Sunday 27 May 2012

भाजपा का भविष्य


                             

दिनांक २४ मई को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के कार्यकारी मंडल ने, लगातार दो बार, अध्यक्ष पद पर एक ही व्यक्ति रह सकती है, ऐसा संविधान संशोधन किया. इस कारण, विद्यमान अध्यक्ष नीतीन गडकरी को आगामी तीन वर्ष के लिए अध्यक्ष पद पर बने रहने का मौका मिला है. श्री गडकरी के वर्तमान अध्यक्ष पद की अवधि दिसंबर २०१२ को समाप्त हुई होती. अब वे २०१५ तक अध्यक्ष पद पर रह सकेंगे. अर्थात् आज तो यह संभाव्यता ही माननी चाहिए. कारण, यह संविधान संशोधन, पार्टी की आम सभा ने मंजूर करना चाहिए; और महत्त्वपूर्ण यह है कि गत बार के समान गडकरी का अविरोध चुनाव होना चाहिए. यह दोनों बातें संभावना के दायरे में होने के कारण ही, श्री गडकरी २०१५ तक पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहेगे, ऐसा माना जा रहा है.

पार्टी से व्यक्ति श्रेष्ठ?

राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने यह प्रस्ताव पारित करने के पूर्व एक घटना घटित हुई. कार्यकारिणी के एक सदस्य श्री संजय जोशी ने अपनी सदस्यता से त्यागपत्र दिया. यह त्यागपत्र उन्होंने अपनी मर्जी से नहीं दिया, यह सूर्यप्रकाश के समान स्पष्ट है. उन्हें वह देना पड़ा. क्यों? - एनडीटीव्ही पर इस विषय पर की चर्चा मैंने सुनी. चर्चा में भाग लेने वालों में से एक ने ऐसा मत व्यक्त किया कि, गडकरी ने अध्यक्ष पद प्राप्त करने के लिए संजय जोशी की बलि दी. मुझे यह अभिप्राय गडकरी पर अन्याय करने वाला लगा. लेकिन यह सच है कि, गुजरात के मुख्यमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी को खुश करने के लिए संजय जोशी को जाना पड़ा. वे त्यागपत्र न देते, तो क्या होता? श्री मोदी मुंबई की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की सभा में नहीं आते. शायद गुजरात से कोई भी नहीं आता. लेकिन उससे क्या बिगड़ता? क्या संविधान संशोधन नहीं होता? संभावना नकारी नहीं जा सकती कि, वह एकमत से नहीं होता. पार्टी में फूट दिखाई देती. जनतांत्रिक व्यवस्था माननेवाली पार्टी के संदर्भ में यह अप्रत्याशित नहीं है. मुझे लगता है कि, नरेन्द्र मोदी का अंहकार संजोने के लिए ही संजय जोशी की बलि दी गई है. यह अयोग्य है. पार्टी की अपेक्षा एक व्यक्ति को श्रेष्ठ सिद्ध करने का यह प्रकार है, ऐसा खेदपूर्वक कहना पड़ता है.

षड्यंत्र

मोदी-जोशी के बीच की दूरी का सब संदर्भ मुझे पता है. जोशी को बदनाम करने का एक गंदा षड्यंत्र गुजरात में रचा गया था. एक अश्‍लील सीडी बनाई गई थी. उसका प्रसारण भी दूरदर्शन की एक वाहिनी से किया गया था. लेकिन बाद में ध्यान में आया कि, वह सीडी बनावटी है. देश में की और विदेशों में की फॉरेन्सिक प्रयोग शालाओं ने वह सीडी बनावटी होने का प्रमाणपत्र दिया है. इस गंदी राजनीति में श्री मोदी का यत्किंचित भी संबंध नहीं था, ऐसा छाती ठोककर कहा जा सकता है? यह कलंक जब तक दूर नहीं होता, तब तक कोई भी पद स्वीकार नहीं करूंगा, ऐसा जोशी ने निश्‍चित किया था और उस पर वे कायम रहे. उनके निष्कलंकत्व के बारे में यकीन होने के बाद ही गडकरी ने उन्हें फिर कार्यकारिणी का सदस्यत्व अर्पण किया. उन्हें त्यागपत्र देने के लिए बाध्य कर, अपना मत परिवर्तन हुआ है, और वे जोशी को निष्कलंक नहीं मानते, ऐसा अप्रत्यक्ष ही सही, सबूत गडकरी ने इस मामले में दिया है, ऐसा किसे ने कहा, तो उसे दोष नहीं दिया जा सकता.

