Saturday 10 March 2012

राज्य विभधानसभाओं के चुनाव और अ. भा. राजनीतिक पार्टियाँ


पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर, गोवा और उत्तर प्रदेश इन पाँच राज्यों के विधानसभाओं के चुनाव हालही में संपन्न हुए और ६ मार्च को उनके परिणाम भी घोषित हुए। इन चुनावों में प्रदोशिक पार्टियों ने नाम कमाया, तो अखिल भारतीय पार्टियों को गर्दन झुकानी पड़ी।

पंजाब में निराशा

इन पाँच राज्यों में से, पंजाब और उत्तर प्रदेश के चुनावों की ओर सारे भारत की नज़रें लगी थी। पंजाब में शिरोमणी अकाली दल और भारतीय जनता पार्टी की सत्ता गत पाँच वर्ष थी। सामान्यतः लोग नया विकल्प चुनते है, प्रस्थापित के विरुद्ध जनमत (anti incumbency factor) रहता है, ऐसा माना जाता है। इस कारण पंजाब में काँग्रेस सत्ता में आएगी, ऐसा अंदाजा लगाया जा रहा था। काँग्रेस को तो यह विश्वास था। इसलिए, अन्यत्र जो किसी भी राज्य में हुआ नहीं, वह काँग्रेस ने पंजाब में उद्‌घोषित किया। चुनाव प्रचार के दौरान ही काँग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने कॅप्टन अमरेन्द्र सिंह पंजाब के मुख्यमंत्री बनेंगे, ऐसा घोषित किया। लेकिन मतदाताओं ने काँग्रेस को निराश किया। पंजाब में पुनः अकाली-भाजपा गठबंधन सत्ता में आया। इसमें भाजपा का खास गौरव नहीं। वर्ष २००७ में, उसके १९ विधायक थे। यह संख्या घटकर १२ हो गई है। अकाली दल को ५६ सिटें मिली, तो भाजपा को १२।


काँग्रेस की फजीहत

लेकिन ११७ सदस्यों के पंजाब के चुनाव को जितना महत्त्व नहीं था, उससे कई गुना अधिक महत्त्व उत्तर प्रदेश में के चुनाव को था। वहाँ ४०३ मतदारसंघ है। यह संख्या भारतीय राजनीति को प्रभावित करनेवाली है। १८ प्रतिशत से अधिक सांसद उ. प्र. से लोकसभा में जाते है। हमारे महाराष्ट्र की तुलना में विचार करे तो, उ. प्र. के विधानसभा में ४८६ विधायक होते है। मध्य प्रदेश का पैमाना लगाया गया तो यह संख्या ६४८ होती। ऐसा यह प्रचंड संख्या का एक विशाल घटक राज्य है। 
इस समय, यहाँ उत्सुकता का कारण था काँग्रेस के प्रधानमंत्रीपद के भावी प्रत्याशी राहुल गांधी ने यहाँ किया धुवाँधार प्रचार। उन्होंने उद्‌बोधित चुनाव प्रचार सभाओं की संख्या दो सौ से अधिक थी। उ. प्र. में पुनश्च काँग्रेस की जड़े जमाने के लिए उन्होंने ऐड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। दलितों के घर भोजन किया। झोपडपट्टीवालों के घर मुक्काम किया। शायद यह सब नाटक कम हुए इसलिए, मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने के लिए, संविधान-विरोधी होने के बावजूद, मुस्लिमों को ओबीसी के कोटे में ४॥ प्रतिशत आरक्षण देने की अधिकृत घोषणा भी की। फिर भी कोई कमी नहीं रहनी चाहिए इसलिए काँग्रेस के अन्य बडबोले राष्ट्रीय सचिव दिग्विजय सिंह ने दिल्ली में का बाटला हाऊस प्रकरण उकेरा। इतने से भी समाधान होकर, मुस्लिम मत काँग्रेस की ओर नहीं मुड़ेंगे, इसलिए केन्द्र सरकार में के दो ज्येष्ठ मंत्री सलमान खुर्शीद और बेनीप्रसाद वर्मा ने चुनाव आयोग को ठेंगा दिखाते हुए और अपने पद का मग्रुरता पूर्ण उपयोग करते हुए मुस्लिमों के लिए ९ प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की। वह भी योजनाबद्ध रीति से। प्रथम खुर्शीद ने और फिर वर्मा जी ने। पहले एक ने चुनाव आयोग की माफी मांगी, फिर दूसरे ने। जाटों के मत हासिल करने के लिए चौधरी चरणसिंह के पुत्र अजित सिंह के राष्ट्रीय लोक दल के साथ मित्रता की। अजित सिंह को केन्द्रीय मंत्रिमंडल में मंत्रिपद की घूस भी दी गई। लेकिन इतना करने के बाद भी जो फजीहत होनी थी वह टली नहीं।


