Thursday 9 May 2013

बहुसंख्य-अल्पसंख्य : रूस का आदर्श



दुनिया में ऐसा एक भी देश नहीं होगा,  जहाँ कोई जनसमूह अल्पसंख्य नहीं होगा. अमेरिका के संयुक्त संस्थान में (यु. एस. ए.) काले वर्ण के लोग अल्पसंख्य है. ज्यू भी अल्पसंख्य है. वहाँ कॅथॉलिकों की संख्या २४ प्रतिशत है. ग्रेट ब्रिटन में भी कॅथॉलिक अल्पसंख्य है, तो आर्यलँड में प्रॉटेस्टंट अल्पसंख्य है. लेकिन किसी भी देश में अल्पसंख्यकों को पुचकारा नहीं जाता. किसी भी देश में अल्पसंख्यकों के लिए अलग कानून नहीं है. यह दुर्भाग्य केवल हमारे भारत के ही हिस्से आया होगा; और इसके लिए केवल अल्पसंख्य समूह ही जिम्मेदार है, ऐसा निश्‍चित रूप में नहीं कहा जा सकता. इस बीमारी में बहुसंख्यकों का भी हिस्सा है. 

थोडा इतिहास
इस दुर्भाग्य का थोडा इतिहास भी है. अंग्रेजों का हमारे देश में राज था, उस समय उन्होंने १८५७ में बहुसंख्य हिंदू और अल्पसंख्य मुसलमानों की एकजूट देखी. दोनों जनसमुदाय, अंग्रेजों का राज हटाने के लिए कंधे से कंधा मिलाकर लड़े थे. इस एकजूट से धूर्त अंग्रेज भयभीत हुए और इससे उन्होंने सीख भी ली. उन्होंने मुसलमानों के मन में अलगाव के बीज बोए और उन बीजों को खाद-पानी देकर अंकुरित किया. काँग्रेस, स्वराज की मांग करती है? - उसके जबाब में उन्होंने मुस्लिम लीग को खड़ा किया. काँग्रेस के नेताओं ने अंग्रेजों की यह चाल नहीं पहचानी. अंग्रेजों ने कहा कि, हिंदू-मुसलमान एक हो, हम यहाँ से चले जाएगे; और काँग्रेस के नेता उस एकता के मृगमरीचिका के पीछे दौड पड़े. हमारी उपासना पद्धति, भाषा भिन्न होते हुए भी, हम एक राष्ट्र है, ऐसा चित्र निर्माण करने के बदले हमने उनकी खुशामद का रास्ता अपनाकर उनकी अलगाव की वृत्ति और अधिक मजबूत की. घूस या खुशामद से सौदा हो सकता है; निष्ठा नहीं निर्माण होती. १९१६ में जनसंख्या की मात्रा में सिटों के बटँवारे का मुद्दा सामने आया. १९२०-२१ में खिलाफत की पुन:स्थापना के लिए काँग्रेस ने आंदोलन किया. ‘खलिफा’का पद, हमने मतलब भारत ने समाप्त नहीं किया था. तुर्कस्थान के बादशाह को खलिफा मतलब दुनिया के सब मुसलमानों का गुरु माना जाता था. पहले महायुद्ध के बाद तुर्कस्थान में केमालपाशा की सत्ता आई और उसने खलिफा का पद समाप्त किया. इन बातों से भारत का कोई संबंध नहीं था. केमालपाशा के निर्णय के कारण मुस्लिम मानस आहत हुआ होगा, तो तुर्कस्थान या अन्य देशों के मुसलमानों ने यह विषय उठाना था. कारण वह उनकी धर्मश्रद्धा का विषय था. राजनीति के लिए, हमने उसे नहीं उठाना चाहिए था. लेकिन गांधीजी ने, ब्रिटिशों के विरुद्ध की लड़ाई में मुसलमानों का साथ हासिल करने के लिए खिलाफत की पुन:स्थापना का आंदोलन किया. इसका परिणाम यह हुआ कि, मुसलमानों के कट्टरवाद को और अधिक बल मिला, वह अधिक प्रखर हुआ और मुसलमान स्वतंत्रता आंदोलन के समीप आने के बदले और दूर हो गए.  उस समय गांधीजी ही काँग्रेस के सर्वेसर्वा नेता थे. हिंदूओं ने उनकी बात मानी. मुसलमानों ने नहीं. वे काँग्रेस के समीप नहीं आए. विपरित, राष्ट्रीय जीवत प्रवाह से और दूर गए. 

