Sunday 12 February 2012

आंतरधर्मीय संवाद से घबराना क्यों?

गत जनवरी माह में श्री मोहन गुप्ता की ओर से मेरे ई-मेल पर कुछ लेख आये है| श्री मोहन गुप्ता को मैं पहचानता नहीं| लेकिन उनके लेखों से ध्यान में आता है की वे हिंदुत्वनिष्ठ विचारवंत है और उन्हें हिंदूओं के भविष्य के बारे में गहरी चिंता है|

संवाद निरर्थक?

हिंदू-ईसाई या हिंदू-मुस्लिमों के बीच कोई संवाद न हो, यह उनके लेखन का केन्द्र है| इसके लिए उन्होंने ठोस कारण भी दिए है| उनका कहना है कि, ईसाई और इस्लाम ये दोनों धर्म बंदिस्त है, कट्टर है| उनका अपना विशिष्ट तत्त्वज्ञान है और उनकी अंध श्रद्धाएँ भी हैं| जिहादी मुसलमान और आक्रमक ईसाईयों के हमले रोकने के लिए, उनके साथ संवाद की आवश्यकता ही नहीं| आवश्यकता हिंदू धर्म को उनसे बचाने की है| उसके लिए चाहिए शिवाजी और गुरु गोविंदसिंह| उसके लिए चाहिए, हिंदू राष्ट्र पर श्रद्धा होनेवाली राजनैतिक शक्ति| ईसाईयों के कपट से भी हिंदूओं ने सावधान रहना चाहिए| ईसाई धर्म का प्रसार करनेवाले, हिंदू धर्मीयों के उपासना पद्धति की नकल कर भोलेभाले हिंदुओं को बहका रहे है| हिंदू, विष्णु-सहस्रनाम का जाप करते है, उसकी नकल कर उन्होंने ‘ख्रिस्त-सहस्रनाम’ खोज निकाला है|

डर क्यों?

मेरा मत इससे भिन्न है| हिंदूओं ने आंतरधर्मीय संवाद से डरने का कारण नहीं| जो, बौद्धिक दृष्टि से कमजोर होते है, वे संवाद से घबराते है| जिनका ज्ञान और निष्ठा पक्की है, वे क्यों घबराए? मेरा तो ऐसा अनुभव है की, जिनके तत्त्वज्ञान में त्रुटी है, जिनके विचार संकुचित है, वे घबराते है| एक प्रसंग बताता हूँ| सन २००० से २००३ में, मैं दिल्ली में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रवक्ता था, उस समय, मेरी, सरकारी अल्पसंख्यंक आयोग के एक सदस्य श्री जॉन जोसेफ के साथ भेट हुई| वर्ष शायद २००१ होगा| उस समय संघ की ओर से संपूर्ण देश भर ‘जन-जागरण अभियान’ चलाया गया था| इस अभियान के अंतर्गत, दिल्ली के संघ कार्यकर्ताओं ने, कुछ बड़े सरकारी अधिकारियों के साथ मैं भेंट करू, ऐसा कार्यक्रम बनाया था| इस कार्यक्रम के अनुसार, अल्पसंख्य आयोग के उपाध्यक्ष सरदार तरलोचन सिंग (त्रिलोचन सिंग) के घर हम लोग गये| हम मतलब मैं, दिल्ली प्रांत के तत्कालीन संघचालक श्री सत्यनारायण जी बंसल और राष्ट्रीय सिक्ख संगत के कार्यकर्ता आर. पी. सिंग| हिंदू, मतलब सिक्खों के अतिरिक्त हिंदू और सिक्खों के परस्पर संबंधों के बारे में, संघ की भूमिका स्पष्ट की| इस पर सरदार तरलोचन सिंग ने कहा, ‘‘यह आप मेरे घर जो बता रहे हो; क्या आप हमारे अल्पसंख्य आयोग की कचहरी में आकर बताएँगे?’’ मैंने कहा, ‘‘हॉं| हमें कोई आपत्ति नहीं|’’ उन्होंने हमें आयोग के सामने बुलाया| हम तीनों भी गये| सरदारजी के घर जो बोला था, वही वहॉं बोला| इतना ही नहीं तो संघ की भूमिका स्पष्ट करनेवाला एक लेखी निवेदन भी दिया| बैठक समाप्त होते समय जॉन जोसेफ बोले, ‘‘आप ईसाई लोगों के साथ भी बात करने के लिए तैयार है?’’ मैंने कहा, ‘‘हमें कोई आपत्ति नहीं|’’

