे रखकर उन्होंने कुछ मार्गदर्शक तत्त्व निश्‍चित करने चाहिए. समाचारपत्रों ने अपनी नीति और अपने कर्मचारियों के बारे में एक घोषणापत्र तैयार करना चाहिए और वह जनता की जानकारी के लिए सार्वजनिक करना चाहिए. इसमें अनूठा कुछ भी नहीं. शिकागो सन् टाईम्स अँड डेली न्यूजके मालिक ने अपना ऐसा घोषणापत्र प्रकाशित किया है.
"The integrity of the Chicago Sun-Times and the Chicago Daily News rests upon their reputation for fairness and accuracy. That integrity is based on keeping our news columns free of bias or opinion. To be professional is to be accurate and fair........ The following guidelines have been prepared for the guidance of the staff and information of the public as to the policies which underlie our professional standards."
(भावानुवाद - शिकागो सन् टाईम्स और शिकागो डेली न्यूज की तत्त्वनिष्ठा, उनकी न्यायता और अचूकता पर आधारित है. हमारे समाचारपत्रों के स्तंभ, पूर्वाग्रह और मताग्रह से दूर है. व्यवसाय निष्ठा का हमारा अर्थ अचूकता और न्याय्यता है.... हमारे कर्मचारियों के लिए निम्न मार्गदर्शक तत्त्व बनाए गए है, वह जनता की जानकारी के लिए प्रस्तुत है. इससे हमारे व्यावसायिक मानदंड अधोरेखित होगे.)

मा. गो. वैद्य
babujivaidya@gmail.com
नागपुर
,
15-04-2013

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