जनादेश ठुकराया
लेकिन, हमारा दुर्भाग्य यह कि, गांधीजी ने इससे कोई सबक नहीं लिया. मुसलमानों की खुशामद करने की नीति जारी रही. इतनी कि, उसके लिए उन्होंने देश का विभाजन भी मान्य किया. १९४६ में हुए असेम्बली के चुनाव में, प्राप्त जनादेश का अपमान कर उन्होंने विभाजन को मान्यता दी. इस चुनाव के लिए काँग्रेस की घोषणा अखंड भारत की थी, तो मुस्लिम लीग की घोषणा थी, पाकिस्तान की निर्मिति. जिन प्रदेशों का पाकिस्तान बनना था, वहाँ के मुसलमानों ने, विभाजन की मांग मान्य करने वाले मुस्लिम लीग को जितने मत नहीं दिये, उससे कई अधिक मात्रा में, जो मुसलमान पाकिस्तान में नहीं जाने वाले थे, भारत में रहने वाले थे, उन्होंने विभाजन के पक्ष में मतदान किया. उस समय मुसलमानों के लिए आरक्षित मतदार संघ थे. मतलब मतदाता भी मुसलमान और उम्मीदवार भी मुसलमान ऐसी पद्धति थी. इन मतदार संघों में ८५ प्रतिशत मुसलमानों ने मुस्लिम लीग को मतदान किया. केवल १५ प्रतिशत ने काँग्रेस के मतलब अखंड भारत के पक्ष में मतदान किया. ९५ प्रतिशत मुसलमानों की संख्या के वायव्य सीमावर्ती प्रान्त में, काँग्रेस को बहुमत मिला, लेकिन सर्वत्र भारत में काँग्रेस का पराभव हुआ और आश्‍चर्य यह कि एक वर्ष से भी कम समय में काँग्रेस इस जनादेश को भूल गई; और १९४७ में विभाजन को मान्यता दी. 

मुसलमानों को उनका राज मिला, वह अंग्रेजों की कृपा से. उसके लिए उन्होंने बलिदान देने की जानकारी नहीं. कई लोगों को ऐसा लगता है कि, मुसलमानों की झंझट तो समाप्त हुई. लेकिन वह समाप्त नहीं हुई. कारण वह समाप्त हो, ऐसी हमारी मतलब हमारे सियासी नेताओं की इच्छाही नहीं. वैसा होता, तो सब नीतियाँ उन्हें मुख्य राष्ट्रीय प्रवाह से जोडने की बनाई गई होती. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. विपरित उनकी अलग पहचान बनाए रखने की ही नीति अपनाई गई. जिन १५ प्रतिशत मुसलमानों ने अखंड भारत के पक्ष में मतदान किया, उनकी शक्ति और संख्या बढाने के बदले, विभाजन के लिए अनुकूल मानसिकता के बहुसंख्य मुसलमानों के गठ्ठा मतों के लिए स्वार्थी और संकुचित राजनीति से अलगाव की भावना को संजोना शुरु किया गया. यहाँ तक कि, सबके लिए समान फौजदारी कानून है, फिर भी समान नागरी कानून नहीं है. हमारे संविधान का निर्देशक तत्त्व होने के बावजूद, आज ६५ वर्ष बाद भी, नहीं. यह हमारे संविधान का मार्गदर्शक तत्त्व है. वह संविधान की धारा ४४ में बताया है. वह धारा बताती है. 

"The State shall endeavour to secure for the citizens a uniform civil code, throughout the territory of India."