टालमटोल

जॉन जोसेफ ने पहले कॅथॉलिक चर्च के सूत्रधारों से संपर्क किया| उन्होंने कहा कि, हम आरएसएस के प्रवक्ता के साथ कुछ नहीं बोलेंगे| हमारे बिशप, केवल संघ के सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति के साथ ही बोलेंगे| जॉन जोसेफ ने यह संदेश हमें दिया| माननीय सुदर्शन जी उस समय सरसंघचालक थे| उनके साथ मैंने संपर्क किया| वे भी तैयार हुए| फिर उनकी आरे से दूसरी शर्त आई की, हम प्रॉटेस्टंटों के साथ नहीं बैठेंगे| हमने कहा, ‘‘ठीक है|’’ फिर उन्होंने तीसरी शर्त रखी की, ‘‘जो भी बातचीत होगी, वह हमारे चर्च में ही होगी|’’ मैंने यह शर्त ठुकरा दी| जोसेफ को बताया कि, ‘‘कॅथॉलिकों को चर्चा टालनी है, ऐसा दिखता है| हम चर्च में नहीं आयेंगे| अन्यत्र कहीं भी मिलेंगे|’’ यह सब जानकारी मैंने मा. सुदर्शन जी को दी| उस समय वे केरल प्रांत में प्रवास कर रहे थे| सुदर्शन जी ने कहा, ‘‘मान-अपमान का विचार क्यों करे? हम उनके चर्च में जाएँगे|’’ और हमारी कॅथॉलिक चर्च में बैठक हुई| हम दोनों के साथ डॉ. श्रीपति शास्त्री भी थे| वे इस बैठक के लिए ही पुणे से दिल्ली आये| कॅथॉलिकों ने हमारा आदर किया| औपचारिक बातचीत समाप्त होने के बाद मैंने ही एक प्रश्‍न किया| उसका आशय था ‘‘ईसाई धर्म के सममान ही अन्य धर्म और अन्य विश्‍वास और श्रद्धा भी सत्य हो सकती हैं, यह आपको मान्य है?’’ संवाद अंग्रेजी भाषा में चल रहा था| मेंने पूँछा, "Do you accept that other faiths and religions can also be valid?" इसे उनकी ओर से तुरंत जबाब नहीं मिला| विचार करना होंगा, ऐसा उन्होंने कहा|

परिणाम

इसके बाद प्रॉटेस्टंट पंथीयों के साथ संवाद हुआ| उनके २७ उप पंथ के २९ नेता नागपुर के संघ कार्यालय -हेडगेवार भवन - में आये थे| उनके साथ खुलकर चर्चा हुई| संघ कार्यालय में ही सब के साथ उनका भोजन हुआ| उन्हें भी मैंने यही प्रश्‍न पूँछा था| उनमें से कुछ ने ही सही, हॉं, उत्तर दिया| उसके बाद, मा. सुदर्शन जी और/या संघ के अन्य अधिकारियों के साथ प्रॉटेस्टंट ईसाई लोगों की मुलाकाते हुई| वह मुलाकाते, मेरी जानकारी के अनुसार, कर्नाटक और केरल प्रांत में हुई| मुझे नहीं लगता की, इस संवाद से हमारी हिंदुत्व-निष्ठा कम हुई| कुछ परिणाम हुआ होगा तो उन पर ही हुआ होगा! दो-तीन ने ही सही, अन्य पंथ, श्रद्धा और विश्‍वास भी सच हो सकते है, यह मान्य किया| विश्‍वासों की विविधता (plurality of faiths) मानना यह मैं, हिंदुत्व का महत्त्व का लक्षण मानता हूँ; और जो यह मानते है, वे सारे हिंदू हो सकते हैं, ऐसी मेरी धारणा है| हम हिंदूओं में क्या पंथ और उप पंथों की कोई कमी है? मूर्ति-पूजा माननेवाले जैसे बहुसंख्य है, वैसे न माननेवाले आर्यसमाजी है| राम-कृष्ण को परमेश्‍वर का अवतार माननेवाले जैसे है, वैसे ही उन्हें अवतार न माननेवाले, लेकिन महापुरुष माननेवाले भी है| और ये सब हिंदू है|

हिंदूओं की नकल

ख्रिस्त सहस्रनाम जैसी हिंदूओं की उपासना-पद्धति जिन्होंने स्वीकार की है, उन्होंने एक प्रकार से हिंदूओं की उपासना पद्धति की महती ही प्रतिपादित की है| चर्च में अब संगीत भजन भी होने लगे है| यह अच्छी बात है| ऐसी नकल करते समय वे हिंदूओं के उपासना पद्धति की श्रेष्ठता ही अधोरेखित करते है| यह सच है की, इसके पीछे उनका उद्देश्य अच्छा और स्तुत्य होगा ही ऐसा नहीं| वे भोलेभाले हिंदुओं को फंसाने के लिए भी यह युक्तियॉं कर रहे होगे| लेकिन उनके उपर आक्षेप लेने के बदले हमने हिंदूओं को सावधान करना चाहिए| अनेक संत-महंत, सद्गुरुओं के प्रवचनों के लिए प्रचंड भीड जमा होती है| वे अपने भक्तों को और शिष्यों को जैसे अपने धर्म की श्रेष्ठता समझाकर बताते है, उसी प्रकार अपने धर्म का प्रचार और प्रसार करने का भी उपदेश दे| किसने मनाई की है? ईसाई मिशनरी अपना झुंड बढ़ाते हुए दिखते है| हम हमारा विस्तार क्यों नहीं करते?

