Monday 24 December 2012

गुजरात विधानसभा चुनाव और उसके बाद


गुजरात और हिमाचल प्रदेश इन दो राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव परिणाम २० दिसंबर को घोषित हुए. हिमाचल प्रदेश में चुनाव नवंबर माह में ही हुए थे. लेकिन मतगणना तब नहीं हुई. गुजरात विधानसभा का चुनाव १३ और १७ दिसंबर को हुआ और २० दिसंबर को दोनों चुनावों के परिणाम घोषित हुए.

सत्तापरिवर्तन
हिमाचल प्रदेश में सत्तापरिवर्तन हुआ. वहॉं गत पॉंच वर्ष से भाजपा की सरकार थी. लेकिन २०१२ में भाजपा का पराभव हुआ. कॉंग्रेस की सत्ता वहॉं स्थापन होगी यह निश्‍चित हुआ. लेकिन इस चुनाव के परिणाम की चर्चा देश के राजनीतिक क्षेत्र में अथवा प्रसारमाध्यमों में नहीं हुई. वह राज्य बहुत ही छोटा है. लोकसभा में, ५४३ सदस्यों में से, उस राज्य के हिस्से केवल चार सिटें आती है. जनमत सामान्यत: परिवर्तन चाहता है. हिमाचल की जनता, किसी पार्टी को लगातार पॉंच वर्ष से अधिक समय सत्ता में नहीं रहने देती, ऐसा कहा जा सकता है. इस कारण हिमाचल प्रदेश के चुनाका किसे भी अचरज नहीं हुआ.

गुजरात की विशेषता
गुजरात की स्थिति भिन्न है. वहॉं १९९५ से भाजपा की सत्ता है. २०१२ में फिर भाजपा ही सत्ता में आ रही है. मतलब मुख्यमंत्री पद पर लगातार पॉंचवी बार भाजपा का ही आदमी विराजमान हो रहा है. यह सच है कि, मुख्यमंत्री पद पर का आदमी बदला, लेकिन सत्तारूढ पार्टी नहीं बदली. वस्तुत: २०१२ में गुजरात भाजपा के सामने बड़ा आव्हान था. २००२ और २००७ के विधानसभा के चुनाव में, २००२ में गुजरात में हुए दंगे, और उन दंगों में मुसलमानों की हुई प्राणहानि, यह भाजपा विरोधी पार्टिंयों के लिए - सही में कॉंग्रेस पार्टी के लिए - महत्त्व का मुद्दा था. कॉंग्रेसाध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी ने, मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्रभाई मोदी को मौत का सौदागरकहकर, भाजपा विरोधी प्रचार को पैना बनाने का प्रयास किया था. आज भी २००२ के दंगों का भूत जगाया जाता है. लेकिन, उसका गुजरात की बहुसंख्य जनता पर कोई परिणाम नहीं होता. गुजरात के बाहर के लोग और प्रसारमाध्यम इन दंगों के लिए नरेन्द्र मोदी को ही जिम्मेदार मानते है. उन्होंने ही दंगे भड़काए, ऐसा उनका आरोप रहता है. लेकिन वह गुजरात की जनता को मान्य नहीं. गुजरात के ही गोध्रा स्टेशन पर २००२ में ५७ निरपराध कारसेवकों को वहॉं के मुसलमानों ने, योजनाबद्ध तरीके से, जिंदा जलाकर मार डाला, उसकी वह तीव्र प्रतिक्रिया थी. क्रिया की उपेक्षा कर प्रतिक्रिया को ही आघातलक्ष्य बनाना, यह चालाकी गुजराती जनता को मान्य नहीं. गुजराती जनता की वह तीव्र प्रतिक्रिया उत्स्फूर्त थी. श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में सिक्खों का हत्याकांड हुआ; और उसमें तीन हजार निरपराध सिक्खों की हत्या की गई, उसका नेतृत्व कॉंग्रेस के नेताओं ने किया था. हरकिसनलाल भगत, जगदीश टायटलर, सज्जन कुमार जैसे कॉंग्रेस के बड़े नेता हिंसक जमाव का नेतृत्व कर रहे थे. उन्हें बेशरमी से उकसा रहे थे. गुजरात में ऐसा नहीं हुआ. इतना कहा जा सकता है कि मुख्यमंत्री मोदी ने शीघ्रता से बचाव कार्य नहीं किया. सामान्यत: शांतताप्रिय समझा जाने वाला गुजराती समाज ऐसा उग्र होकर क्यों भड़क उठा, इसका आकलन कॉंग्रेस के बड़े-बड़े नेताओं को आज भी नहीं हुआ है. इस कारण मोदी और भाजपा मुस्लिम विरोधी है, यह उनके प्रचार की रट लगी रहती है. २०१२ में वह कुछ क्षीण हुई. लेकिन, जब तक कॉंग्रेस गोध्रा हत्याकांड को विस्मृति में ढकेलकर केवल हिंदुओं ने किए प्रतिकार पर ही आग उगलते रहेगी, तब तक गुजरात में कॉंग्रेस को सत्ता मिलने की आशा नहीं.