कुछ ठोस बातें

कुछ ठोस बातें ध्यान में लेने जैसी है। भट्टापरसौल गाँव में, आंदोलन करनेवाले किसानों पर मायावती सरकार ने बलप्रयोग कर गोलियाँ दागी। कुछ किसान उसमें मारे गये थे। उन किसानों के बचाव में राहुल गांधी वहाँ दौडकर गये। इस बात को खूब उछाला गया। लेकिन उसका उपयोग नहीं हुआ। भट्टापरसौल जिस मतदारसंघ में आता है, उस मतदारसंघ में काँग्रेस का प्रत्याशी ९ हजार मतों से हारा। आझमगढ़ मतलब कट्टर मुस्लिमों का गढ़। वहाँ सलमान खुर्शीद ने निवेदन किया कि, बाटला हाऊस में के संघर्ष के फोटो देखकर (मतलब उनकी ही सरकार ने किये गोलीबारी के फोटो देखकर) सोनिया गांधी फूँट-फूँट कर रोई थी। उस आझमगढ़ जिले में की विधानसभा की १० सीटों में से एक भी सीट काँग्रेस जीत नहीं पाई। १० में ९ सीटों पर समाजवादी पार्टी जीती। फर्रुखाबाद में खुर्शीद की पत्नी खड़ी थी। वहीं, चुनाव आयोग को धतुरा दिखाते हुए, केन्द्र के इस जिम्मेदार (?) मंत्री ने मुस्लिमों के लिए डंके की चोट पर ९ प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा की थी। श्रीमती खुर्शीद चुनाव हार गई। श्री प्रकाश जयस्वाल, यह और एक केन्द्रीय मंत्री। उन्होंने उ. प्र. के मतदाताओं को भय दिखाया कि, काँग्रेस को बहुमत नहीं मिला, तो यहाँ किसी का भी राज नहीं आने देंगे; राष्ट्रपति शासन लगेगा। जिस कानपुर शहर में मस्तवाल जयस्वाल ने यह धमकी दी, वहाँ पाँच सीटों में से ३ भाजपा ने, १ सपा ने, तो एक काँग्रेस ने जीती। काँग्रेस, और सही में तो राहुल गांधी की इस प्रकार फजीहत हुई। गत वर्ष बिहार विधानसभा के चुनाव का नेतृत्व राहुल गांधी ने अपने हाथ में लिया था। वहाँ भी उनकी ऐसी ही फजीहत हुई थी। वहाँ काँग्रेस केवल चार सीट जीत सकी। उनमें के तीन विधायक मुस्लिम थे।

... आनंद नहीं

लेकिन काँग्रेस का यह आत्मविश्वास अकारण नहीं था। २००७ में हुए विधानसभा के चुनाव में काँग्रेस केवल २१ सीटें ही जीत पाई थी (इस बार २८ जीती है) लेकिन दो वर्ष बाद हुए लोकसभा के चुनाव में उसने २२  सीटें जीती थी। इस बार उन्हें ९५ विधानसभा मतदारसंघों में बढ़त मिली थी। इस कारण, हम कम से कम १५० का आँकड़ा पार करेंगे, ऐसा उन्हें लगा होगा तो वह अस्वाभाविक नहीं। लेकिन ऐसा हुआ नहीं, यह वस्तुस्थिति है। मुझे व्यक्तिशः काँग्रेस के इस दारूण पराभव से आनंद नहीं हुआ। दुःख ही हुआ। इसकी मीमांसा मैं इसी लेख में आगे करूंगा।