अर्थ स्पष्ट है कि, भारत के प्रदेश में रहने वाले सब नागरिकों के लिए समान नागरी कानून बनाने के लिए सरकार प्रयत्नशील रहे.  यह सच है कि, इस धारा को अमल में लाने के लिए नागरिक न्यायालय में नहीं जा सकते. लेकिन इसका अर्थ उसकी उपेक्षा करे ऐसा नहीं होता. संविधान में का शब्द 'Shall' है. उसमें निश्‍चितता अभिप्रेत है. संविधान की धारा ३७ भी यही बताती है. वह इस प्रकार है. 

"The provisions contained in this Part shall not be enforceable by any court, but the principles therein laid down are nevertheless fundamental in the governance of the country and it shall be the duty of the State to apply these principles in making laws."

अर्थ : इनमें के तत्त्व न्यायालय द्वारा अमल में लाने के नहीं, फिर भी वे हमारे प्रशासन के लिए मूलभूत है; और कानून बनाते समय उन तत्त्वों का विनियोग किया ही जाना चाहिए. 

धारा ४४ में राज्य ने समान नागरी कानून बनाने की दृष्टि से प्रयत्न करना चाहिए ऐसा बताया गया है. लेकिन इस दिशा में एक कदम भी आगे नहीं बढाया गया. संपूर्ण नागरी कानून की बात छोड दे, विवाह और तलाक के लिए समान कानून हो, ऐसा भी किसी को मतलब राज्य करने वालों में से किसी को भी नहीं लगता. बहुपत्नीकत्व अच्छी बात होगी, तो वह सब के लिए होनी चाहिए. कुछ के लिए अच्छी, तो अन्य के लिए अपराध, यह कैसा न्याय है? 

धारा ३०
इस खुशामद की नीति का और एक नमुना देखने लायक है. यह धारा ३० हमारे नागरिकों को एक स्तर पर लाने में बाधक है. धारा २९ भी इसी प्रकार की है. संविधान की धारा १४, १५ और १६ ने सब नागरिकों को समान अधिकार की गारंटी दी है. संविधान ने अल्पसंख्यकत्व निश्‍चित करने के लिए दो मानक तय किये है. १) भाषा और २) धर्म या उपासना पंथ. भाषिक अल्पसंख्यकों द्वारा कोई देशव्यापी समस्या निर्माण नहीं हुई है. कहीं होगी भी तो स्थानिक स्तर पर होगी. लेकिन धार्मिक या पंथीय आधार पर अल्पसंख्यकों ने समस्या निर्माण की है. धारा 30 ने उन्हें अपनी शिक्षा संस्था स्थापन करने का विशेष अधिकार दिया है. यह धारा नही होती, तो धार्मिक अल्पसंख्य समुदाय अपनी शिक्षा संस्था स्थापन नहीं कर पाते? निश्‍चित ही कर पाते. लेकिन इस विशेष धारा से उन्हें विशेष अधिकार मिलने के कारण, सर्वसामान्य शिक्षा संस्थाओं को लागू होने वाले नियम और निर्बंध इन संस्थाओं को लागू नहीं होते. ये संस्थाएँ अपने पंथ या धर्म की रक्षा या प्रचार के लिए स्थापन हुई है ऐसा कहे, तो उनमें के अधिकांश विद्यार्थी अन्य पंथ-संप्रदाय के होते है. नागपुर के हिस्लॉप कॉलेज या सेंट फ्रान्सिस डिसेल्स कॉलेज के उदाहरण ध्यान देने योग्य है. हिस्लॉप कॉलेज प्रॉटेस्टंट पंथीय ‘चर्च ऑफ स्कॉटलँड’ने स्थापन किया है. इसमें के ९० प्रतिशत विद्यार्थी ईसाई नहीं है. ‘सेंट फ्रान्सिस’ कॉलेज रोमन कॉथॉलिकों ने स्थापन किया है. लेकिन वहाँ भी अधिकांश विद्यार्थी कॉथॉलिक नहीं है. फिर इन संस्थाओं को किस मानक पर अल्पसंख्यकों की संस्थाएँ कहे? फिर उन्हें अन्य शिक्षा संथाओं को लागू होने वाले नियम, उदाहरण सेवाज्येष्ठता का आदर, प्रवेश या नौकरी में आरक्षण के नियम क्यों लागू नहीं? इन दोनों शिक्षा संस्थाओं में कभी भी ईसाई के सिवा अन्य कोई आज तक प्राचार्य के पद पर नहीं बैठ सका है. 