केशुभाई का आव्हान
इस परिस्थिति के कारण, गुजरात में भाजपा को हराकर कॉंग्रेस सत्ता में आएगी, ऐसा मुझे कभी लगा ही नहीं. भाजपा या नरेन्द्रभाई के सामने, सही आव्हान था केशुभाई पटेल की गुजरात परिवर्तन पार्टी का. केशुभाई दो बार गुजरात के मुख्यमंत्री रह चुके है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य है. उन्होंने २०१२ के चुनाव में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में की भाजपा सरकार को सत्ता से हटाने का बीडा उठाया. मुझे यह बहुत बड़ा खतरा लगा. संघ के कुछ पुराने कार्यकर्ता केशुभाई के साथ है इसकी मुझे जानकारी है. संघ के जो आनुषंगिक संगठन है, जिन्हें सामान्यत: संघ परिवार के घटक संगठन माना जाता है, उनमें से कुछ मोदी से नाराज थे. मुझे ऐसी भी जानकारी मिली है कि, उनमें से कुछ के श्रेष्ठ नेताओं ने केशुभाई के पक्ष में प्रचार भी किया है. सामान्य स्वयंसेवक के लिए जटिल स्थिति निर्माण हुई थी. वैसे, संघ के संविधान के अनुसार स्वयंसेवक किसी भी सियासी पार्टी में जा सकता है. पदाधिकारी भी बन सकता है. शर्त एक ही है कि, वह संघ में पदाधिकारी नहीं रहेगा. गुजरात के स्वयंसेवकों ने अपनी विवेकबुद्धि से इस जटिल स्थिति का हल ढूंढा. २०१२ के चुनाव में गुजरात में भाजपा का पराभव होता, तो उसके विपरित परिणाम भारत की राजनीति पर होते. ऐसा न हो इसलिए स्वयंसेवकों ने अपने विवेक का उपयोग किया. वे व्यक्तिनिष्ठा से ऊपर ऊठे. व्यक्ति के बारे में की नाराजी भी वे भूले और व्यक्ति की अपेक्षा संगठन श्रेष्ठ होता है, यह तत्त्व जो संघ में अंत:करण पर अंकित किया जाता है, उसका उन्होंने स्मरण रखा और भाजपा के पक्ष में मतदान किया. संगठन तो व्यक्तियों से ही बनता है. लेकिन प्रधान क्या और गौण क्या, इसका विवेक रखना होता है. आद्यशंकराचार्य के विख्यात षट्पदीस्तोत्र का दृष्टान्त देना हो तो कह सकते है कि लहर सागर की होती है, सागर लहर से नहीं बनता.शंकराचार्य के शब्द है ‘‘सामुद्रो हि तरंग: क्वचन समुद्रो न तारंग:’’.

अंदाज गलत साबित हुए
मतदान के पंद्रह दिन पूर्व, गुजरात में केशुभाई के साथ के, मेरे परिचय के एक पुराने कार्यकर्ता का मुझे दूरध्वनि आया था. उसने कहा, सौराष्ट्र और कच्छ में विधानसभा की जो ५९ सिटें हैं, उनमें से कम से २० हम निश्‍चित जितेंगे. हमारा प्रयास तो पचास प्रतिशत सिट जितने का होगा. लेकिन किसी भी स्थिति में हम २० से कम पर नहीं रहेंगे. परिणाम घोषित होने तक मुझे भी लग रहा था कि, गुजरात परिवर्तन पार्टी को कम से कम ८ से १० सिंटें तो मिलेगी ही. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उसे केवल दो ही सिटें मिली. गुजरात परिवर्तन पार्टी चुनाव मैदान में न होती, तो भाजपा के सिटों की संख्या १२५ से अधिक होती.

मोदी का महत्त्व
इसका अर्थ नरेन्द्रभाई ने किए काम को गौण सिद्ध करना नहीं है. उन्होंने अपने दस वर्षों के सत्ता काल में भ्रष्टाचारमुक्त प्रशासन दिया. किसी अन्य राज्य में नहीं है, ऐसा गुजरात का विकास किया. पूँजीनिवेश के लिए अनुकूल वातावरण निर्माण किया. अल्पसंख्य मुसलमानों के बीच भी अपने प्रति विश्‍वास निर्माण किया. वह इतना कि, देवबंद के दारूल उलम इस कट्टर धर्मपीठ के नियोजित कुलगुरु मौलाना वास्तानवी ने भी मोदी की प्रशंसा की. उन्होंने कहा था कि, मोदी ने किए विकास कार्य से मुसलमानों को भी लाभ हुआ है. मोदी की इस प्रशंसा के कारण ही, वास्तानवी को अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ा था. मुसलमानों का मोदी और साथ ही भाजपा के बारे में का तीव्र विरोध कम होने और विश्‍वास बढ़ने का चित्र २०१२ के चुनाव में स्पष्ट दिखाई दिया. जिन मतदारसंघों में मुसलमानों की जनसंख्या ३० से ६० प्रतिशत है मतलब जिन मतदारसंघों में वे प्रभाव डाल सकते है ऐसे ९ विधानसभा मतदारसंघों में से सात में भाजपा के उम्मीदवार विजयी हुए है. जमालपुर-खादिया इस साठ प्रतिशत मुस्लिम जनसंख्या की बस्ती के मतदारसंघ में भी भाजपा का हिंदू उम्मीदवार विजयी हुआ है. मोदी के विकास कार्य की गति और स्वरूप से भारत के उद्योगपति तो प्रभावित हुए ही है, उनके साथ पश्‍चिम यूरोप के देश भी प्रभावित हुए है. इसलिए मैं कहता हूँ कि, भाजपा की इस चुनाव में की जीत में मोदी के काम का भी बहुत बड़ा योगदान है. इस बार भाजपा ने जीती ११५ सिटों का मूल्य कम से कम १४० सिटों के बराबर है. गुजरात परिवर्तन पार्टी के विरुद्ध ११५ सिटें जीतना सामान्य बात नहीं. गुपपा मैदान में नहीं होती तो कॉंग्रेस अपनी २००७ की ५९ सिटें भी नहीं बचा पाती.

