Monday 30 July 2012

राष्ट्रवादी कॉंग्रेस का हास्यास्पद नाटक



राष्ट्रवादी कॉंग्रेस (राकॉं) के क्रोध का या नाराजी का नाटक समाप्त हुआ, यह अच्छा हुआ. हम कहॉं खड़े है और हमारा प्रभाव कितना है, यह राकॉं के सर्वोसर्वा श्री शरद पवार के निश्‍चित ही ध्यान में आ चुका होगा. श्री पवार अत्यंत धूर्त एवं मंजे हुए राजनेता है. वे अविचार में, अपनी और अपनी पार्टी की विद्यमान प्रतिष्ठा को धक्का लगेगा, ऐसा कुछ नहीं करेंगे. कॉंग्रेस ने भी उन्हें दिखा दिया है कि, वह उनसे नहीं डरती.

क्रोध स्वाभाविक
इस नाराजी नाट्य का आरंभ हुआ, केंद्रीय मंत्रिमंडल में के स्थान से. अब तक, मतलब राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी का पर्चा भरने तक, श्री प्रणव मुखर्जी मंत्रिमंडल में द्वितीय स्थान पर थे. पहला स्थान प्रधानमंत्री का यह तो स्पष्ट ही है. उनकी बगल में, दूसरे क्रमांक के स्थान पर प्रणव मुखर्जी विराजमान रहते थे. उन्होंने त्यागपत्र देने के बाद वह स्थान रिक्त हुआ. स्वाभाविक रूप से वह स्थान श्री शरद पवार को मिलना चाहिए था. कारण, मंत्रिमंडल में उनका स्थान तीसरे क्रमांक पर था. श्री पवार ने वैसी अपेक्षा की होगी, तो उसमें अनुचित कुछ भी नहीं. लेकिन कॉंग्रेस ने तय किया कि, श्री पवार की तरक्की नहीं करना. इसलिए कॉंग्रेस ने श्री पवार के बदले उनसे नीचे के क्रमांक पर के श्री ऍण्टोनी को दूसरे क्रमांक पर लाया. श्री पवार का इससे क्रोधित होना स्वाभाविक मानना चाहिए.    

बात मन की और ओठों पर की
मन में का यह क्रोध ओठों पर लाना संभव नहीं था. वह कूटनीति के अनुरूप नहीं होता. इसलिए, सत्तारूढ संयुक्त प्रगतिशील मोर्चे की घटक पार्टी होते हुए भी, हमारा मत विचार में नहीं लिया जाता, कॉंग्रेस घटक पार्टियों का ध्यान नहीं रखती, गठबंधन की सरकार होते हुए भी, मुख्य कॉंग्रेस पार्टी और गठबंधन की अन्य घटक पार्टियों के बीच समन्वय नहीं है, ऐसे कारण बताए गए. यह कारण झूठ नहीं हैं. लेकिन इसका खयाल अब तीन-साडेतीन वर्ष बाद क्यों आया? श्री प्रणव मुखर्जी द्वितीय स्थान पर और श्री शरद पवार तृतीय स्थान पर थे, क्या तब गठबंधन की मुख्य कॉंग्रेस पार्टी और अन्य घटक पार्टियों के बीच समन्वय था? राज्यपालों की नियुक्ति हो या राज्य सभा में नामनियुक्त करने की बात हो, कॉंग्रेस ने कब गठबंधन की पार्टियों का मत विचार में लिया था? संप्रमो में की कॉंग्रेस के लोकसभा में २०८ सांसद हैं. राकॉं के केवल ९. राकॉं की तुलना में तृणमूल कॉंग्रेस, और द्रमुक के सांसदों की संख्या अधिक है. तृणमूल के १९ हैं, तो द्रमुक के १८. इसके अलावा, बाहर से समर्थन देने वाले समाजवादी पार्टी और बसपा के सांसदों की संख्या भी क्रमश: २२ और २१ है. कॉंग्रेस, ९ सांसदों वाली राकॉं की चिंता क्यों करें?