हम सब ‘एक जन’
मुसलमानों की वोट बँक बडी होने के कारण, उनकी विशेष खुशामद की जाती है. सच्चर समिति की रिपोर्ट उसका एक उदाहरण है. अब मुसलमान अपराधियों के लिये अलग न्यायालय का प्रस्ताव सामने आया है. सही मायने में हमारे देश में पारसी यह सबसे छोटा अल्पसंख्य समूह है. उन्हें, अपने अस्तित्व, भविष्य और उनके विशेष धर्म के अनुसार आचरण के संदर्भ में, बहुसंख्यकों की ओर से खतरा अनुभव होना चाहिए. लेकिन उनकी कोई मांग नहीं होती. वे तो विदेश से आये है. मुसलमान और ईसाई तो मूल यही के है. आवश्यकता इस बात की है कि, राज्यकर्ता और सब सियासी पार्टियों को, देश एकात्म, एकरस और एकसंध रहे ऐसा मन से लगता होगा तो, उन्होंने बहुसंख्य-अल्पसंख्य यह भेदभाव की भावना अपने विचार और मानसिकता से निकाल देनी चाहिए. स्वयं को सांस्कृतिक राष्ट्रवादी कहने वाली पार्टियाँ भी अल्पसंख्य मोर्चा, दलित मोर्चा जैसे अलग अलग मोर्चे बनाकर, जनता की एकात्मता के मार्ग में अडंगे निर्माण करती है. हमारे संविधान में सही स्थानों पर संशोधन कर हमें यह घोषित करते आना चाहिए कि ‘‘यह भारत देश एक है. यहाँ रहने वाले सब एक जन है, यहाँ एक संस्कृति मतलब एक मूल्यव्यवस्था है और इस कारण यह एक राष्ट्र है.’’ हमारा संविधान मूल अंग्रेजी में लिखा है. इसलिए यही विचार मैं अंग्रेजी में प्रस्तुत करता हूँ.  "India that is Bharat is one country, with one people, one culture i.e. one value-system and therefore one Nation."

रूस का आदर्श
यह करना कठिन नहीं है. रूस के चेचन्या प्रान्त के मुसलमानों की कुछ अलगाववादी मांगे है. हालही में अमेरिका के बोस्टन नगर में जो बम विस्फोट हुए, वह कराने वाले चेचन्या के ही मुसलमान थे. रूस के मुस्लिमों और उस माध्यम से सभी अल्पसंख्यकों को रूस के राष्ट्रपति श्री पुटीन ने जो इशारा दिया है, वैसी दृढ भूमिका हमें भी अपनाते आनी चाहिए. श्री पुटीन ने ४ फरवरी २०१३ को रूस के पार्लमेंट में, मतलब ड्यूमा में दिए भाषण में कहा कि, 

"In Russia live Russians. Any minority, from anywhere, if it wants to live in Russia, to work and eat in Russia, should speak Russian, and should respect the Russian laws. If they prefer Sharia Law, then we advise them to go to those places where that's the state law. Russia does not need minorities. Minorities need Russia, and we will not grant them special privileges, or try to change our laws to fit their desires, no matter how loud they yell 'discrimination". The politicians in the Duma gave Putin a standing ovation for five minutes!