अकाल चर्चा
मतगणना के चलते ही दूरदर्शन के तीन-चार चॅनेल के प्रतिनिधि मुझे मिलने आये. मैंने उन्हें बताया कि २००७ में ११७ सिटें मिली थी. अबकी बार अधिक से अधिक एक-दो कम होगी. शायद एक-दो बढ़ भी सकती है. लेकिन २००७ की तुलना में भाजपा बहुत नीचे नहीं गिरेगी. और बाद में उनके प्रश्‍न भाजपा के भावी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के मुद्दे पर स्थिर हुए. मैंने इसके पहले भी बताया था और २० दिसंबर को भी पुनरुक्ति कर बताया कि, २०१४ में भाजपा का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कौन होगा, यह चर्चा २०१२ में अकालिक (प्रि-मॅच्युअर) और अप्रस्तुत (इररेलेव्हन्ट) है. गुजरात विधानसभा का चुनाव इसके लिए नहीं हुआ था. मैंने यह भी बताया कि, भाजपा के पास उस पद के लिए योग्य व्यक्तियों की कमी नहीं है. जो तीन-चार नाम उसके लिए योग्य है, उनमें मोदी का भी समावेश है. गुजरात विधानसभा चुनाव का परिणाम कुछ भी आता, -मतलब २००७ की तुलना में सात सिटें कम भी आती - तो भी मोदी की योग्यता में कोई फर्क नहीं पड़ता. मोदी को भाजपा अभी ही अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करे, ऐसा कहने वाले भाजपा में नहीं, ऐसा नहीं. राम जेठमलानी ने पहले ही यह कहा है और वे राज्यसभा में भाजपा के सदस्य है. कुछ दिन पूर्व दिल्ली के एक विख्यात भाजपा कार्यकर्ता मुझसे मिलकर गये. उस समय मतगणना नहीं हुई थी, तब की यह बात है. वे भी कह रहे थे कि, २०१४ का लोकसभा का चुनाव मोदी के नेतृत्व में ही लड़ा जाना चाहिए. मैंने उनके मत से असहमति व्यक्त की. दूरदर्शन के चॅनेल को भी मैंने बताया कि, २०१३ में भाजपा के शक्ति केन्द्र के अनेक राज्यों जैसे : दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक आदि के विधानसभा के चुनाव है. उनके परिणाम देखकर ही भाजपा अपनी २०१४ की रणनीति तैयार करेगी. कभी-कभी तो मुझे संदेह होता है कि, भाजपा की विरोधी पार्टिंयों को ही मोदी को समय से पहले प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने में तो दिलचस्पी नहीं? मोदी की उम्मीदवारी घोषित हुई, तो मुस्लिमों के एकमुश्त वोट हमें मिलेंगे; और भाजपा की आज की सहयोगी जद (यु) भी भाजपा से दूर जाएगी, तथा उसे नए सहयोगी जुटाने में दिक्कत होगी ऐसा तो उनका गणित नहीं? मेरा संदेह गलत भी हो सकता है. लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि, भाजपा अभी ही अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित न करे. सही समय पर ही इसकी घोषणा करे. समय से पहले घोषणा करने से कोई लाभ नहीं होगा. भाजपा के नेतृत्व की आज यही भूमिका है. विशिष्ट प्रसारमाध्यम मोदी के भाषणों से अपनी सुविधा के अनुसार अर्थ निकालने का प्रयास करेगे ही. गुजरात के मतदाताओं ने देश के लिए कार्य करने का मार्ग प्रशस्त किया हैऐसा नरेन्द्रभाई ने, विजय का आनंद व्यक्त करने के लिए एकत्र जनता के सामने कहने का समाचार प्रकाशित हुआ है. देश के लिए कार्य करनामतलब प्रधानमंत्री बनना ऐसा सुविधाजनक अर्थ, जिन्हें निकालना होगा, वे खुशी से निकाले, लेकिन भाजपा अपनी भूमिका न बदले, ऐसा मुझे लगता है.

सारांश यह कि, २०१२ में जो स्थिति थी, वह ध्यान में लेते हुए, मोदी के नेतृत्व में गुजरात भाजपा ने हासिल की जीत सही में प्रशंसनीय है. इसके लिए मैं नरेन्द्रभाई का मन:पूर्वक अभिनंदन करता हूँ. कठिन आव्हानों का मुकाबला कर उन्होंने यह जीत हासिल की है.


- मा. गो. वैद्य
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी )
babujivaidya@gmail.com

Monday 17 December 2012

प्रादेशिक पार्टिंयों का सामर्थ्य और राष्ट्रीय एकात्मता


लोकमत के संपादक, मेरे मित्र, श्री सुरेश द्वादशीवार ने प्रादेशिक पार्टिंयों का सामर्थ्य राष्ट्रीय एकात्मता के लिए प्रश्‍नचिह्न साबित होगा?’ ऐसा प्रश्‍न चर्चा के लिए उपस्थित किया है. प्रश्‍न कालोचित है. वैसे इसका उत्तर कठिन नहीं. अपनी प्रादेशिक अस्मिता संजोते हुए स्वयं को स्वतंत्र राष्ट्र मानकर, देश से विभक्त होने की आकांक्षा रखने का समय अब नहीं रहा. एक समय, यह खतरा था. सबसे बड़ा खतरा जम्मू-कश्मीर राज्य विभक्त होने का था. उस राज्य को विभक्त करने के लिए आंतरराष्ट्रीय कारस्थान भी रचे गए. स्वतंत्र राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा रखनेवालों को उकसाया भी गया. शेख अब्दुल्ला का चरित्र यहॉं फिर नए सिरे से दोहराने का कारण नहीं. लेकिन उन्हें भी वह शौक कहे या भ्रम, छोड़ना पड़ा. १९७५ के फरवरी माह में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी और कश्मीर के मुख्यमंत्री (याद रहे मुख्यमंत्री! वजीर-ए-आझम नहीं. यह नाम कब का हटा दिया था. और सदर-इ-रियासतभी नहीं. वे सामान्य राज्यपाल बन गये थे), शेख अब्दुल्ला के बीच हुए समझौते से उनका स्वतंत्र राज्य का सपना समाप्त हुआ.

और भी कुछ सपने समाप्त हुए
नागालँड में भी कुछ तूफान उठा था. उस तूफान के पीछे ईसाई मिशनरी थे. वे भी शांत हुए. एक समय नागालँड के मुख्यमंत्री रहे एस. सी. जमीर महाराष्ट्र के राज्यपाल भी बने. मिझोराम में भी ऐसी ही गतिविधियॉं चली थी. मिझो नॅशनल फ्रंटमतलब मिझो का राष्ट्रीय गठबंधनयह नाम उस गतिविधि ने अपनाया था. कहते थे, मिझो स्वतंत्र राष्ट्र है! लेकिन अब वह एक छोटी सी पार्टी बनकर रह गई है. भारत में जो विविध राजनीतिक पार्टिंयॉं है, उनमें से एक, नगण्य पार्टी. तमिलनाडु में भी कुछ अतिरेक हुआ था. रामस्वामी नायकर के द्रविड कळघमने यह उठापटक की थी. लेकिन उस कळघमके अब अनेक टुकड़े हुए है. द्रविड मुन्नेत्र और अण्णा द्रविड मुन्नेत्र कळघम यह उनमें के दो बड़े धडे है.