भाजपा पिछड़ी

दूसरी अ. भा. राजनीतिक पार्टी मतलब भाजपा। उसे भी चुनाव के इन परिणामों ने गौरान्वित किया, ऐसा नहीं कहा जा सकता। गोवा में उसने काँग्रेस से सत्ता छीनी, यह अच्छा हुआ। लेकिन उसके साथ ही उत्तराखंड की सत्ता गवाँई है। और उत्तर प्रदेश में भी वह अकल्पित रूप में पिछड़ी है। २००७ में उसने ५१ सीटें जीती थी। वह आँकड़ा कम होकर ४७ पर आया है। इस चुनाव में वह कम से कम ७०  सीटें जितेंगी, ऐसा जानकार मानते थे। कुछ उत्साही कार्यकर्तांओं ने, हम १५० का आँकड़ा निश्चित छूऐंगे, ऐसा मुझे दूरध्वनि पर बताया था। लेकिन वह सब निरर्थक सिद्ध हुआ। पंजाब में वह फिर सत्ता में आई है, लेकिन उसका श्रेयभाग बहुत अधिक नहीं। उसकी शक्ति क्षीण हुई है। श्रेय अकाली दल को है। इन दोनों अखिल भारतीय पार्टिंयों के पिछड़ने से मैं चिंतित हु।



चिंता का कारण


मुझे, इन दोनों पर्टिंयों के पिछड़ने ने चिंतित किया है। प्रादेशिक पार्टिंयों के विरोध में मुझे बोलना नहीं है। लेकिन, उनकी राजनीतिक दृष्टि विशिष्ठ मर्यादा में सिकुड़ी रहती है। शिरोमणी अकाली दल पंजाब के बाहर देखता नहीं। मुलायम सिंह और मायावती को उ. प्र. ने मर्यादित किया है। नीतीश कुमार पहले बिहार का ही देखेंगे, फिर देश का। ममता बॅनर्जी भी ऐसे ही पश्चिम बंगाल तक। नवीन पटनाईक ओरिसा के बाहर शून्य है, तो जयललिता हो या करूणानिधि तामिलनाडु तक ही। चंद्राबाबू की पार्टी का नाम ही तेलगू देसम्‌ पार्टी। उनका देश 'तेलगू' तक ही। और शरद पवार को खूब व्यापकता अर्पण की, तो भी उनके सामने नित्य महाराष्ट्र और मराठा समाज ही रहेगा। मूलभूत रूप में संपूर्ण देश का विचार जो कर सकती है, ऐसी दो ही पार्टिंयाँ बचती है (१) काँग्रेस और (२) भाजपा। कम्युनिस्ट पार्टी को भी अखिल भारतीय दृष्टि है। लेकिन आज की परिस्थिति में वे अपनी साख कैसे बचाएँ इसी चिंता में डूबी है। इसलिए यहाँ दो ही पार्टींयों का विचार प्रस्तुत है।


काँग्रेस

पहले काँग्रेस पार्टी। १२५ वर्षों से भी पुरानी पार्टी। उसे स्वाधीनता संग्राम का गौरवशाली इतिहास मिला है। नेहरू, सरदार पटेल, राजेन्द्र प्रसाद, राजगोपालाचारी, आचार्य कृपलानी जैसे भिन्न स्वभाव प्रकृति के श्रेष्ट विचारवंतों को समालेनेवाली। आज उसकी स्थिति क्या है? वह पार्टी का अस्तित्व ही खो चुकी है। एक टोली (गँग) बन गई है। लुटेरों के जमावडे जैसी उनकी स्थिति है। कुछ प्रकरण देखें। बोफोर्स का भ्रष्टाचार। प्रत्यक्ष प्रधानमंत्री का उसमें सहभाग। इस व्यवहार में का दलाल, कात्रोची, उसका सुरक्षित पलायन, उसकी अवैध संपत्ति उसे उपभोगने देने के लिए दी गई छूट और उसे पकड़ने में की गई टालाटाल। २ जी स्पेक्ट्रम मामला तो इतना ताजा है कि, उसकी पुनरावृत्ति करने का कारण ही नहीं। पौने दो लाख करोड यह कोई छोटी-मोटी राशि नहीं। अकेले राजा की इतनी पचन-शक्ति ही नहीं कि, वह उसे पचा पाएगा। फिर आया राष्ट्रकुल क्रीडा घोटाला। काँग्रेस के सांसद ही उसके सरदार! फिर 'आदर्श' घोटाला। युद्ध में के शहिदों के लिए बनाई योजना काँग्रेस के ही नेताओं ने निगल ली। लेकिन क्या इसकी किसे लज्जा या  पश्चाताप? नाम न ले! फिर टोली में इससे अलग क्या होता है? स्थानिक लुटेरें लूटते हैं और ऊपर के सरदार को उसका हिस्सा देकर खूष रखते है, काम बन जाता है। दोनों का, लुटेरों का और लुटेरों के सरदार का। सुब्रमण्यम स्वामी जो कहते है कि, २ जी स्पेक्ट्रम की लूट, काँग्रेस के हायकमांड तक गई है, वह झूठ नहीं होगा। चिदम्बरम्‌ साहब इसका खुलासा करेंगे? कोई आशा नहीं! इस घोटाले में कोई नुकसान हुआ ही नहीं, ऐसा कहनेवाले बेशर्म मंत्री उनके और प्रधानमंत्री के साथ एक ही कतार में बैठते होगे, तो इससे अलग परिणाम असंभव है।