अनुचित नीति

कोई एक व्यक्ति बाजू हट जाती है, तो पार्टी की बहुत बड़ी हानि होती है, ऐसा नहीं. श्री मोदी नाराज रहते, मुंबई की बैठक में नहीं आते, या और आगे जाकर भाजपा छोड देते, तो भी अधिक से अधिक गुजरात में भाजपा की सत्ता जाती. इसी वर्ष अक्टूबर-नवंबर में वहॉं विधानसभा का चुनाव है. भाजपा पराभूत भी होता. लेकिन क्या भाजपा यह पार्टी ही समाप्त होती? २००८ तक राज्यस्थान में भाजपा की सत्ता थी. २००८ के चुनाव में भाजपा का पराभव हुआ. क्या राज्यस्थान में की भाजपा समाप्त हुई? हाल ही हुए विधानसभा के चुनाव में उत्तराखंड में भाजपा का पराभव हुआ, क्या वहॉं भाजपा समाप्त हुई? एक व्यक्ति की राजी-नाराजी के लिए, न्याय-अन्याय का विचार न करना, यह नीति, न नैतिक दृष्टि से, और न ही व्यावहारिक दृष्टि से उचित नहीं कही जा सकती.

चारित्र्यसंपन्न उम्मीदवार

श्री नीतीन गडकरी के पुन: अध्यक्ष पद पर आने की इस प्रक्रिया को लगे धब्बे के बारे में अधिक कुछ लिखना आवश्यक नहीं. श्री गडकरी पुन: तीन वर्ष के लिए अध्यक्ष पद पर बने रहेगे, यह अब, करीब करीब निश्‍चित है. यह अच्छी बात है. २०१४ का लोकसभा का चुनाव उनके कार्यकाल में होगा. वे किसी एक गुट से संलग्न न होने के कारण और उनका अपना भी कोई गुट न होने के कारण, उम्मीदवारों का चुनाव करते समय व्यक्तिनिष्ठा, गुटनिष्ठा की अपेेक्षा उनका चारित्र्य और उनकी पार्टीनिष्ठा को प्राधान्य रहेगा, ऐसी आशा है. २०१४ के चुनाव में उम्मीदवारों के चरित्र और चारित्र्य को, अन्य चुनावों की तुलना में अधिक महत्त्व रहेगा. श्री अण्णा हजारे, हाल ही में नागपुर आये थे; उस समय उन्होंने सार्वजनिक रूप में कहा कि, ‘‘अच्छे उम्मीदवार दो. हम उनका प्रचार करेंगे.’’ अण्णा के शब्द और कृति को वजन है, यह भूलना नहीं चाहिए. हम ऐसी भी आशा करे कि, भाजपा के उम्मीदवारों में युवा उम्मीदवारों की संख्या अच्छी रहेगी.

तीसरा मोर्चा?