हडबडाने का कारण नहीं
मुझे यह कहना है कि, अब कोई भी भारत से विभक्त होने की महत्त्वाकांक्षा नहीं रख सकता. कुछ भाषाओं में राष्ट्रशब्द रहता है. लेकिन वह शब्द राज्यइस अर्थ में ही प्रयोग होता है. तेलगू  भाषा में राष्ट्रका अर्थ राज्यही है. तेलंगना राष्ट्र समितिमतलब तेलंगना राज्य समिति. बंगला भाषा में भी राष्ट्रमतलब राज्यही होगा. कारण, उस भाषा में राष्ट्रसंकल्पना व्यक्त करने के लिए जातिशब्द का प्रयोग होता है. बंगला देश की एक बड़ी सियासी पार्टी का नाम बांगला जातीय पार्टीहै. इस कारण किसी ने अपने नामाभिधान में राष्ट्रशब्द अंतर्भूत करने पर हडबडाने का कोई कारण नहीं.

संविधान की बाधा
कोई भी राज्य विभक्त होने की मन:स्थिति या परिस्थिति में नहीं है. इतने से ही, राष्ट्रीय एकात्मता टिकी रहेगी और मजबूत होगी, ऐसा समझने का भी कारण नहीं. हमारा यह देश एक है, एकसंध है, हम सब एक जनहै और इस कारण हम एक राष्ट्र है, ऐसी भावना दिनोंदिन वृद्धिंगत होते जानी चाहिए. दुर्भाग्य से, हमारे संविधान की ही इस कार्य में बाधा है. हमारा संविधान देश की मौलिक एकता ही मान्य नहीं करता; और एकता ही मान्य नहीं होगी, तो एकात्मता कैसे निर्माण होगी. हमारे संविधान की पहली ही धारा की भाषा देखे.    "India that is Bharat shall be a Union Of States." अनुवाद है ‘‘इंडिया अर्थात् भारत राज्यों का संघ होगा.’’ क्रियापद भी भविष्यकालीन है.  'Shall' ‘होगाइस प्रकार है. मतलब मौलिक एकक  (basic Unit) ‘राज्यहुआ. संपूर्ण देश नहीं. अतिप्राचीन विष्णुपुराण में, यह एक देश है और महासागर के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण तक फैला है, ऐसा स्पष्ट उल्लेख है. पुराण के शब्द है,

                                                ‘‘उत्तरं यत् समद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् |
                                                  वर्षं तद् भारतं नाम, भारती यत्र संतति: ॥

संविधान के निर्माण के काम के लिए बड़े-बड़े लोग बैठे थे. विद्वान थे, अनुभव संपन्न थे. लेकिन उन्हें हमारे देश का ऐसा वर्णन करना नहीं सूझा की, India that is Bharat, is one country; we are one people and therefore we are one nation.

सर्वश्रेष्ठ कौन?
हम हमारे देह का वर्णन कैसे करेंगे? हाथ, पॉंव, नाक, कान, आँखें, इत्यादि इंद्रियों का संघ या समूह, ऐसा वर्णन किया तो चलेगा? ये सब इंद्रिय है. वह एकत्र भी है. लेकिन एक प्राण तत्त्व है, जो इन सब इंद्रियों को उनके काम करने के लिए शक्ति प्रदान करता है. उपनिषद में एक कहानी है. एक बार प्राण और इंद्रियों के बीच झगड़ा हुआ. मुद्दा था सर्वश्रेष्ठ कौन? वे सब ब्रह्मदेव के पास गये. ब्रह्मदेव ने कहा, ‘‘तुम में से क्रमश: एक, एक वर्ष के लिए देह छोड़कर जाय. तुम्हें तुम्हारें प्रश्‍न का उत्तर मिल जाएगा.’’ सबसे पहले पॉंव गये. एक वर्ष बाद वे वापस लौटे; और पूछा, हमारे बिना तुम कैसे रहे? अन्य ने कहा, जैसे कोई लंगड़ा मनुष्य जीता है, वैसे हम जिये. फिर आँखें गई. एक वर्ष बाद लौटकर आई और पूछा, तुम मेरे बिना कैसे रहे? अन्य ने कहा, जैसे कोई अंधा रहता है, वैसे हम रहे. इसी प्रकार क्रमश: कान, वाणी ने भी एक वर्ष बाहर वास्तव्य किया. वापस आने पर उन्हें उत्तर मिला कि, बहरे, गूँगे जैसे रहते है, वैसे हम रहे. फिर प्राण ने जाने की तैयारी की. तब, सब इंद्रिय हडबडा गई. उन्होंने मान्य किया कि प्राण ही सर्वश्रेष्ठ है.

राष्ट्र श्रेष्ठ
इसी प्रकार हमारे देश में मतलब हमारे देश के लोगों में यह भावना निर्माण होनी चाहिए कि, ‘राष्ट्रबड़ा है. राज्ययह एक राजनीतिक व्यवस्था है. कानून के बल पर वह चलती है. राष्ट्र की सीमा में अनेक राज्य हो सकते है. होते भी है. उनमें बदल भी होते है. हमारे यहॉं भी हुए है. पहले पंजाब एक राज्य था. उब उसके तीन भाग हुए है. पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश. मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश से उत्तरांचल, बिहार से झारखंड और एक असम से तो कई अन्य राज्य निर्माण हुए है. और भी नए राज्य बनेंगे. उससे कुछ नहीं बिगड़ेगा. इन सब राज्यों को अपने प्राणभूत तत्त्वों का स्मरण रहा, तो वे कितने ही बलवान् हुए, तो कुछ नहीं बिगड़ेगा. वह प्राणभूत तत्त्व राष्ट्रहै. वह व्यवस्था नहीं. वह हजारों वर्षों से स्थिरपद हुई एकत्व की भावना है. फ्रेंच ग्रंथकार अर्नेस्ट रेनॉं, के यह उद्गार ध्यान में ले -  "It is not the soil any more than the race which makes a nation. The soil provides the substratum, the field for struggle and labour, man provides the soul. Man is everything in the formation of this sacred thing that we call a people. Nothing that is material suffices here. A nation is a spiritual principle, the result of the intricate workings of history, a spiritual family and not a group determined by the configuration of the earth."     

