Monday 16 April 2012

अल्पसंख्यकों की शिक्षा संस्था मतलब क्या?


                   
शिक्षा के मूलभूत अधिकार के अंतर्गत, निजी शिक्षा संस्थाओं में भी कम से कम २५ प्रतिशत सिटें आर्थिक दृष्टि से पिछड़े गरीब विद्यार्थींयों के लिए आरक्षित करने के सरकारी कानून पर सर्वोच्च न्यायालय ने मुहर लगाई है, यह अच्छी बात है. जिन निजी शिक्षा संस्थाओं को, सरकारी अनुदान नहीं मिलता, उन्हें भी यह नियम लागू रहेगा. लेकिन, अल्पसंख्यकों की जो निजी संस्थाएँ हैं, उन्हें यह नियम लागू नहीं होगा, ऐसा सर्वोच्च न्यायालय कहता है. सर्वोच्च न्यायालय ऐसा भेदभाव क्यों करता है, इसका स्पष्टीकरण, दुर्भाग्य से, सर्वोच्च न्यायालय नहीं देता.

द्वैधीभाव का शिकार

सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय एकमत से नहीं हुआ. दो विरुद्ध एक - ऐसे बहुमत से हुआ है. मुख्य न्यायाधीश न्या. मू. श्री कापडिया और न्या. मू. श्री स्वतंत्रकुमार के बहुमत ने यह निर्णय दिया है; तो न्या. मू. श्री राधाकृष्णन् का मत अलग है. वे कहते है कि, सरकारी अनुदान प्राप्त करनेवाली शालाओं के बारे में, बहुसंख्यकों की शाला और अल्पसंख्यकों की शाला, ऐसा भेद करने का कारण नहीं. न्या. मू. राधाकृष्णन् का यह अभिप्राय सब न्यायमूर्तियों ने ध्यान में लेना चाहिए था. राजनीतिज्ञ और सियासी पार्टिंयॉं, अपनी वोट बँक निर्माण करने के लिए और उन्हें सुरक्षित रखने के लिए सदैव, बहुसंख्य और अल्पसंख्य ऐसा द्वैत स्वीकारती है. हमारी ऐसी कल्पना थी कि, कम से कम सर्वोच्च न्यायालय तो इस द्वैधी-भाव से अलिप्त रहेगा. लेकिन खेद के साथ कहना पड़ता है कि, सर्वोच्च न्यायालय ने, हमारी निराशा की. अल्पसंख्य-बहुसंख्य इस द्वैत से वे भी स्वयं को मुक्त नहीं कर सके.

धारा ३० की भावना

कोई कहेगा कि संविधान की धारा ३० ने ही यह द्वैत निर्माण किया है. उस धारा के केवल शब्द ही पढ़े और उनके पीछे की भावना ध्यान में ली, तो ही ऐसे प्रश्न का औचित्य रहेगा. लेकिन शब्दों की अपेक्षा भावना का महत्त्व अधिक होता है! क्या शब्द है धारा ३० के : ‘‘सब अल्पसंख्यकों को, फिर वे धर्म के आधार पर हो या भाषा के, अपने पसंद की शिक्षा संस्था स्थापन करने का और उनका प्रशासन चलाने का अधिकार होगा.’’ मूल अंग्रेजी शब्द है - "All minorities, whether based on religion or language, shall have the right to establish and administer educational institutions of their choice."
हमारे संविधान की धारा १४, १५ और १९ ने सब को समान अधिकार दिए होने के बावजूद, जब धारा ३० को संविधान में अंतर्भूत किया गया है, तब उसका विशेष प्रयोजन ध्यान में लेना ही चाहिए. वह प्रयोजन इस प्रकार कि, बहुसंख्यकों की ओर से सामान्यत:, अल्पसंख्यक लोगों के धर्म कोई एखाद भाषा बोलने वाले अल्पसंख्य लोगों के शैक्षणिक हित का संरक्षण नहीं हो सकेगा. इसलिए उन्हें उनकी पसंद की शिक्षा संस्थाएँ स्थापन करने का और उनका संचालन करने का विशेष अधिकार दिया है.