'ग्रासरूट' काँग्रेस

आज की काँग्रेस पार्टी के पास अपना तत्त्वज्ञान (फिलॉसॉफी) ही शेष बचा नहीं। पहले गांधीवाद था। सर्वोदय था। फिर समाजवाद आया। आज यह सब कालकवलित हुआ है। फिर काँग्रेस का मूलभूत तात्त्विक आधार क्या है? कुछ भी नहीं। गरीबी हटाव की आकर्षक रणनीति समाप्त हो चुकी है। भ्रष्टाचार निर्मूलन का मुद्दा काँग्रेस उठा ही नहीं सकती। इस पर उपाय? है। प्रथम वह सोनिया गांधी और उनके परिवार तथा चौकडी की जकड से बाहर निकले। राहुल गांधी में साहस है। पार्टी को उसका लाभ भी हो सकता है। लेकिन उनमें यह साहस ग्रासरूट स्तर पर काम करने से नहीं आया। वह पारिवारिक बिरासत से निर्माण हुआ है। उनके मातोश्री की जड़े ही इस भूमि में नहीं जमी है। जैसे ऍनी बेझंट या मार्गारेट नोबेल (भगिनी निवेदिता) की थी। स्वास्थ की नियमित जाँच के लिए उन्हें अमेरिका भागना पड़ता है, वे इस भूमि से कैसे प्रमाणिक रह सकती है। ममता बॅनर्जी ने यह समझा था। इसलिए उहोंने अपनी पार्टी का नाम 'तृणमूल काँग्रेस' रखा। तृणमूल मतलब ग्रासरूट काँग्रेस। विद्यमान सोनिया काँग्रेस को 'रूट' ही नहीं है। सारांश यह कि, इस गांधी परिवार की पारिवारिक जकड से बाहर निकलने की हिंमत रखनेवाला / या रखनेवाले नेता, काँग्रेस में से ही आने चाहिए। कौन ऐसी हिंमत दिखा सकेंगा यह कहना कठिन है। लेकिन कॅप्टन अमरेन्द्र सिंह या कर्नाटक के मोईली ऐसी हिंमत कर सकते है। शायद राजस्थान के गहलोत भी उनका साथ देंगे। इन नेताओं या इस प्रकार के नेताओं के साहस को प्रतिसाद मिल सकता है, ऐसा मुझे लगता है।