(हिंदी अनुवाद : केवल भूमि या वंश से राष्ट्र नहीं बनता. भूमि आधार देती है. परिश्रम और संघर्ष भूमिपर होता है. लेकिन मनुष्य ही आत्मतत्त्व देता है. जिस पवित्र अस्तित्व को हम राष्ट्र कहते है, उसकी निर्मिति में मनुष्य ही सब-कुछ होता है. कोई भी भौतिक व्यवस्था राष्ट्र बनने के लिए काफी नहीं होती. राष्ट्र एक आध्यात्मिक अस्तित्व होता है. इतिहास की अनेक एक-दूसरे में जुड़ी घटनाओं का वह परिणाम होता है. राष्ट्र एक आध्यात्मिक परिवार होता है. केवल भूमि के आकार से मर्यादित जनसमूह नहीं होता.)

तात्पर्य यह कि, राष्ट्रभाव प्रखर रहा तो, राज्यों के सामर्थ्य से भयभीत होने का कारण नहीं.

हमारा देश बहुत विशाल है. राज्यकारोबार चलाने की सुविधा के लिए उसके भाग बनेगे ही. लेकिन उस प्रत्येक भाग ने स्वयं की मर्यादाए जाननी चाहिए. अन्यथा खलील जिब्रान इस लेबॅनीज ग्रंथकार के एक पात्र -अल् मुस्तफा ने - जो कहा है वह सही साबित होगा. अल् मुस्तफा कहता है, ‘‘वह देश दयनीय है, जो अनेक टुकड़ों में विभाजित है और हर टुकड़ा स्वयं को संपूर्ण देश मानता है.’’

नई राज्यरचना आवश्यक
हमने संसदीय जनतंत्र स्वीकार किया है. केन्द्र स्थान पर संसद है. राज्यों में विधानमंडल है. संविधान ने राज्यों को कुछ विशेष अधिकार दिये है. उन अधिकारों का उपभोग लेने के लिये सत्तातुर लोग उत्सुक रहेंगे ही. स्वाभाविक ही अनेक पार्टिंयॉं भी अस्तित्व में आएगी. और संकुचित एवं मर्यादित भावना भड़काना तुलना में आसान होने के कारण, प्रादेशिक पार्टिंयों की जड़ें जमेंगी. पंजाब में अकाली दल है. उसकी मर्यादा पंजाब तक ही है. तमिलनाडु में द्रमुक और अद्रमुक है. उनकी मर्यादा तमिलनाडु राज्य ही है. महाराष्ट्र में शिवसेना है. मराठी माणूस उसकी सीमा है. आंध्र में तेलगू देशम्है. वह आंध्र तक ही है. अलग-अलग राज्यों के लिए आंदोलन करने वाले जो है, उनकी सीमा निश्‍चित है. तेलंगना राज्य समिति, तेलंगना तक. विदर्भ आंदोलन, विदर्भ तक. गोरखालँड, वही तक. इसमें अनुचित कुछ भी नहीं. मैं तो कहुंगा कि, फिर एक बार पुन: राज्यरचना हो. तीन करोड़ से अधिक और पच्चास लाख से कम किसी भी राज्य की जनसंख्या न हो. उत्तर प्रदेश नाम का राज्य अठाराह करोड़ का हो और मिझोराम में दस लाख भी जनसंख्या न हो, यह व्यवस्था नहीं. व्यवस्था का अभाव है. कहीं अन्याय हुआ है ऐसा महसूस हुआ, तो हर तीन जनगणना के बाद पुन: समायोजन किया जाना चाहिए. हमारा एक राष्ट्र है और सब भाषा हमारी राष्ट्रीय भाषा है, यह मन में बैठने के बाद भाषा के विवाद अपने आप ही समाप्त होगे या कम से कम उनका दंश तो निश्‍चित ही कम होगा.

अनेक विवाद समाप्त होगे
राष्ट्र श्रेष्ठ और राज्य उसकी राजनीतिक सुविधा के लिए की गई व्यवस्था यह मान्य किया तो फिर अनेक विवाद समाप्त होगे. कावेरी नदी न कर्नाटक की रहेगी न तमिलनाडु की. कृष्णा न केवल महाराष्ट्र की रहेगी न केवल आंध्र की. यमुना का उपयोग हरियाणा के समान ही दिल्ली के लिए भी होगा. कावेरी कर्नाटक से निकली है इस कारण वह केवल उस राज्य की नहीं होगी. देश की सब छोटी-बड़ी नदियॉं - गंगा, यमुना, नर्मदा, गोदावरी यह सब देश की नदियॉं होगी और उन पर किसी भी एक राज्य या वे जिस राज्य से बहती है, उन राज्यों का ही अधिकार नहीं होगा.