भाषिक अल्पसंख्यक

कुछ समय के लिए हम मान लेते है कि, यह ठीक है. लेकिन अल्पसंख्यक भाषिकों को या अल्पसंख्यक संप्रदायों को यह अधिकार क्यों दिया गया और उस अधिकार की मर्यादा क्या है? अल्पसंख्यक भाषिकों का मुद्दा समझना आसान है. इसलिए पहले उसका विचार करें. मैं मराठी भाषी हूँ. और मुझे दिल्ली या लखनऊ में शाला निकालनी है. संविधान की धारा ३० के अनुसार मुझे वह अधिकार है और उसके लिए मुझे वहॉं के सरकार की अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं. लेकिन यह शाला किसके लिए? –अर्थात्, मराठी भाषी बच्चों के लिए. यह सहज ही समझने जैसा है. मैं शाला निकालूंगा; और उस शाला में मराठी भाषिकों के पाल्यों को ही प्रवेश दूंगा और मेरी सदसद्विवेक बुद्धि के अनुसार उस शाला का संचालन करूंगा. और अनुदान के बारे में सरकार भेदभाव नहीं करेगी. यह अच्छी बात है. लेकिन, कल्पना करे कि, मैंने मराठी भाषिक ने दिल्ली या लखनऊ में शाला निकाली, और उस शाला में मैं अन्य भाषिकों को - हम ऐसा मान ले कि उन शहरों की हिंदी यह जो मुख्य भाषा है, वह भाषा बोलनेवालों को - प्रवेश दूंगा और हिंदी भाषी विद्यार्थींयों की संख्या मराठी भाषी विद्यार्थिंयों की संख्या से भी अधिक होगी, तो भी मेरी शाला अल्पसंख्यकों की संस्था सिद्ध होगी? संविधान के शब्द इस बारे में मौन है. लेकिन उन शब्दों के पीछे की भावना क्या है? भावना यह है कि, मराठी भाषी अल्पसंख्यकों के बच्चों को असुविधा हो, उन्हें अपनी भाषा में पढ़ने का मौका मिले, इसलिए यह प्रावधान है. लेकिन यह भावना अलग रखकर, व्यापारी दृष्टि से कहे या अन्य किसी दृष्टि से कहे, मैं, अल्पसंख्य मराठी आदमी, अपनी शाला सब के लिए खुली करूंगा, तो वह संस्था अल्पसंख्यकों की कैसे हुई? उसे सर्वसामान्य शाला के अनुसार नियम क्यों नहीं लागू किए जाने चाहिए? वहॉं सेवा ज्येष्ठता के अनुसार मुख्याध्यापक क्यों नियुक्त नहीं होना चाहिए? वहॉं अनुसूचित जाति (एस. सी.) और अनुसूचित जनजाति (एस. टी.) के लिए, अन्यत्र जारी आरक्षण अनिवार्य क्यों नहीं होना चाहिए?
मैं यह कोई काल्पनिक प्रश्न नहीं उपस्थित कर रहा हूँ. नागपुर के करीब अमरावती शहर में मणिभाई गुजराती हायस्कूल है. नाम से ही स्पष्ट है कि, उस शाला की स्थापना हमारे गुजराती बंधुओं ने की है. लेकिन उस शाला में गुजराती भाषी विद्यार्थींयों की तुलना में मराठी भाषी विद्यार्थींयों की संख्या बहुत अधिक है. शाला अच्छी है और विख्यात भी. इसी कारण मराठी भाषी विद्यार्थी उसकी ओर आकृष्ट होते है. मेरा प्रश्न यह है कि, इस शाला का मुख्याध्यापक गुजराती ही क्यों हो? करीब बीस वर्ष पूर्व, उस शाला के एक सेवा ज्येष्ठ शिक्षक से मैंने पूछा था कि, आप मुख्याध्यापक क्यों नहीं बने; तो उनका उत्तर था, ‘‘कारण मैं गुजराती नहीं हूँ.’’ आज परिस्थिति बदली होगी, तो मैं मेरा संपूर्ण निवेदन, संस्था की क्षमा मांगकर वापस लूंगा.