महाराष्ट्र : राकॉं की दुखती रग
केंन्द्र में राकॉं के बिना भी संप्रमो सत्ता में बना रह सकता है लेकिन, महाराष्ट्र में वैसी स्थिति नहीं. २८८ सदस्यों की विधानसभा में कॉंग्रेस के केवल ८२ विधायक है; तो राकॉं के ६२ (इस संख्या में कुछ अंतर हो सकता है) अर्थ स्पष्ट है कि, राकॉं के समर्थन के बिना कॉंग्रेस महाराष्ट्र में सत्ता में रह ही नहीं सकती. और यह कॉंग्रेस को भी मान्य है. इसलिए ही मुख्यमंत्री कॉंग्रेस का तो उपमुख्यमंत्री राकॉं का होता है. सन् १९९९ से यह चल रहा है. लेकिन महाराष्ट्र में की राकॉं हाल ही में एक नई बीमारी से त्रस्त है. वह केवल शरद पवार की नाराजी की तरह औपचारिक मानापमान की नहीं. वह अधिक गंभीर है और उसके परिणाम गंभीर भी हो सकते है. वह बीमारी यह है कि, राकॉं के जो मंत्री मंत्रिमंडल में है, उनमें से दो बड़े मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप है. उनमें से एक है छगन भुजबळ, तो दूसरे है सुनील तटकरे. भुजबळ सार्वजनिक निर्माण विभाग के मंत्री है, तो तटकरे के पास जलसंपदा विभाग है. यह दोनों विभाग भ्रष्टाचार के लिए अत्यंत उपयुक्त है, यह सर्वज्ञात है.

कॉंग्रेसकृत उपेक्षा
भाजपा के क्रियावान् कार्यकर्ता किरीट सोमय्या ने इन दो मंत्रियों ने, चतुराई से किया भ्रष्टाचार, पत्रपरिषद लेकर सार्वजनिक किया है. सोमय्या केवल आरोप करके ही नहीं रूके. उन्होंने सीधे इस भ्रष्टाचार के सबूत ही पत्रपरिषद में प्रस्तुत किए. भुजबळ ने दिल्ली के महाराष्ट्र सदन इस सरकारी इमारत के निर्माणकार्य में एक घोटाला किया. (यह एकमात्र घोटाला नहीं है.) इस निर्माण कार्य का अनुमानित खर्च ५२ करोड़ रुपये था. वह १५२ करोड़ तक बढ़ाया गया. यह बढ़े हुए सौ करोड़ भुजबळ के पास गए, ऐसा सोमय्या का आरोप है. कारण इस काम का ठेका जिस कंपनी को दिया गया, वह एक बेनामी कंपनी है; और उस बेनामी कंपनी ने जिन छोटी कंपनीयों से यह काम करा लिया, उन कंपनीयों के मालिक भुजबळ के परिवारजन है. भुजबळ पर का आरोपित भ्रष्टाचार सौ करोड़ का है, तो तटकरे का आरोपित घोटाला हजार करोड़ के पार जाएगा. तटकरे भी चतुराई में कम नहीं. उन्होंने दर्जनभर बोगस कंपनियॉं बनाई और बांधों में पानी रोकने की ओर ध्यान देने के बदले इन कंपनियों के माध्यम से वह पैसा अपने पास खींचा, ऐसा आरोप है. यह आरोप विधानसभा में भी लगाया गया है. आखिर सरकार को बताना पड़ा कि, इन आरोपों की जॉंच आर्थिक अपराध अन्वेषण विभाग द्वारा कराई जाएगी. किरीट सोमय्या ने और भी कमाल की. केंद्रीय कंपनी व्यवहार मंत्री वीरप्पा मोईली, और उस विभाग के सनदी अधिकारियों से भेट कर, उन्हें सब सबूत दिए. बताया जाता है कि, इन अधिकारियों ने जॉंच के आदेश भी दिए हैं. भुजबळ और तटकरे दोनों मंत्री राकॉं के है. राकॉं का आरोप है कि, यह सब मामले उपस्थित किए जा रहे थे उस समय, मुख्यमंत्री या कॉंग्रेस इन मंत्रियों के समर्थन में खड़ी नहीं हुई. अब तो मुख्यमंत्री ने साफ यह दिया है कि, कानून अपना काम करेगा.