इतिहास का वास्तव

कुछ हमारा इतिहास भी देखें! पहले हमारे देश पर आयोनियन (यवन-ग्रीक), हूण, शक, कुशाण आदि देश के बाहर की टोलियों के आक्रमण हुए| उन्होंने विजय भी हासिल की| उनके राज्य भी कुछ समय तक चले| अब वे कहॉं है? वे सब, समग्र हिंदू समाज में समा गए है| मुझे इसवि सदी पूर्व की दुसरी शताद्बी में के उज्जैनी के राजा रुद्रदामन् का एक शिला लेख याद आता है| वह शिला लेख गुजरात के सौराष्ट्र विभाग में मिला है| वहॉं एक पुराना बांध टूटा था| वह रुद्रदमन् राजा ने दुरुस्त किया| उस निमित्त के आनंदोत्सव के संदर्भ में वह शिला लेख है| रुद्रदमन् की राजधानी उज्जैन; लेकिन उसका राज्य सौराष्ट्र तक फैला था| उस शिला लेख में रुद्रदमन् की कुल-परंपरा बताई है| रुद्रदमन् के पिता का नाम जयदामन् था| लेकिन दादा का नाम चेष्टन था| ‘चेष्टन’ अर्थात ही विदेशी| उसका नाम ही उसकी विदेशीता प्रकट करता है| वह ‘सेनापति’ था| जयदामन् ‘राजा’ बना और रुद्रदामन् ‘महाराजाधिराज’| वे पराक्रमी पुरुष थे, यह इसलिए ध्यान में लेना चाहिए की, उन्हें कोई जबरदस्ती हिंदू नहीं बना पाया होगा| वैसे ये लोग विदेशी थे| फिर भी वे हिंदू बने| हमारे देश में के मुसलमान और ईसाई तो मूल यहीं के है| २१ वी शताद्बी में के हिंदूओं में ऐसी सब को समाविष्ट कर आत्मसात् करने की वृत्ति निर्माण होनी चाहिए| इसके लिए छल, लालच या कपट का प्रयोग करने की आवश्यकता नहीं| आवश्यकता, व्यापक दृष्टिकोण की, विस्तार करने के प्रवृत्ति की और आधुनिक दुनिया में, सब मानवों के लिए हिंदुत्व उपकारक है, इस निष्ठा की है|

इस्लाम के बारे में

जो ईसाईयों के बारे में, वही मुसलमानों के बारे में| मोहन गुप्ता ने भेजे लेख में कुरान में के कुछ हिंसा-प्रवण वचनों का उल्लेख किया है| वह झूठ नहीं| लेकिन कुरान चौदा सौ वर्ष पूर्व का है| भारत में के जानकार मुसलमान उन वचनों का उच्चार नहीं करते| कुरान में जो अच्छे वचन है, वह उद्धृत करते है| गत एक-दो जनवरी को नागपुर की वेद-प्रचारिणी सभा ने दो दिनों की विचार गोष्ठी आयोजित की गई थी| विषय था ‘‘ईश्‍वर : कल्पना बनाम यथार्थ’’| उसमें नागपुर के लकडी के व्यापारी गफ्फूर भाई का भी भाषण हुआ| उन्होंने कुरान में की एक अलग ही आयत बताई| उसका अर्थ है, ‘‘मैं जिसकी पूजा करता हूँ, उसकी पूजा तुम नहीं करते| और तुम जिसकी पूजा करते हो, उसकी मैं नहीं करता| मैं तुम्हारे देवता की पूजा नहीं करूंगा और तुम मेरे देवता की पूजा नहीं करोंगे| तुम्हारे लिए तुम्हारा धर्म है और मेरे लिए मेरा|’’  हिंसा को प्रोत्साहन देनेवाली आयते, काल क्रमानुसार बाद की होने के कारण, पहले की आयतों का महत्त्व उनके सामने नहीं होता, इस इस्लामी परंपरा का मुझे स्मरण है| लेकिन इस्लाम की महती बताने वाले आज के विद्वान, कम से कम इस्लाम से अलग लोगों की सभा में ही सही, कुरान शरीफ में की ऐसी आयतों का उल्लेख करते है यह मुझे ध्यान देने योग्य लगता है; और उनमें का एक बड़ा वर्ग, इस्लाम को अलग प्रकार से प्रस्तुत करने लगा है, इसका यह सबूत है| उसे नकारने का कारण नहीं, ऐसा मेरा मत है|