धार्मिक अल्पसंख्यकत्व

अब धार्मिक अल्पसंख्यकों की शिक्षा संस्था का उदाहरण देखें. हिस्लॉप कॉलेज, यह नागपुर का सबसे पुराना और विख्यात कॉलेज है. इस कॉलेज में मैंने १७ वर्ष नौकरी की है. यह कॉलेज चर्च ऑफ स्कॉटलंडइस मिशनरी संस्था ने शुरू किया है. यह प्रॉटेस्टंट पंथीय चर्च है. लेकिन वहॉं सब को प्रवेश है. इतना ही नहीं, वहॉं ईसाई धर्मीय विद्यार्थींयों की संख्या दस प्रतिशत भी नहीं होगी. किस अर्थ से इसे अल्पसंख्यक संस्था माने? इस संस्था को सरकारी अनुदान भी नियमानुसार मिलता है. लेकिन सरकार के अन्य संस्थाओं को लागू होने वाले नियम उसे लागू नहीं है. प्राध्यापकों में अनुसूचित जाति या जनजाति के लिए आरक्षण नहीं. ईसाई के अलावा कोई भी अन्य व्यक्ति वहॉं प्राचार्यपद पर आरूढ नहीं हुआ है. यह सच है कि स्थायी प्राचार्य छुट्टी पर जाने पर, एक-दो माह के लिए कार्यवाहक प्राचार्य (acting Principal) इस  नाते ईसाईयों के अतिरिक्त अन्य व्यक्ति ने काम देखा है. लेकिन स्थायी पद पर, ईसाई व्यक्ति ही रही है. प्राचार्यपद के लिए विज्ञापन देते समय, केवल ईसाई व्यक्ति ही आवेदन करें, ऐसा स्पष्ट लिखने में भी उन्हें संकोच नहीं हुआ था. पता चला है कि अब वे विज्ञापन में ऐसा उल्लेख नहीं करते. लेकिन चुनाव ईसाई व्यक्ति का ही होता है. किस अर्थ में, ‘हिस्लॉप कॉलेजप्रॉटेस्टंट ईसाई अल्पसंख्यकों ने अपने संप्रदाय के (denomination) विद्यार्थींयों के हित के लिए, स्थापन किया है और उसका संचालन किया जा रहा है, ऐसा माने?

मैंने मेरी जानकारी में के उदाहरण दिए है. महाराष्ट्र में, तथा अन्य राज्यों में भी यही परिस्थिति होगी. इसलिए मुझे सूचित करना है कि, इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय में सार्वजनिक हित की याचिका दाखिल की जानी चाहिए. और उनसे धारा ३० की व्यापकता का अर्थ निश्चित कर लेना चाहिए. यह संभव नहीं होगा तो धारा ३० में थोडा संशोधन किया जाना चाहिए. एक परंतुक उसे जोडा जाय और ऐसा स्पष्ट किया जाय कि, "Provided those institutions are meant for the students of their religious denomination or their language." इस परंतुक से दो बातें हासिल होगी. () मैं मराठी आदमी दिल्ली में मराठी भाषिक विद्यार्थींयों के लिए शाला शुरू कर सकूंगा और () मैं प्रोटेस्टंट, कॅथॉलिक, शिया, सुन्नी या अन्य - संप्रदाय विशेष की व्यक्ति, अपने संप्रदाय के विद्यार्थींयों के लिए शिक्षा संस्था शुरू कर सकूंगा और उनका संचालन भी कर सकूंगा. और अन्य सब संस्थाओं में, फिर वह बहुसंख्यकों द्वारा स्थापित हो या अल्पसंख्यकों द्वारा - यदि सब भाषिक या संप्रदाय के विद्यार्थींयों को प्रवेश दिया जाता होगा तो उन्हें सब सरकारी सर्वसाधारण नियम लागू रहेंगे. कल-परसों के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने, मिशनरियों ने स्थापन किये कॉन्व्हेंट्स या अन्य व्यावसायिक शिक्षा संस्थाओं को, कानून की परिधी से बचने की जो व्यवस्था की है, और बहुसंख्यक होना मतलब मानो कोई एक अपराध है ऐसी भावना निर्माण होने जैसी परिस्थिति निर्माण की है, वह दूर होगी. कानून, सब के लिए समान है, कम से कम भाषा-भाषाओं में और संप्रदाय-संप्रदाय में भेद करनेवाला नहीं, ऐसी एक निरामय भावना सर्वसामान्य जनता के बीच निर्माण होगी. क्या कभी सर्वोच्च न्यायालय ऐसा निर्णय देगा? किसी ने तो वह निर्णय देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को प्रवृत्त करना चाहिए.

- मा. गो. वैद्य
अनुवाद : विकास कुलकर्णी             
         

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