अखिल भारतीय पार्टिंयों का महत्त्व
इस प्रकार प्रादेशिक पार्टिंयों का महत्त्व होने पर भी, संपूर्ण देश का चित्र जिनके सामने है, ऐसी कम से कम दो पार्टिंयॉं अखिल भारतीय स्तर पर होनी ही चाहिए. आज इस प्रकार की कॉंग्रेस और भारतीय जनता पार्टी यह दो पार्टिंयॉं है. लेकिन वे एक पथ्य का पालन करें. संभव हो तो राज्य विधानमंडल के चुनाव न लड़े और यह चुनाव लड़ने की इच्छा हुई ही तो सत्ता ग्रहण करते समय प्रादेशिक सरकारो में दुय्यम भूमिका में न रहे. पंजाब में अकाली दल या बिहार में जदयु को सत्ता भोगने दे. चाहे तो ये राष्ट्रीय पार्टिंयॉं उन्हें बाहर से समर्थन दे सकती है. लेकिन सत्ता ग्रहण करनी होगी, तो प्रमुख सत्ताधारी पार्टी यह अखिल भारतीय पार्टी ही होनी चाहिए. वह अन्यों की सहायता ले सकती है. लेकिन जब वे स्वयं दुय्यम भूमिका स्वीकारना पसंद करती है, तब वह, एक प्रकार से, अपने अखिल भारतीय चरित्र्य को ही बाधित करती है. कम से कम अखिल भारतीय पार्टिंयों को सत्ता का मोह टालते आना चाहिए. इसलिए मेरी यह सूचना है कि, वे प्रादेशिक विधानमंडल के चुनाव ही न लड़े और अपना पूरा ध्यान और शक्ति केन्द्र की सत्ता की ओर उपयोजित रहने दे. सारांश यह कि, ऊपर दिये कुछ पथ्य पाले गए, तो प्रादेशिक पार्टियों का सामर्थ्य राष्ट्रीय एकात्मता के लिए बाधक सिद्ध होने का कारण नहीं. धावक के पॉंव या पहलवान की जांघे पुष्ट हुई, तो वह बलिष्ठ और पुष्ट अवयव पूरे शरीर की ही शक्ति बढ़ाते है.


(दैनिक लोकमतके दीपावली अंक में प्रकाशित लेख, संपादक के सौजन्य से)

- मा. गो. वैद्य
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी )
       

Tuesday 11 December 2012

सरकार अल्पमत में : नया जनादेश लेना उचित


खुदरा व्यापार में सीधे विदेशी निवेश (एफडीआय) को मान्यता देने के बारे में, संसद के दोनों सदनों में संयुक्त प्रगतिशील मोर्चा (संप्रमो) का विजय हुआ, लेकिन साथ ही यह सरकार अल्पमत मे है, यह भी स्पष्ट हुआ है. सरकार का यह विजय तकनिकी (प्रावैधिक) है. सौदेबाजी से साध्य किया है.

आँकड़ों का गणित
मतदान के आँकडे यही वास्तव स्पष्ट करते है. लोकसभा में, विदेशी निवेश को मान्यता देने की नीति अपनाने का प्रस्ताव वापस ले, ऐसा प्रस्ताव विपक्ष की ओर से रखा गया था, उसके पक्ष में २१५ मत पड़े. तो प्रस्ताव के विरोध में मतलब संप्रमो सरकार के पक्ष में २५३ मत पड़े. सरसरी तौर पर देखें तो सरकार के पक्ष में ३५ मत अधिक गिरे और सरकार का विजय हुआ, ऐसा दिखता है. लेकिन सरकार के विरोध में भूमिका लेकर और वह सभागृह में हुए भाषणों में स्पष्ट करने के बाद भी, समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के सदस्यों ने सरकार के विरोध में सभागृह से बहिर्गमन किया. इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि, विपक्ष के २१५+४३ मतलब २५८ मत है. २५८ विरुद्ध २५३ ऐसा यह सही गणित है. इसका अर्थ यही है कि, प्रस्ताव के पक्ष में और सरकार के विरोध में जिन्होंने भाषण कर अपनी भूमिका स्पष्ट की, उन्होंने सरकार बचाने के लिए मतदान में भाग न लेकर, बर्हिगमन किया.

निर्लज्ज सौदेबाजी
सरकार के निर्णय के विरोध में रहते हुए भी, इन पार्टिंयों के सांसदों ने, सरकार को बचाने के लिए, इस प्रकार का दोमुँहा व्यवहार क्यों किया, यह समझना कठिन नहीं. ऊपर कहा ही है कि, इसमें सौदेबाजी हुई है. संपुआ को इसकी आदत है. अपनी सरकार बचाने के लिए किसी भी स्तर तक अध:पतित होने में उन्हें शर्म नहीं आती. वर्ष २००८ में, सांसदों को खरीदने के लिए नगद पैसों का उपयोग हुआ था. सरकार की ओर से घूस मिलते ही, कुछ सांसद बीमार पड़े, कुछ अनुपस्थित रहे तो अन्य कुछ ने सीधे-सीधे सरकार के पक्ष में मतदान किया. जो सरकार, मतलब सरकार चलाने वाले मोर्चे में की मुख पार्टी मतलब कॉंग्रेस पार्टी ही खुल्लम-खुल्ला भ्रष्टाचार करने में संकोच नहीं करती, वह विरोधी पार्टिंयों को अपने साथ जोड़ने के लिए सौदेबाजी करने में हिचकेगी, ऐसी अपेक्षा करना ही व्यर्थ है. जिन पार्टिंयों के साथ सरकार ने ऐसी सौदेबाजी की वे है (१) सपा (२) बसपा. सपा का उत्तर प्रदेश में शासन है. हमने यह बात निश्‍चित समझनी चाहिए कि, इस सरकार के कुछ लोकार्षक काम करने के लिए संप्रमो सरकार ने ठोस सहायता का आश्‍वासन दिया होगा. बसपा की सर्वेसर्वा मायावती, भ्रष्टाचार मतलब संपत्ति के मामले में फँसी है. अपराध अन्वेशन विभाग (सीबीआय) उनकी संपत्ति की जॉंच कर रहा है. इस जॉंच से मुझे बचाओ, यह अपने समर्थन की किमत मायावती ने मॉंगी होगी, तो कोई आश्‍चर्य नहीं. सीबीआयने स्वयं का क्रिमिनल ब्यूरो ऑफ इन्व्हेस्टिगेशननाम सार्थ करने के बदले कॉंग्रेस ब्यूरो ऑफ इन्व्हेस्टिगेशनऐसा रूपांतरित किया है, ऐसी उसकी बार-बार जो आलोचना होती है, वह कोरी निराधार है, ऐसा दिखने लायक सीबीआयका वर्तन शुद्ध नहीं. लड़ाई में और प्रेम में सब कुछ माफ होता है, इस अर्थ की एक कहावत अंग्रेजी में है. लड़ाई का अर्थ प्रत्यक्ष शस्त्रयुद्ध न मानकर, राजनीतिक पार्टिंयों में का सत्ता संघर्ष ले, तो कॉंग्रेस को बहुत दोष नहीं दिया जा सकता. सही में दोषी सपा और बसपा ही है. इन्हें राजनीतिक पार्टिंयॉंकहना उस संज्ञा का अपमान है. ये सत्ताकांक्षी टोलियॉं है; और हर टोली का जैसे एक सरदार होता है और उसके इशारे पर टोली के अन्य घटक वर्तन करते है, वैसा ही इन दो पार्टिंयों के बारे में हुआ है. इन लोगों को राजनीति के सिद्धांत, ध्येय, नीतियॉं और कार्यक्रम से कोई लेना-देना नहीं. टोली का स्वार्थ, वस्तुत: टोली के सरदार का स्वार्थ, यहीं उनकी तथाकथित राजनीति का प्रधान सूत्र है. लेकिन, कॉंग्रेस पार्टी, ऐसी टोलीनुमा पार्टिंयों की सहायता से विजय प्राप्त करने का आनंद मनाए, यह भारतीय राजनीति के भविष्य के दृष्टि से, अति सौम्य शब्दों में भी कहे, तो खेदजनक है.