परिवर्तन

बहुत विचार करने के बाद मेरा मत बना है की, इस्लाम को जिंदा रहना है, तो उसे स्वयं में परिवर्तन करना ही होगा| पुराण में सुंद और उपसुंद इन दो सगे भाई राक्षसों की कथा है| उन दोनों ने एक-दूसरे से लडकर एक-दूसरे को मार डाला था| इस्लामी देशों में आज यहीं चल रहा है| मिस्र, इरान, इराक, येमेन, कुर्दीस्थान, सीरिया, अफगाणिस्तान और हमारे पडोसी पाकिस्तान में जोरदार मारकाट चल रही है| मुसलमान एक-दूसरे को ही खत्म कर रहे है| ऐसा दिखाई देता है की, इस्लाम ने अपने अनुयायी को केवल लड़ना और शत्रु को समाप्त करना इतना ही सिखाया है| और शत्रु नहीं रहा तो वे आपस में ही लड़ते है| अत: जिंदा रहने के लिए ही सही इस्लाम-धर्मीयों को स्वयं में परिवर्तन करना आवश्यक हो गया है| १४ सितंबर २०११ को प्रकाशित हुए इस स्तंभ में, मैंने भारतीय मुसलमानों के बारे में कुछ शुभ संकेतों की जानकारी दी थी| उन्हें यहॉं दुहराता नहीं हूँ| इन शुभ संकेतों का आधार लेकर, उनमें परिवर्तन कैसे आएगा, आस्था और विश्‍वासों की विविधता को वे कैसे मान्यता देंगे, और अपनी उपासना और धर्म-ग्रंथ पर विश्‍वास रखकर भी वे व्यापक अर्थ में हिंदुत्व के पुरस्कर्ता कैसे बनेंगे, इसका हमने विचार करना चाहिए|

दोष किसका?

मेरा निरीक्षण ऐसा है कि, मुस्लिम समाज में का एक वर्ग हिंदुओं के साथ नाता जोडने के लिए उत्सुक है| शिक्षित मुस्लिम और ईसाई युवतीयॉं हिंदू युवकों के साथ विवाह करने के लिए उत्सुक है| हिंदूओं की मानसिक तैयारी कम पडती है| हमारे देश में, बांगला देश में के मुसलमान बड़ी संख्या में आये है| अनेक राज्यों में उनकी बस्तियॉं है| स्थानिक मुसलमानों में उनका सामीलीकरण नहीं हुआ| वे उदर-निर्वाह के लिए आये है| नौकरी प्राप्त करने के लिए वे हिंदू नाम भी धारण करते है| क्या कोई हिंदू उनसे संपर्क रखते है? उन्हें अपना ले ऐसा किसी को लगता है? हम मिशनरियों को कोसने में धन्यता मानते है| लेकिन जैसी उन्हें उनके मतों का विस्तार करने की प्रेरणा है, वैसी हिंदुओं को क्यों नहीं? हमारी सरकार चलाने वालों में बहुसंख्य हिंदू ही है ना? उन्हें क्यों नहीं लगता की, यहॉं के ईसाई और मुसलमान राष्ट्र के मुख्य प्रवाह से समरस हो? उनकी अलग होने की भावना कौन संजो रहा है? हमारे संविधान की ऐसी तैसी करते हुए, कौन उनके लिए राजनीतिक आरक्षण की भाषा बोल रहे है| सोनिया गांधी ईसाई है, यह सर्वज्ञात है| ईसाई मिशनरियों को उनका अंदरूनी प्रोत्साहन रहता है, ऐसा बाताया जाता है| चलो, हम इसे सच मान भी ले| लेकिन सोनिया गांधी को यह शक्ति प्रदान करनेवाले कौन है? हिंदू ही है ना? तात्पर्य, यह कि, हिंदूओं को ही, हिंदूओं की व्यापकता और सर्वसमावेशकता ध्यान में लेकर, तथाकथित परधर्मीयों को भी, विचारों से, वृत्ति से और आचरण से अपने में समा लेने की प्रेरणा देने की आवश्यकता है| सब संत-महात्मा, महाराज, सद्गुरु और समाज-नेताओं ने यह कार्य अपनाना चाहिए| तथाकथित परधर्मीयों के साथ संवाद टालना, यह हिंदुत्व को बलशाली करने का मार्ग नहीं| विपरित वह हमारी दुर्बलता का प्रकटीकरण है| किसी के साथ भी संवाद साधने की हिंमत और क्षमता हमने प्रकट करनी चाहिए|

- मा. गो. वैद्य

(अनुवाद : विकास कुळकर्णी)

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