खोखले समाधान की आड में ...
कॉंग्रेस पर दबाव लाने के लिए श्री पवार त्यागपत्र देंगे, ऐसी बात चलाई गई. दूसरी बात - पृथ्वीराज चव्हाण को मुख्यमंत्री पद से हटाया जाएगा. क्योंकि वे अकार्यक्षम है. उनकी ही पार्टी के विधायकों ने चव्हाण पर आरोप लगाए हैं, ऐसा भी समाचार प्रकाशित हुआ था. लेकिन यह सब झूठ था, यह अब स्पष्ट हुआ है. तथापि, पवार का एक मुद्दा कॉंग्रेस ने मान्य किया; और समन्वय समिति स्थापन करने की घोषणा भी की. मुख्यमंत्री ने तो शीघ्र ही समन्वय समिति की बैठक आयोजित की जाएगी, ऐसा आश्‍वासन भी दिया. पवार को भी कुछ तसल्ली देने के लिए, प्रणव मुखर्जी के त्यागपत्र के कारण, जो मंत्रि-समूह (ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स - जीओएम) प्रभारहीन हो गए थे, उनका बँटवारा किया गया और पवार को दो मंत्रि-समूहों का अध्यक्ष पद सौपा गया. श्री मुखर्जी के पास करीब ग्यारह मंत्रि-समूहों का प्रभार था. उसमें से छह ऍण्टोनी, तीन चिदम्बरम्, तो केवल दो विभागों का प्रभार शरद पवार को दिया गया. वह विभाग है (१) कोयले की खदानों के कारण पर्यावरण को निर्माण हुआ संकट और (२) अकाल निवारण के उपायों की व्यवस्था. इस बँटवारे से और मुख्यमंत्री की घोषणा से राकॉं का समाधान हुआ ऐसा दिखता है. कहॉं त्यागपत्र देने और संप्रमो से बाहर निकलने की गंभीर धमकी और कहॉं ये समाधान का खोखला बहाना! 

अधिष्ठान समाप्त
इस निमित्त, मेरे मन में प्रश्‍न निर्माण हुआ कि, राकॉं का भवितव्य क्या होगा? राकॉं का प्रारंभ तो बड़े धडाके से हुआ था. उस समय ऐसा लगा कि मानो उसने संपूर्ण भारतवर्ष अपने विचारों की परिधि में लिया है. कॉंग्रेस से बाहर निकलने के लिए उन्होंने आगे किया मुद्दा सही में गंभीर था. महत्त्व का था. संपूर्ण देश के राजनीतिक जीवन पर परिणाम करने की संभाव्यता का था. वह, सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा था. भारत की नागरिकता भी विलंब से स्वीकारने वाली व्यक्ति के हाथों में राष्ट्र का भवितव्य सौपना, खतरा है, यह भूमिका सही में महत्त्व की थी; और वही राकॉं ने अपनी आधारभूत भमिका निश्‍चित की थी. लेकिन कुछ ही समय में राकॉं यह भूमिका भूल गई. इस सैद्धांतिक भूमिका की अपेक्षा सत्ता का पद उसे महत्त्व का लगा और सोनिया गांधी जो कॉंग्रेस की अध्यक्ष ही नहीं सर्वाधिक बलिष्ठ नेता है, उनके ही साथ श्री पवार ने हाथ मिलाया. राकॉं के अलग रहने का अधिष्ठान ही समाप्त हुआ.