समझौता काफी नहीं

लेकिन प्रश्न केवल साहस का नहीं। जीवन-दृष्टि (फिलॉसॉफी) का भी है; और उसके साथ राजनीति में नैतिकता पालने की नीति और कृति का भी है। इस दृष्टि से गहराई से मूलगामी चिंतन की आवश्यकता होगी। केवल समझौता काफी नहीं। वैसे अरुण नेहरु समझौते के काम में लग गए है। ममता बॅनर्जी, नवीन पटनाईक, चंद्राबाबू नायडू, जयललिता के साथ उन्होंने संपर्क आरंभ कर दिया है। लेकिन यह हुआ एक गठबंधन। एक मोर्चा। इसमें मौलिकता हो ही नहीं सकती। बहुत दूर का विचार भी असंभव ही है। यह गठबंधन २०१४ तक अस्तित्व में आ भी सकेंगा। लेकिन उसके बाद क्या? क्या २०१४ में भारत समाप्त होगा?
थोडा हमारा इतिहास याद करें। महमद घोरी आया, उस समय भी हमारे राज्य थे ही। लेकिन किसे भी अखिल भारतीय दृष्टि नहीं थी। बाबर आक्रमक बनकर आया। केवल राजपुत उसके विरुद्ध लड़े। शेष भारत तटस्थ! उसने अयोध्या में का राम मंदिर गिराया, वहाँ मसजिद बांधी। कोई प्रतिक्रिया प्रकट हुई भारतवर्ष में? बखत्यार खिलजी ने नालंदा का विश्व विद्यालय जलाया। छः माह तक वह जल रहा था। क्या शेष भारत में गुस्से की आग भडकी? फिर वहाँ आक्रमक मुसलमानों का राज्य स्थिर हुआ, तो आश्चर्य कैसा? यही अंग्रेजों के बारे में हुआ। इस सब अंधेरे में चमकने वाला तारा था केवल शिवाजी शहाजी भोसले। वे जान की बाजी लगाकर दिल्ली तक पहुँचे। लेकिन उनके बाद? फिर अंधेरा। अब्दाली के विरुद्ध शिंदे लड़ रहे थे, तब होळकर तटस्थ। पेशवा, अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा खड़ा कर रहे थे तब नागपुर के भोसले अंग्रेजों के खेमें में। राष्ट्रीय दृष्टि का इतना लज्जास्पद अभाव था कि, पेशवापद प्राप्त करने के लिए पराक्रमी राघोबा अंग्रेजों की शरण गया! इसलिए मुलायम या ममता, जयललिता या नवीन पटनाईक अथवा चंद्राबाबू नायडू या शरद पवार की योग्यता के संबंध में मुझे प्रश्न उपस्थित नहीं करना है। उनकी प्रादेशिक और अस्मितादर्शक मर्यादाएँ मुझे स्पष्ट करनी है।


और भाजपा

भाजपा भाग्यशाली है। उसकी स्थापना के समय से उसे व्यापक हिंदुत्व का आधार प्राप्त हुआ है। हिंदुत्व का यह व्यापकत्व राष्ट्रीयत्व के समकक्ष है और वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने जन्म के समय से अधोरेखित किया है। उसने हिंदुओं के संगठन का बीडा उठाया है। लेकिन उसका नाम 'हिंदू स्वयंसेवक संघ' नहीं रखा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नाम है। वहाँ किसी व्यक्ति की जयकार नहीं। 'भारत माता की जय' है। इसका मर्म संघ के साथ अपना रिश्ता बतानेवाले और अन्य ने भी ध्यान में लेना आवश्यक है।
'हिंदू' इस नाम में कोई गौणता नहीं। संकुचितता नहीं। एक पुरानी घटना बताने जैसी है। जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने हिंदू महासभा और जनसंघ के बीच का भेद स्पष्ट करते हुए, हिंदू महासभा केवल हिंदुओं का विचार करती है, तो जनसंघ में अन्य धर्मीयों का भी समावेश है, इसलिए हिंदू महासभा सांप्रदायिक है, और जनसंघ राष्ट्रीय है, ऐसा वक्तव्य किया था। इस पर तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी ने जताया था कि, आपके मतानुसार संघ भी सांप्रदायिक सिद्ध होता है। कारण वह भी हिंदूओं की ही बात करता है। ऐसे संघ के साथ आपने संबंध रखने का कारण नहीं। जनसंघ में से ही भाजपा का अवतार हुआ। लेकिन भाजपा के नेताओं को न सही तरीके से हिंदुत्व की व्यापकता समझ आई न उसका अभिमान प्रतीत हुआ। इसलिए स्थापना समय की उसकी घोषणा हिंदू राष्ट्र की नहीं थी; गांधीवादी समाजवाद की थी। १९८४ के चुनाव में की दुर्दशा देखकर अकल ठिकाने आई और फिर हिंदुत्व का स्मरण हुआ। अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण करने के उद्देश्य से भाजपा के नेता लालकृष्ण अडवाणी ने रथयात्रा निकाली। उसके उत्साहवर्धक परिणाम भी चुनाव में दिखे। उ. प्र. में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिला। उसके बाद ६ दिसंबर १९९२ में बाबरी ढ़ाँचा गिराया गया। उसका दुःख अभी तक अडवाणी जी को है। 'मेरे जीवन में का अत्यंत विषादपूर्ण दिन' ऐसा उसका वर्णन वे करते है। उनके सामने यह प्रश्न क्यों नहीं निर्माण होता कि, अगर वह ढ़ाँचा नहीं गिरता, तो मंदिर कहाँ बनता? वह ढ़ाँचा गिरने के कारण ही वहाँ उत्खनन हो सका और प्राचीन मंदिर के अवशेष के सबूत मिल सके। अडवाणी जी जैसे बहुश्रुत व्यक्ति को तो तत्कालीन सरसंघचालक बाळासाहब देवरस जी, की उस पर की प्रतिक्रिया याद होगी। बाळासाहब ने कहा था, ''वह ढ़ाँचा गिराने की हमारी योजना नहीं थी। लेकिन उसके गिरने का हमें दुःख नहीं है। आक्रमण का और धार्मिक उद्दंडता का एक चिन्ह मिट गया, इसका हमें आनंद है।'' बाबरी ढ़ाँचा गिरने पर आँसू बहानेवाले और मातृभूमि के विभाजन के अपराधी बॅ. जिना के स्तुतिस्तोत्र गानेवाले अडवाणी हिंदुनिष्ठ पार्टी के नेता कैसे बन सकते है? क्या वे हिंदुओं के मत आकृष्ट कर सकते है? हालही में हुए चुनाव में अयोध्या मतदारसंघ में भाजपा का प्रत्याशी पराभूत हुआ, तो उसमें क्या आश्चर्य है?