 २०१४ के चुनाव में भाजपा को सत्ता में आने के लिए परिस्थिति अनुकूल होगी. आज की सत्तारूढ कॉंग्रेस पार्टी, भ्रष्टाचार, अकर्तव्यता और दिशाहिनता के आरोपों से ग्रस्त और त्रस्त है. महंगाई भी तेजी से बढ़ रही है. हाल ही में पेट्रोल की कीमत में की गई बड़ी वृद्धि के कारण कॉंग्रेस के विरुद्ध जनक्षोभ फूंट पड़ा है. आंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में रुपये का मूल्य, अभूतपूर्व कम हुआ है. कॉंग्रेस के लिए २०१४ का चुनाव जीतना या आज के समान दो सौ सिटें कायम रखना असंभव है. जनता को दूसरा विकल्प स्वीकारना ही होगा; और वह विकल्प भाजपा ही है. अखिल भारतीय स्तर पर अन्य पार्टियॉं नहीं है. वाम पार्टियों की स्थिति भी कमजोर हुई है. केरल और प. बंगाल इन दो राज्यों में उनकी सरकारे थी. वे दोनों राज्य उनके हाथों से निकल चुके है. केवल त्रिपुरा इस छोटे राज्य में उनकी सरकार है. वे तीसरा मोर्चा बनाने का प्रयास करेगे. लेकिन यह मोर्चा बनाना आसान नहीं है. प. बंगाल, ओडिशा, तामिलनाडु, पंजाब इन राज्यों में प्रादेशिक पार्टियॉं सत्ता में है. उनमें से कोई भी कम्युनिस्टों को अपने पास फटकने देने का विचार भी नहीं कर सकती. उत्तर प्रदेश में की समाजवादी पार्टी कॉंग्रेस की ओर मुडी दिखाई देती है. फिर शेष रहती है दो ही प्रबल प्रादेशिक पार्टियॉं. (१) मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और (२) चंद्राबाबू नायडू की तेलगू देसम् पार्टी. ये दोनों वाम दलों के साथ गये, तो भी वह मोर्चा मजबूत नहीं होता. लेकिन, तृणमूल कॉंग्रेस, बिजू जनता दल, अद्रमुक, बसपा, सपा, तेलगू देसम् यह पार्टियॉं, कॉंग्रेस और भाजपा इन दोनों को भी सत्ता से दूर रखने के इरादे से एक हुई, और उन्होंने सत्ता स्थापन करना तय किया, तो वाम पार्टियॉं उन्हें बाहर से समर्थन दे सकती है. ऐसा हमारे देश में इसके पहले हुआ है. १९८९ में विश्‍वनाथ प्रताप सिंग, १९९६ में देवेगौडा और १९९७ में इंद्रकुमार गुजराल की सरकारे गठबंधन की ही सरकारे थी. उन्हें अन्य पार्टियों ने बाहर से समर्थन दिया था. विश्‍वनाथ प्रताप सिंग की सरकार को तो भाजपा और वाम दलों का समर्थन था, तो देवेगौडा और गुजराल की सरकारों को कॉंग्रेस का समर्थन था. इनमें से एक सरकार में तो राईटिस्ट  कम्युनिस्ट पार्टी का एक मंत्री भी शामिल था. लेकिन इनमें की एक भी सरकार एक वर्ष से अधिक समय नहीं टिकी.

भाजपा ही विकल्प

यह बताने का प्रयोजन यह है कि, जनता स्थिर सरकार पसंद करेगी. और वह कॉंग्रेस पार्टी की नहीं होगी या तीसरे मोर्चे की भी नहीं होगी. मतलब भाजपा की ही होगी. यह सच है कि, इसमें भाजपा को मिलने वाले सकारात्मक मतों (Positive votes) के साथ नकारात्मक मतों (Negative votes) का प्रमाण भी लक्षणीय होगा. कॉंग्रेस नहीं फिर कोई भी चलेगा, इस मानसिकता में, बहुत बड़ी संख्या में भारत की जनता आई है. और उसकी पसंद भाजपा ही होगी. लेकिन ५४३ सदस्यों की लोकसभा में बहुमत के लिए २७२ सदस्यों की आवश्यकता होती है. भाजपा, अपने बुते पर उस संख्या तक पहुँचने की संभावना आज तो दिखाई नहीं देती. भाजपा के नेतृत्व में भी आज एक गठबंधन विद्यमान है. इस गठबंधन में जनता दल (युनाईटेड), शिरोमणी अकाली दल और शिवसेना शामिल है. एक समय इस गठबंधन में अद्रमुक, बिजू जनता दल और तृणमूल कॉंग्रेस भी शामिल थे या उनके करीब थे. वे पुन: भाजपा के नेतृत्व में के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) में आ सकते है. इससे, राजग की सत्ता में आने की संभावना और भी मजबूत होती है.