राकॉं का भवितव्य
पार्टी को वैचारिक या सैद्धांतिक अधिष्ठान नहीं रहा, तो भी पार्टियॉं चल सकती है, यह हम देख रहे हैं. लेकिन ऐसी पार्टियॉं व्यक्तिकेंद्रित होती हैं और उनका प्रभाव भी भौगोलिक दृष्टि से मर्यादित हो जाता है. मुलायम सिंह की पार्टी का नाम समाजवादी पार्टी है. लेकिन उस पार्टी का समाजवाद के सिद्धांतों से कोई लेना-देना नहीं. वह व्यक्तिकेंद्रि, परिवार-केंद्रि पार्टी बन गई है. उत्तर प्रदेश को ही अपना कार्यक्षेत्र निश्‍चित कर और यादव-मुस्लिम आधार मानकर वे आज वहॉं राज कर रहे है. मायावती की बसपा या लालू प्रसाद के राष्ट्रीय जनता दल का भी यही हाल है. जयललिता का उदाहरण ले या करुणानिधि का, तामिलनाडु ही उनका क्षेत्र है और बिजू जनता दल का ओडिशा. तेलगू देशम् ने तो अपने नाम से ही अपनी भौगोलिक मर्यादा अधोरेखित की है. शरद पवार की राष्ट्रवादीकॉंग्रेस भी स्वयं को महाराष्ट्रवादीकहे और उसे ही अपना कार्यक्षेत्र निश्‍चित करे. वैसे भी व्यवहारत: वह एक प्रादेशिक पार्टी ही बन चुकी है.
मुलायम सिंह या मायावती, पटनाईक या जयललिता या करुणानिधि ने कभी भी प्रधानमंत्री बनने की महत्त्वाकांक्षा मन में नहीं रखी. शरद पवार के मन में वह है. कम से कम थी यह तो वे भी मान्य करेंगे. आज उनकी क्या मन:स्थिति है, यह उनके अलावा अन्य कौन बता सकेगा? अत: राकॉं को अपना अस्तित्व बनाए रखना होगा, तो वह सीधे प्रादेशिक पार्टी की भूमिका स्वीकारे. उसे सैद्धांतिक अधिष्ठान पहले भी नहीं था, अब भी नहीं है और आगे भी रहने की संभावना नहीं. लेकिन एक आधार है. वह है मराठा समाज का. लेकिन इस समाज की शक्ति महाराष्ट्र तक ही मर्यादित है. यह सही है कि केवल मराठा समाज के भरोसे राज्य में सत्ता हासिल करना संभव नहीं. और मराठा समाज की शक्ति में कॉंग्रेस का भी हिस्सा है. इसिलिए श्री पवार ने रिपब्लिकन पार्टी मतलब बौद्ध समाज के साथ नजदिकियॉं बढ़ाई थी. लेकिन वह समूह भी अब उनसे दूर हो गया है. स्वाभाविक ही उन्हें अन्य समाज-समूह ढूंढने होंगे. सौभाग्य से महाराष्ट्र में, उत्तर प्रदेश या बिहार की तरह, जातियों के अलग-अलग सियासी समूह नहीं बने हैं. पश्‍चिम महाराष्ट्र में क्या स्थिति है, यह नहीं बताया जा सकता. लेकिन विदर्भ में तो जातियों के दबाव समूह नहीं है. सब पार्टियों में सब जातियों के नेता हैं. स्वाभाविक ही व्यक्तिकेंद्रित रहने वाली राकॉं का भवितव्य क्या होगा? श्री शरद पवार के बाद कौन? मुलायम सिंह और लालू प्रसाद ने इसका उत्तर खोज निकाला है. मुलायम सिंह के बाद उनके पुत्र अखिलेश मुख्यमंत्री बने है. लालू प्रसाद के बाद उनकी पत्नी राबडी देवी मुख्यमंत्री बनी थी. महाराष्ट्र में शिवसेना ने भी उसी प्रकार यह प्रश्‍न हल किया है. पंजाब में भी मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री, पिता और पुत्र की जोडी है. राकॉं का क्या? श्री शरद पवार के बाद कौन? सुप्रिया सुळे या अजित पवार या आर. आर. पाटील? श्री पवार को यह प्रश्‍न हल करना होंगा, और उसके उत्तर पर ही राकॉं का भवितव्य निर्भर होंगा.

- मा. गो. वैद्य
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)
babujivaidya@gmail.com
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Tuesday 24 July 2012

भारत, पाकिस्तान और क्रिकेट



भारत के क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (भाक्रिबो) ने, पाकिस्तान क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (पाक्रिबो) को सूचित किया है कि, भारत की क्रिकेट टीम पाकिस्तानी टीम के साथ क्रिकेट खेलने के लिए तैयार है और उसके अनुसार भाक्रिबो ने पाक्रिबो को निमंत्रण भी दिया है. हमारा मत है कि भाक्रिबो की यह कृति, देशभक्ति का विचार क्षणभर परे छोड़ दे तो भी, निर्लज्जता की द्योतक है. गत पॉंच वर्ष भारत और पाकिस्तान के टीम के बीच क्रिकेट खेलना बंद था. भारत का क्या बिगड़ा? ऑस्ट्रेलिया, श्रीलंका, दक्षिण आफ्रिका, इंग्लैंड आदि देशों की टीम के साथ भारत ने क्रिकेट खेला ही! फिर, पाकिस्तान के साथ क्रिकेट नहीं खेले तो क्या बिगड़ता है? क्रिकेट का क्या नुकसान है?