भाजपा का लेखाजोखा

अपने ३०-३२ वर्ष की यात्रा में हिंदुत्व का शास्त्रशुद्ध विचार प्रस्तुत करने का प्रयास ही भाजपा ने नहीं किया। हिंदुत्व मतलब राष्ट्रीयत्व है। केवल एक धर्मसंप्रदाय नहीं, तो सर्वधर्मसंप्रदाय, सर्व विश्वास और सब प्रकार की श्रद्धा का समादर करनेवाला वह तत्त्व है, इस कारण ही यहाँ मुस्लिम हो या ईसाई या अन्य पंथ सबका समान आदर है, यह सही तरीके से बताया ही नहीं गया। पारसियों का ही उदाहरण देखें। वे उनकी मातृभूमि में - पर्शिया में - मतलब आज के इरान में क्यों नहीं रह सके? हिंदुस्थान में वे गत हजार वर्षों से सुरक्षित क्यों है? कारण हिंदुत्व है। पूरे यूरोप में ज्यू लोगों का उत्पीडन हुआ। वे भारत में सम्मानपूर्वक रहे, इसके लिए हिंदुत्व ही कारण है। भाजपा के नेताओं ने यह मौलिकता कभी अधोरेखित की ही नहीं। वे मन ही मन हिंदुत्व की संकुचितता का अपराधबोध अनुभव करते होंगे, ऐसा तर्क कोई करे, तो उसे कैसे दोष देंगे? १९९९ से २००४ यह छः वर्ष केन्द्र में भाजपा सत्ता में रही। उन्होंने हिंदुओं के लिए क्या और कितना किया, इसका हिसाब तो जनता ने लगाया ही होगा। संविधान की धारा ४४ के निर्देशानुसार समान नागरी कानून बनाने की दृष्टि से कदम क्यों नहीं उठाये गए? संपूर्ण कानून की बात छोड दे, कम से कम विवाह और तलाक के बारे में तो एखाद कदम आगे बढ़ाने में क्या हरकत थी? निर्वासित काश्मिरी पंडितों के पुनर्वसन के बारे में प्रयास क्यों नहीं किये गए? - ऐसे प्रश्न निश्चित ही हिंदू समाजमन को उद्वेलित और उद्वेगित ही करते होंगे या नहीं?