एक खतरा

लेकिन गठबंधन बनाते समय एक खतरा होता है. भाजपा अपनी विशेषता, अपनी अस्मिता और अपना अलग अस्तित्व खोने का खतरा है. १९९८ तक के चुनावों में भाजपा अपने घोषणापत्र पर चुनाव लढ़ती थी. लेकिन १९९९ का चुनाव, उसने राजग के घोषणापत्र पर लढ़ा. लाभ केवल दो सिटों का हुआ. १९९८ में १८० सिटें जीती थी, तो १९९९ में १८२. लेकिन इससे भाजपा का बुहत नुकसान हुआ. उसने अपना कार्यक्रम ही छोड दिया. जिस कार्यक्रम के आधार पर, उसे जिनके मत निश्‍चित मिलते थे, वे ही मतदाता तटस्थ बने. मुझे यह सूचित करना है कि, भाजपा को अपनी मूल ताकद कायम रखनी होगी, इसके लिए उसका अगल घोषणापत्र होना चाहिए. गठबंधन में की पार्टियों के साथ सिटों के बारे में समझौता करने में हरकत नहीं. लेकिन सिद्धांत और कार्यक्रमों के बारें समझौता नहीं होना चाहिए. १९९९ में भाजपा ने अपने मूल सिद्धांत छोड़ने का प्रमाद किया. इस कारण, पक्के तटस्थ हुए और पराए चंचल हाथ ही नहीं लगे. यह स्वाभाविक ही मानना चाहिए. एक सुभाषित यही बताता है :

                  यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवं हि निषेवते |
                  ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति अध्रुवं नष्टमेव च ॥

अर्थ : जो, जो निश्‍चित है उसका त्याग कर चंचल के पीछे लगता है, उसका निश्‍चित नष्ट होता है और चंचल तो हाथ ही नहीं लगता.

मूलभूत सिद्धांत

भाजपा का मूलभूत सिद्धांत हिंदुत्वका है. हिंदुत्व का व्यापक आशय, उसकी सर्वसमावेशकता, उसमें अध्याहृत विविधता का सम्मान, पंथ निरपेक्ष राज्यव्यवस्था का भरोसा, यह सब भाजपा को डंके की चोट परबताते आना चाहिए. एक बार नहीं बार बार. अपनी सही पहेचान बताई, तो तथाकथित अल्पसंख्य हमसे दूर जाएगे, यह भ्रम है. रा. स्व. संघ का अनुभव ऐसा नहीं. इस संदर्भ में, गोवा के नए मुख्यमंत्री मनोहर पर्रीकर का उदाहरण अपनाने जैसा है. इंडियन एक्सप्रेसने ली विस्तृत मुलाकात (दि. १३ मई २०१२) में एक प्रश्‍न के उत्तर में उन्होंने कहा कि, ‘‘मैं संघ से संबंधित हूँ. संघ ने मुझे अल्पसंख्यकों का द्वेष करना नहीं सिखाया. ...संघ ने मुझे जैसे अन्य धर्मों का आदर करना सिखाया, उसी प्रकार मेरे हिंदू होने का अभिमान धारण करना भी सिखाया. संघ के इन तत्त्वों पर मेरा विश्‍वास है.’’
''I am from the RSS and it did not teach me hatred for minorities. RSS taught me to respect other religions but to be proud of being Hindu. I still believe in those principles.''
दूसरे एक प्रश्‍न के उत्तर में उन्होंने कहा, ‘‘हमने हमारी कृति से अल्पसंख्यकों के बीच विश्‍वास निर्माण किया. कॅथॉलिक ईसाईयों के साथ हमारे संबंध हरदम अच्छे रहे; और उनके साथ ही मुसलमानों में भी मेरे अनेक मित्र है.’’ भाजपा के केन्द्रीय नेताओं को भी ऐसी ठोस भूमिका सार्वजनिक रूप में लेते आनी चाहिए. व्यापक हिंदुत्व की यह भूमिका स्वीकार की तो फिर अपने आप जाति, पंथ, भाषा इत्यादि संकुचित निष्ठा छूट जाती है.