मुख्य प्रश्‍न
पहला प्रश्‍न यह है कि, गत पॉंच वर्ष इन दो देशों के बीच क्रिकेट क्यों नहीं खेला गया? क्या कारण था? निश्‍चित ही कारण था और वह एक महागंभीर कारण था. वह था, पाकिस्तानी आतंकवादीयों ने मुंबई पर हमले कर अनेक निरपराध लोगों की जान ली थी. इन हिंसक हमलावरों को पाकिस्तान सरकार का केवल समर्थन ही नहीं था, तो उस हमले की संपूर्ण रणनीति में पाकिस्तान की सेना का सहभाग था. उन हमलावरों में से जिंदा पकड़ा गया आरोपी अजमल कसाब ने तो यह सब बताया ही है. लेकिन हाल ही में पकड़ा गया झैयबुद्दीन अंसारी उर्फ अबू जुन्दाल ने भी ऐसी ही कबुली दी है. उसने अपने कबुलनामें में बताया है कि, लष्कर-ए-तय्यबा के अगुआ इस हमले की पीछे थे. उन्हें पाकिस्तान की सेना का मागदर्शन मिल रहा था. लष्कर-ए-तय्यबा का एक सदस्य डेविड कोलमन हेडली ने भी इसे पुष्टी दी है. कोई कहेगा कि इसमें पाकिस्तान सरकार का क्या दोष है? फिर मुंबई हमले के पीछे का सूत्रधार हफीज सईद अभी तक आजाद क्यों है? पाकिस्तान सरकार उस क्रूरकर्मा को निर्दोष मानती है. भारत ने उसके विरुद्ध अनेक ठोस सबूत देने के बाद भी पाकिस्तान की वृत्ति में कोई अतंर नहीं आया है. २६ नवंबर के मुंबई हमले की जॉंच अभी भी चल ही रही है. इस कारण प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ी सुनील गावस्कर ने जो कहा है, वह बिल्कुल सही है. उन्होंने कहा है, ‘‘मैं मुंबई का निवासी होने के कारण, मुझे लगता है कि, मुंबई पर के हमले की जॉंच के संदर्भ में दूसरी ओर से सहयोग नहीं मिल रहा है, इस स्थिति में इस आयोजन की क्या आवश्यकता आ पड़ी है?’’ गावस्कर का प्रश्‍न समयोजित है.

संपूर्ण देश पर का हमला
और कुछ होशियार प्रश्‍न करेंगे कि, पाकिस्तान और भारत के संबंध सामान्य और मित्रतापूर्ण हो, ऐसा आपको नहीं लगता? मेरा उन्हे प्रतिप्रश्‍न है कि, इन दो देशों में के संबंध सामान्य बनाने की जिम्मेदारी क्रिकेट कंट्रोल बार्ड पर कब से आई है? संबंध सामान्य कैसे करना है, यह दोनों देशों की सरकारें देखेंगी. क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने उसमें दखल देने का क्या कारण है? गावस्कर ने मुंबई निवासी होने के नाते यह प्रश्‍न पूँछा है. कारण हमला मुंबई पर हुआ था और भाक्रिबो का मुख्यालय मुंबई में ही है. उसी मुख्यालय ने फिर क्रिकेट मॅच खेलना शुरु करने का उपद्व्याप किया है, तथापि आतंकवादीयों का यह हमला केवल मुंबई के ऊपर नही; वह संपूर्ण देश पर हुआ हमला है. वह मुंबई के बदले दिल्ली या श्रीनगर पर हुआ होता, तो भी संपूर्ण देश पर हुआ हमला ही माना जाता.