भावानुवाद :  ‘‘रूस में रूसी रहते है. कोई भी अल्पसंख्य समुदाय, यदि रूस में रहना चाहता होगा, रूस में काम करने की उसकी इच्छा होगी और रूस का अन्न भक्षण करता होगा, तो उसे रूसियों के समान ही बोलना होगा; और रूस के कानून का आदर करना होगा. उन्हें शरीयत का कानून पसंद होगा, तो हमारी उनसे बिनति है कि, वे जहाँ वह कानून लागू है उस स्थान पर जाए. रूस को अल्पसंख्यकों की आवश्यकता नहीं. अल्पसंख्यकों को रूस की आवश्यकता है. हम उन्हें कोई विषेशाधिकार नहीं देंगे, या उनकी इच्छा के अनुरूप कानून नहीं बनाऐंगे. फिर वे ‘भेदभाव’के नाम से कितना ही शोर क्यों न मचाए.’’ पुटीन का भाषण समाप्त होने के बाद ड्यूमा में उपस्थित सब सियासी पार्टियों के नेताओं ने खडे होकर करीब पाँच मिनट तक तालियाँ बजाई. 

भाषा, पंथ, संप्रदाय ऐसे अनेक भेद होते हुए भी हम सब भारतीयों को एकात्म, एकरस और एकसंध राष्ट्रजीवन जीते आना चाहिए. यहाँ हिंदू बहुसंख्य है और उन्हें अनेकता में एकत्व देखने की बहुत पुरानी आदत है. अर्थात् इस कार्य के लिए भी उनकी ही पहल होनी चाहिए.


- मा. गो. वैद्य
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी) 

babujivaidya@gmail.com

2 comments:

  1. Australian Prime Minister does it again!!
    This woman should be appointed Queen of the World.. Truer words have never been spoken.

    It took a lot of courage for this woman to speak what she had to say for the world to hear. The retribution could be phenomenal, but at least she was willing to take a stand on her and Australia 's beliefs.
    The whole world needs a leader like this!
    Prime Minister Julia Gillard- Australia

    Muslims who want to live under Islamic Sharia law were told on Wednesday to get out of Australia , as the government targeted radicals in a bid to head off potential terror attacks..

    Separately, Gillard angered some Australian Muslims on Wednesday by saying she supported spy agencies monitoring the nation's mosques. Quote:

    'IMMIGRANTS, NOT AUSTRALIANS, MUST ADAPT.. Take It Or Leave It.
    I am tired of this nation worrying about whether we are offending some individual or their culture. Since the terrorist attacks on Bali , we have experienced a surge in patriotism by the majority of Australians. '

    'This culture has been developed over two centuries of struggles, trials and victories by millions of men and women who have sought freedom'

    'We speak mainly ENGLISH, not Spanish, Lebanese, Arabic, Chinese, Japanese, Russian, or any other language. Therefore, if you wish to become part of our society, learn the language!'

    'Most Australians believe in God. This is not some Christian, right wing, political push, but a fact, because Christian men and women, on Christian principles, founded this nation, and this is clearly documented. It is certainly appropriate to display it on the walls of our schools. If God offends you, then I suggest you consider another part of the world as your new home, because God is part of our culture.'

    'We will accept your beliefs, and will not question why. All we ask is that you accept ours, and live in harmony and peaceful enjoyment with us.'

    'This is OUR COUNTRY, OUR LAND, and OUR LIFESTYLE, and we will allow you every opportunity to enjoy all this. But once you are done complaining, whining, and griping about Our Flag, Our Pledge, Our Christian beliefs, or Our Way of Life, I highly encourage you take advantage of one other great Australian freedom, 'THE RIGHT TO LEAVE'.'
    'If you aren't happy here then LEAVE. We didn't force you to come here. You asked to be here. So accept the country YOU accepted.'

    Maybe if we circulate this amongst ourselves in India , and who knows, the rest of world... WE will find the courage to start speaking and voicing the same truths.

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  2. The concept of minority and majority is the product of selfish and myopic thought process of some dirty and weak politicians.We must watch countries like Russia and Australia.Following them may be difficult for us because of absence of backbone, a phenomenon noticed daily.

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