मित्र पार्टिंयों की भूमिका
जिन्होंने बर्हिगमन नहीं किया, और जो संप्रमो की घटक है, उनमें से दो पार्टिंयों की नीतियों का भी विवेचन यहॉं प्रस्तुत है. उनमें से एक है राष्ट्रवादी कॉंग्रेस (राकॉं). संप्रमो में इस पार्टी के लोकसभा में के सांसदों की संख्या दो आँकड़ों की भी नहीं. लेकिन महाराष्ट्र में उनकी ताकत है; और उसी ताकत के बल पर महाराष्ट्र में कॉंग्रेस की सरकार टिकी है. कॉंग्रेस और राष्ट्रवादी कॉंग्रेस के विधायकों की संख्या करीब समान है. इस कारण राकॉं ने गठबंधन का धर्म पालन करते हुए संप्रमो सरकार के पक्ष में मतदान करना स्वाभाविक मानना चाहिए. लेकिन ऐसा दिखाई नहीं देता. ऐसा लगता है कि किसी अगतिकता के कारण राकॉं ने यह रास्ता अपनाया. लोकसभा में हुए मतदान के बाद और विदेशी पूँजी निवेश का रास्ता साफ होने के बाद, राकॉं के महाराष्ट्र के नेताओं के वक्तव्य देखे तो, यह स्पष्ट होगा कि, राकॉं को संप्रमो का निर्णय पूर्णत: मान्य नहीं. संप्रमो की सरकार के एक मंत्री, राकॉं के वरिष्ठ नेता और राकॉं के सर्वश्रेष्ठ नेता शरद पवार के अति निकट सहयोगी प्रफुल्ल पटेल का इस संदर्भ में का वक्तव्य विचार करने लायक है. इंडियन एक्सप्रेससे बात करते समय पटेल ने कहा, ‘‘हमने मतलब राकॉं ने इस बारे में अंतिम निर्णय नहीं लिया है. हम पहले महाराष्ट्र की जनता के साथ बात करेगे और बाद में निर्णय लेंगे.’’ लोकसभा में हुई चर्चा के समय, आक्रम रूप से सरकार का पक्ष रखने वाले मंत्री कपिल सिब्बल ने अपने भाषण में कहा था कि, संप्रमो सरकार की इस नीति को महाराष्ट्र सरकार की अनुकूलता है. सिब्बल के इस वक्तव्य पर भी पटेल ने आक्षेप लिया और कहा कि, ‘‘महाराष्ट्र सरकार ने ऐसा कोई निर्णय नहीं लिया है. महाराष्ट्र में दोनों पार्टिंयों की एक समन्वय समिति है, वह इस पर चर्चा करेगी; इस नीति के परिणामों पर विचार करेगी और फिर तय करेगी कि, महाराष्ट्र में यह नीति लागू की जाय या नहीं.’’ प्रश्‍न यह है कि, फिर राकॉं ने विपक्ष के पक्ष में मतदान क्यों नहीं किया?