मुख्य विषय
क्रिकेट का विषय छोड़ दे, तो भी भारत-पाक संबंधों का विषय छूट नहीं जाता; छूटना भी नहीं चाहिए. यह संबंध अच्छे नहीं है. वह अच्छे हो ऐसा पाकिस्तान को उसके जन्म के बाद से कभी भी नहीं लगा. वह कुछ सामान्य हुए ऐसा ऊपरी तैर पर दिखता हो, तो उसका कारण यह नहीं की पाकिस्तान का हृदय परिवर्तन हुआ है. यह तो अमेरिका के दबाव में, पाकिस्तान का दिखावा है. एक समय ऐसा भी था कि, भारत को नीचा दिखाने की नीति अँग्लो-अमेरिकनों ने अपनाई थी; और इसके लिए वे माध्यम के रूप में पाकिस्तान का उपयोग कर रहे थे. उनके इस समर्थन के भरोसे ही पाकिस्तान की सरकारें बार-बार भारत विरोधी कारवाईयॉं करने की हिंमत करती थी. हमने एक मूलभूत बात पक्की समझ लेनी चाहिए कि, पाकिस्तान का जन्म ही भारत-द्वेष, सही में, हिंदू-द्वेष, से हुआ है. भारत में की सरकारें स्वयं को कितनी ही सेक्युलरमाने, पाकिस्तान उन्हें हिंदु की सरकार मानती है. उनकी इस जन्म-दोषविकृति में से पाकिस्तान की सरकार और पाकिस्तानी सेना अभी बाहर नहीं निकली है.

थोड़ा इतिहास
थोड़ा इतिहास देखें. बहुत पुराना नहीं. बिल्कुल अभी-अभी का. ६०-६५ वर्ष पूर्व का. जम्मू-कश्मीर के महाराज ने, अपनी रियासत, भारत या पाकिस्तान में से कहीं भी विलीन न कर उसे स्वतंत्र रखना तय किया था. भारत पर राज करने वाली अंग्रेज सरकार ने, भारत को स्वतंत्रता का दान करते समय, जिस प्रकार मुस्लिमबहुल और हिंदूबहुल इस प्रकार दो राज्यों की योजना बनाई, उसी प्रकार दोनों देशों में जो रियासतें थी और जिन्होंने अंग्रेज सरकार का सार्वभौमत्व मान्य कर, उनकी मांडलिकता स्वीकार कर, अंतर्गत कारोबार में स्वायत्तता प्राप्त की थी, उन रियासतों को, पाकिस्तान या भारत में विलीन होने के विकल्प के साथ ही स्वतंत्र रहने का भी विकल्प दिया था. इस तिसरे विकल्प का लाभ लेकर कश्मीर के नरेश ने स्वतंत्र रहने का निर्णय लिया और अपनी स्वतंत्रता को भारत और पाकिस्तान इन देशों की सरकारें मान्यता दें, इस आशय का प्रस्ताव दोनों देशों को भेजा. भारत ने इस प्रस्ताव का कोई उत्तर नहीं दिया. लेकिन पाकिस्तान के गव्हर्नर जनरल बॅरिस्टर जिना ने तुरंत पत्र भेजकर जम्मू-कश्मीर राज्य के स्वतंत्र अस्तित्व को मान्यता दी; और उस पर विश्‍वास रखकर, मुसलमान शासकों के गत एक हजार वर्षों के वर्तन की अनदेखी कर, कश्मीर के महाराजा ग़ाफिल रहे और पाकिस्तान ने टोलीवालों की आड में इस राज्य पर आक्रमण किया. उसे अँग्लो-अमेरिकियों की छुपी मान्यता थी. आखिर कश्मीर के महाराजा ने अपनी रियासत भारत में विलीन की. उसके बाद भारतीय सेना वहॉं गयी और उसने पाकी आक्रमकों को खदेड दिया. सेना संपूर्ण कश्मीर ही मुक्त करती लेकिन राज्यकर्ताओं को दुर्बुद्धि सूझी और उन्होंने बीच में ही सेना की विजय-यात्रा रोक दी तथा अकारण, मामला राष्ट्रसंघ में ले गए. वह वहॉं ६५ वर्षों से पड़ा है. कश्मीर का, न्याय्य प्रक्रिया से भारत में विलीन हुआ एक तिहाई हिस्सा, अभी भी पाकिस्तान के ही कब्जे में है.