भाजपा का घोषणापत्र

भाजपा के घोषणापत्र में निम्न कुछ बातों का समावेश रहना चाहिए.
१) काश्मिरी पंडितों का पुनर्वसन.
२) जम्मू में के जिन नागरिकों को लोकसभा के लिए मताधिकार है, लेकिन राज्य विधानसभा के लिए वह अधिकार नहीं, उन्हें वह प्राप्त करा देना.
३) गंगा नदी प्रदूषणमुक्त करना.
४) सबके लिए विवाह और तलाक का समान कानून बनाना.
५) अयोध्या में राम-मंदिर बनाना.
६) आर्थिक अनुशासन लगाकर अर्थव्यवस्था पटरी पर लाने के उपाय बताना.

१९९९ से २००४ इन पॉंच वर्षों के अपने कार्यकाल में, भाजपा के नेतृत्व में के राजग ने, पहले दो मुद्दों की ओर अक्षम्य दुर्लक्ष किया. उस समय जम्मू-काश्मीर में सत्तारूढ नॅशनल कॉन्फरन्स, राजग की घटक पार्टी थी. उस पार्टी का प्रतिनिधि केन्द्रीय मंत्रिमंडल में समाविष्ठ था. फिर भी राजग यह दो प्रश्‍न हल नहीं कर पाया, इतना ही नही, वह उसके लिए प्रयास करते भी नहीं दिखा, इसका आश्‍चर्य है. लाहोर को बस लेकर जाने की अपेक्षा यह प्रश्‍न निश्‍चित ही अधिक महत्त्व के थे.

भाजपा के घोषणापत्र में, समान नागरी कानून का मुद्दा रहता था. १९९९ के घोषणापत्र में वह गायब था. संपूर्ण नागरी कानून फिलहाल बाजू में रख दे. लेकिन कम से कम, सबके लिए विवाह और तलाक का समान कानून बनाया ही जाना चाहिए. इसमें कोई सांप्रदायिकता नहीं. हमारे संविधान की धारा ४४ ने ही यह जिम्मेदारी राज्यों पर सौपी है. मेरा विश्‍वास है कि, शिक्षित मुस्लिम और ईसाई महिलाओं के भी भाजपा को बड़ी संख्या में मत मिलेंगे. अयोध्या के राम-मंदिर का प्रश्‍न, अलाहबाद उच्च न्यायालय के फै सले से आसान बन गया है. मुसलमान समाज के नेताओं के साथ संवाद साधकर मसजिद के लिए अन्यत्र जगह देने का प्रस्ताव उपयुक्त सिद्ध होगा.

किमत चुकाने की तैयारी

कोई प्रश्‍न करेगा कि, भाजपा को अपने बुते पर पूर्ण बहुमत नहीं मिला और उसे अन्य पाटिर्यो की मदत लेनी पड़ी और उन्हें यह मुद्दे मान्य नहीं होगे तो क्या करे? मुझे लगता है कि भाजपा अपने मुद्दों पर दृढ रहे. सरकार नहीं बना पाए तो भी चलेगा. दुसरे किसी की सरकार बनी, तो भी वह नहीं टिकेगी. पुन: चुनाव की नौबत आई, तो सत्ता के मोह में न पड़कर, सत्तात्याग की कीमत देकर भी, अपने मूलभूत सिद्धांतों पर दृढ रहे भाजपा को पहले से भी अधिक सिटें मिलेगी. जो अपने शुद्ध आचरण के लिए किमत चुकाते है, वे ही किसी भी जीवन-मूल्य की प्रतिष्ठापना करते है यह सार्वत्रिक अनुभव है. हमें मूल्यनिष्ठ भाजपा चाहिए. गंगा गये गंगादास, जमुना गये जमुनादास - ऐसी बेहुदी राजनीतिक पार्टी किस काम की?

- मा. गो. वैद्य
babujivaidya@gmail.com
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)                     
              

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