नए जनादेश की आवश्यकता
हाल ही में महाराष्ट्र के मंत्रिमंडल में फिर से आये भूतपूर्व उपमुख्यमंत्री अजित पवार ने मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण से मिलकर उन्हें बताया कि, हमें किसान, छोटे व्यापारी और खुदरा वस्तुओं के व्यापारियों के हितों का खयाल रखना होगा. इसके लिए पहले समन्वय समिति की बैठक बुलानी होगी. इस बारे में एक पत्र भी उन्होंने मुख्यमंत्री को दिया; उसमें स्पष्ट कहा है कि, इस बारे में कॉंग्रेस अकेले कोई भी निर्णय न ले. राकॉं के प्रवक्ता नबाब मलिक ने भी यही कहा है. ‘‘हम एफडीआय को समर्थन दे रहे है. लेकिन इसे लागू करने के पूर्व हमें कामगार, किसान, कृषि उत्पादन बाजार समितियों एवं सहकारी क्षेत्र के उद्योगों का भी विचार करना होगा.’’  राकॉं के प्रदेश अध्यक्ष पिचड ने भी ऐसा ही मत व्यक्त किया है. राकॉं अगर सीधे विदेशी पूँजी निवेश का मन से समर्थन करती होगी, तो ऐसे प्रश्‍न उपस्थित करने का क्या कारण? किस दबाव में राकॉं को संप्रमो की नीति को समर्थन देना पड़ा? और इतने विलंब से उसके मन में यह शंकाएँ क्यों निर्माण हुई? संसद का अधिवेशन आरंभ होते ही विपक्ष ने धारा १८४ के अंतर्गत, विदेशी पूँजी निवेश के इस मुद्दे पर चर्चा की मॉंग की थी. इस मांग का सरकार ने जोरदार विरोध किया. एक सप्ताह तक संसद का काम न चले ऐसी योजना की और जब सपा और बसपा को मनाने में सफलता मिली, तब सरकार धारा १८४ के अंतर्गत चर्चा कराने के लिए राजी हुई. इस दौरान राकॉं ने अपनी भूमिका निश्‍चित कर लेना सही होता. मतदान सरकार के पक्ष में करना और बाद में उसमें आक्षेप खोजना यह सियासी चाल हो सकती है, लेकिन यह चाल पार्टी नेतृत्व की ईमानदारी पर प्रश्‍नचिह्न निर्माण करती है. विरोधकों को मिलने वाले संभावित २५८ मतों में राकॉं के नौ मत मिलाए तो विदेशी पूँजी निवेश विरोधियों के मतों की संख्या २६७ होती है. द्रमुक की भी ऐसी ही स्थिति है. सीधे विदेशी पूँजी निवेश को उसका विरोध है. लेकिन गठबंधन के धर्म के अनुसार उन्होंने सरकार के पक्ष में मतदान किया. इस विवेचना का मथितार्थ यहीं है कि, लोकसभा में सरकार का बहुमत नहीं है. वह अल्पमत में आ गई है. उसने राज करने का नैतिक अधिकार खो दिया है. उसने नया जनादेश लेने की आवश्यकता है.

वैचारिक व्यभिचार
जो लोकसभा में हुआ वहीं राज्यसभा में भी हुआ. यदि राज्यसभा में विपक्ष ने प्रस्तुत किए प्रस्ताव के समर्थन में बहुमत प्रकट होता, तो भी सरकार पर हार का ठिकरा फोडकर कोई उसके त्यागपत्र की मांग नहीं करता. अब उसकी आवश्यकता भी नहीं रही है. सरकार के पक्ष में १२३ तो विपक्ष में १०९ मत पड़े. आश्‍चर्य यह कि जिस बसपा ने विरोध दर्शाते हुए लोकसभा से बहिर्गमन किया था, उसी ने राज्य सभा में खुले आम सरकार के पक्ष में मतदान किया. स्वाभाविक ही, इस सहयोग की पूरी किमत बसपा ने वसूली होगी ही. बसपा के राज्यसभा में १५ मत है. लोकसभा के समान ही राज्य सभा से भी उसके सांसदों ने बहिर्गमन किया होता तो सरकार के पक्ष में केवल १०८ मत गिरते और एक मत से ही सही विपक्ष को विजय मिलता. सरकार की ओर से नामनियुक्त सदस्यों की संख्या ९ है. उनका अंतर्भाव इस १२३ मत संख्या में है. सरकार की ओर से इन सांसदों पर जो उपकार किए गए है, उन उपकारों का उन्होंने ध्यान रखा, इतना ही कह सकेगे. वे, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ही सही, जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करते. लेकिन सपा और बसपा ने विचार एक और व्यवहार दूसरा ऐसा जो वैचारिक व्यभिचार लोकसभा में किया, वहीं राज्यसभा में भी किया. वहॉं भी उन्होंने अपनी विश्सनीयता की बलि देकर सरकार का समर्थन किया.

समन्वय और सहमति आवश्यक
लोकसभा और राज्यसभा के सदनों का मुद्दा विदेशों से संबंधित था. एक प्रकार से वह मुद्दा विदेश नीति से संबंधित था. जिन देशों में जनतंत्र प्रगल्भ है, वहॉं विदेश नीति और निर्णय सब की सहमति (कॉन्सेन्सस्) से लिए जाते है. लेकिन दुर्भाग्य से हमारे देश में ऐसा नहीं होता. सत्तारूढ संप्रमो ने, देश-हित का विचार कर संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन तथा वाम मोर्चा और अन्य पार्टिंयों के रणनीतिकारों के साथ बैठकर, उनके साथ चर्चा कर सहमति बनाने का प्रयत्न करना चाहिए था. लेकिन संप्रमो ने ऐसा नहीं किया. उन्होंने यह रास्ता क्यों नहीं अपनाया, इसका उत्तर देना कठिन है. लेकिन संदेह की गुंजाईश है. वह संदेह यह कि, संप्रमो की सरकार अमेरिका और अन्य कुछ यूरोपीय देशों के दबाव में फँसी है. हम आशा करे कि, सरकार ने किसी के दबाव में न झुकते हुए अपनी सद्सद्विवेकबुद्धि से लिया है, यह सत्य होगा. भविष्य में, दुनिया में प्रत्यक्ष युद्धभूमि पर महायुद्धों की संभावना नहीं है. लेकिन आर्थिक एवं व्यापारिक आक्रमण की भरपूर संभावनाए है. हम विदेशी राष्ट्रों के योजनापूर्वक आक्रमण के शिकार न बने, ऐसी ही सब देशभक्त नागरिकों की इच्छा होगी. दुर्भाग्य से संप्रमो सरकार की ओर से वह पूरी नहीं होती, ऐसा दिखाई देता है. हम शांतचित्त से हमारे यहॉं स्थापन हुए अंग्रेजों के राज्य का इतिहास ध्यान में ले. व्यापार के लिए आई ईस्ट इंडिया कंपनी ने, हमारे देशी शासकों के बीच के समन्वय के अभाव और फूट का लाभ उठाकर, हमारे ही सैनिकों का उपयोग कर, हमें गुलाम बनाया था. १८ वी सदी में, उनकी चाल हमारे तत्कालीन शासकों के समझ में नहीं आई. क्या इक्कीसवी सदी में भी हम वैसा ही व्यवहार करेगे, यह प्रश्‍न हर किसी को चिंतित करेगा, इतना गंभीर है.


- मा. गो. वैद्य
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)