पाकिस्तान के आक्रमण
लेकिन क्या पाकिस्तान चुपचाप रहा? १९६२ में चीन से भारत पूर्णत: पराभूत होने के बाद, भारत एक दुर्बल देश है, ऐसा मानकर, पाकिस्तान ने भारत पर पुन: आक्रमण करने का दु:साहस किया. बात १९६५ की है. पाकिस्तान के फौजी तानाशाह अयूब खान ने तो श्रीनगर की मस्जिद में नमाज पढ़ने की घोषणा भी कर दी थी. लेकिन भारत की सेना ने पाकिस्तान के सब मनसूबें धूल में मिटा दिए. फिर छह वर्ष बाद वैसा ही प्रसंग आया. वैसे यह युद्ध पूर्व पाकिस्तान मतलब आज के बांगला देश की जनता के विरुद्ध था. दोनों ही मुस्लिमबहुल प्रदेश. पश्‍चिम पाकिस्तान भी मुस्लिमबहुल और पूर्व पाकिस्तान भी मुस्लिमबहुल. फिर भी, पूर्व पाकिस्तान के नेता, इस्लामाबाद में आकर राज न करें इसलिए, वहॉं के नेताओं को पाकिस्तान सरकार ने जेल में ठूँसकर, वैश्‍विक मुस्लिम चरित्र के अनुसार फौजी शासन के ताकत का प्रयोग और जनता पर अत्याचार कर विद्रोह को कुचलने का पूरा प्रयास किया. इस कठिन समय में, भारत हिंमत के साथ बंगलाभाषीय मुसलमानों के समर्थन में खड़ा हुआ. भारत की सेना ने पश्‍चिम पाकिस्तान की सेना का पूर्ण पराभव किया. वे शरण आये. ९० हजार पाकिस्तानी युद्ध-कैदी बनें. फिर १९७२ में सिमला समझौता हुआ. पाकिस्तान को उसके सब युद्ध-कैदी सुरक्षित वापस मिलें. फिर भी पाकिस्तान की अक्ल ठिकाने आई? अमेरिका का पाकिस्तान को समर्थन देना रुका? नहीं. अफगाणिस्तान में से रूस का वर्चस्व समाप्त करने के लिए उसे पाकिस्तान की सहायता चाहिए थी. वह पाकिस्तान ने दी. अमेरिका की इस सहायता के कारण, अफगाणिस्तान रूस से मुक्त हुआ, लेकिन इस फौजी और आर्थिक मदद से उन्मत तालिबान और अधिक ताकतवर हुआ. अफगाणिस्तान में उसकी सत्ता स्थापन हुई. २००१ में अमेरिका पर जिहादी हमला होने के बाद अमेरिका जागी.

पाकिस्तान का जीवनाधार
लेकिन वह दूसरा विषय है. मुझे दृढता से यह बताना है कि, १९७१ के निर्णायक पराभव के बाद भी पाकिस्तान की वृत्ति में कोई बदलाव नहीं हुआ है और वह होना संभव भी नहीं. अटलबिहारी बाजपेयी प्रधानमंत्री थे उस समय, उन्होंने पाकिस्तान के साथ मित्रता करने के प्रयास किए. एक बस से वे लाहोर भी गये. मित्रता के इस संकेत को पाकिस्तान ने कारगिल पर हमला कर उत्तर दिया. यह बात बहुत पुरानी नहीं. केवल दस वर्ष पूर्व की है.
ऊपर बताए अनुसार अमेरिका के दबाव में पाकिस्तान की सरकार को मित्रता का नाटक करना पड़ रहा है. पाकिस्तान की सरकार, पाकिस्तान की सेना और पाकिस्तान में के धार्मिक नेता भारत-द्वेष मिटा नहीं सकते. कारण, उनके मतानुसार, भारत-द्वेष ही पाकिस्तान के जीवित का आधार है. इसमें इस्लाम या मुसलमानों के बारे में प्रेम यह भाग कम है. इस्लाम की सीख के कारण मुसलमानों में असहिष्णुता का विष संचरित हुआ है या जिस अरबस्थान में इस्लाम का जन्म हुआ उस अरबस्थान में के लोगों के हिंसक चरित्र का यह प्रभाव है, यह संशोधन का विषय है. आज इस्लामी देशों में क्या परिस्थिति है? सिरिया में मुसलमान ही मुसलमानों की जान ले रहें हैं. वही स्थिति येमेन में है. इराक में भी ऐसा ही चल रहा है और अफगाणिस्तान में भी वही.