संगठन का महत्त्व

समाज संगठन का मंत्र जाननेवाली संघ के समान दूसरी संस्था दुनिया में अन्यत्र कही होगी ऐसा नहीं लगता। पार्टी का संगठन बांधते समय, इस तंत्र-मंत्र का प्रयोग भाजपा ने किया ऐसा न दिखा है और न देखा गया है। जनसंघ के समय संगठन मंत्री यह एक महत्त्व का पद  संगठन में था। पं. दीनदयाल उपाध्याय संगठन मंत्री थे; मध्य प्रदेश में कुशाभाऊ ठाकरे, महाराष्ट्र में रामभाऊ गोडबोले, आंध्र में गोपाल ठाकूर, बंगाल में रामप्रसाद दास इन संगठन मंत्रियो ने पार्टी संगठन बांधा। लेकिन ऐसा अनुभव किया गया कि, इन पदों के कारण पार्टी के श्रेष्ठियों को असुविधा हो रही है। वह पद रद्द किया गया। समझौते के तौर पर 'मंत्री-संगठन' यह नामाभिधान आया। अनेक मंत्रियों में वह भी एक। और उसके लिए व्यक्ति भी संघ ने देना! राष्ट्रसेवा के लिए संपूर्ण समय जीवनदान करनेवाले कार्यकर्ता भाजपा क्यो निर्माण नहीं कर पाती, यह बात कभी विधायक, सांसद, मंत्री, मुख्यमंत्री इन पदों की इच्छा रखनेवालों ने सोची है? प्रचारक छोड़ दे, कम से कम पूर्णकालीन कार्यकर्ता? रामलाल, संजय जोशी या रवींद्र भुसारी क्यों स्वयं को अप्रसिद्धि के अंधियारे में गाड ले? आज आवश्यकता है, पुराने जनसंघ और नए भाजपा की घटना का तुलनात्मक अभ्यास कर, नया संविधान तैयार करने की। संगठन का व्यापक विचार नहीं रहा और उसके अनुसार आचरण नहीं हुआ तो गुटबाजी का उधम होगा ही। फिर जनरल खंडूरी पराजित होगे ही; और उ. प्र. में की गुटबाजी चुनाव के परिणामों पर विपरित प्रभाव डालेगी ही। मौलिक सिद्धांतों का नित्य स्मरण, उसके लिए कार्यकर्ताओं का नित्य उद्‌बोधन और संगठन-शास्त्र का शास्त्रशुद्ध विचार यही गुटबाजी के रोग पर परिणामकारक दवा है। पं. दीनदयाल जी के बाद कार्यकर्ताओं के उद्‌बोधन के कार्यक्रम ही रद्द हुए। मानो सब प्रबुद्ध बन गए!


व्यापक अस्मिता

और एक महत्त्व का मुद्दा। 'हिंदू' यह व्यापक अवधारणा है। उसमें ईसाई, मुस्लिम, जैन, बौद्ध इनका भी समावेश है। लेकिन सर्वसमावेशक राष्ट्रीयत्व को खतरा हिंदूओं में की जातीय भावनाओं से भी है। उन जातियों को भी भावात्मकता के साथ हम हिंदू है, इसका अहसास होना चाहिए। लेकिन आज उनकी स्वतंत्र अस्मिता को उकसाया जा रहा है। ओबीसी यह एक नई जाति पैदा हुई है। भाजपा इस आकर्षण के भुलावे में न आए। जातीय जनगणना को मान्यता देकर भाजपा ने गलती की है। मुलायम सिंह यादवों की, मायावती दलितों की, अजित सिंह जाटों की, तो कोई कुर्मीयों की, अन्य ब्राह्मणों की अस्मिता, अपने स्वार्थ के लिए संजो सकते है। हिंदूओं की अस्मिता कौन संजोएगा? भाजपा की ओर से यह व्यापक अस्मिता संजोई जाए, ऐसी अपेक्षा है। यह कार्य उसने किया तो वह एखाद चुनाव हार भी सकती है, यह संभावना मैं नकारता नहीं। लेकिन इससे वह हिंदू समाज को एकसंध, एकात्म और एकरस रखने का पुण्यकार्य निश्चित ही करेगी। संघ का भी यही उद्दिष्ट है। भाजपा के नेताओं ने इसका गंभीरता से विचार करना चाहिए। 
इस प्रकार, भारतव्यापी, संपूर्ण देश का विचार करनेवाली दो पर्टिंयों का भारतीय राजनीति में उदय होना चाहिए। जिससे, प्रादेशिक अस्मितावालों की ओर से जो खतरें हो सकते है, उससे देश को बचाया जा सकेगा।

- मा. गो. वैद्य
babujivaidya@gmail.com
अनुवाद : विकास कुलकर्णी 











No comments:

Post a Comment