पराक्रम का स्वभाव
इस्लाम की सीख के कारण पराक्रम स्वभाव बनता होगा; उसके प्रभाव से ही धर्म के लिए आत्मबलिदान देने के लिए लोग प्रवृत्त होते होंगे, ऐसा मान्य करना पड़ेगा. पराक्रमी लोगों का एक स्वभाव बन जाता है. पराक्रम प्रकट करने के लिए उन्हें कोई शत्रु चाहिए. कारण शत्रु होगा, तब ही पराक्रम दिखाने के लिए क्षेत्र उपलब्ध होगा. और पारंपरिक शत्रु उपलब्ध नहीं होगा, तो अपनों में ही शत्रु खोजा जाता है. फिर कादियानी, सूफी, शिया ये सुन्नीयों के शत्रु बनते है, और सुन्नी शियाओं के. इराक और इराण के बीच का झगड़ा शिया विरुद्ध सुन्नी का है. अफगाणिस्तान में झगड़ा तालिबान विरुद्ध अमेरिका-अनुकूल करजाई की सत्ता है. पूर्व पाकिस्तान-पश्‍चिम पाकिस्तान की कलह बंगालीभाषी विरुद्ध पंजाबीभाषी का था. दोनों पक्ष मुसलमान ही है. हिंदू भारत पर पाकिस्तान सीधे आक्रमण नहीं कर सकता कारण उसने उन आक्रमणों का कटु अनुभव लिया है. इसलिए वह छिपे आतंकवाद का सहारा ले रहा है. लेकिन पाकिस्तान पर फिलहाल अमेरिका का दबाव होने के कारण, पाकिस्तान खुल्लमखुला, आतंकी कारवाईयों को समर्थन नहीं दे सकता. फिर वहॉं की लड़ाकू जनता आपस में ही लड़ेंगी. कभी भाषा, तो कभी पंथ भेद पर. लेकिन लड़ेंगे यह निश्‍चित. वैसे भी पाकिस्तान असफल राज्य (failed state) सिद्ध हुआ है. उसे बचाने के लिए हमने मतलब भारत ने प्रयास करने का कारण नहीं. पश्‍चिम पाकिस्तान में के घटक प्रान्त ही उसे मिटाएंगे. शायद वे बांगलादेश की तरह भारत की सहायता भी मांगेगे. पाकव्याप्त काश्मीर में के लोगों ने तो अपनी भावना सीधे दिल्ली आकर प्रगट की थी. बहुत दिन नहीं हुए. केवल तीन वर्ष पूर्व, २००९ में.
तात्पर्य यह कि, पाकिस्तान को उसकी रीति-गति से चलने दे. नियति को उसका कार्य करने दे. हमें संबंध सामान्य बनाने के लिए बढ़-चढ़कर अकारण उठापटक करने का कारण नहीं. क्रिकेट खेलनेवालों ने इस उठापटक में पड़ना तो बिल्कुल अनावश्यक है. उनमें देशभक्ति की भावना की बहुत ही न्यूनता है, इसका यह परिचायक है. पाकिस्तान के साथ बात बनानी ही होगी, तो भारत की दो शर्ते होनी चाहिए- (१) पाकिस्तान ने अपने देश में के आतंकवादीयों के शिबिर नष्ट करने चाहिए. भारत को होने वाली आतंकवादीयों की निर्यात कठोरता से रोकनी होगी. दाऊद इब्राहिम, हफीज सईद, आदि आतंकवादीयों के पुरस्कर्ताओं को स्वयं दंडित करना चाहिए और (२) कश्मीर का जो भाग उसके अवैध कब्जे में है, वहॉं से उसने चले जाना चाहिए. संपूर्ण जम्मू-कश्मीर राज्य भारत में विलीन हुआ है. भारत की यह मौलिक भूमिका है. वह उसने राष्ट्रसंघ में भी प्रस्तुत की है और पुन: भारत की सार्वभौम संसद ने एकमत से २२ फरवरी १९९४ में प्रस्ताव पारित कर उसे अधोरेखित किया है. यह दो शर्ते मान्य करने तक पाकिस्तान ने मित्रता का फालतू दिखावा करने का कारण नहीं.

- मा. गो. वैद्य 
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)
babujivaidya@gmail.com