Monday 2 January 2012

श्रीमद्भगवद्गीता की सार्वकालिक यथार्थता

भाष्य ४ जनवरी के लिये    

श्रीमद्भगवद्गीता हिंसा और आतंकवाद को प्रेरणा देनेवाला ग्रंथ है, इसलिए उसपर बंदी लगाए, ऐसी मांग करनेवाली याचिका खारीज की गई, यह बहुत अच्छा हुआ| प्रचंड, पूर्व-पश्‍चिम लंबाई करीब दस हजार किलोमीटर! बाल्टिक सागर से पॅसिफिक महासागर तक! और उत्तर-दक्षिण अंतर करीब चार हजार आठ सौ किलोमीटर! यह प्रचंड रूस एशिया और यूरोप इन दो महाद्वीपों में फैला! शायद, दुनिया में एकमात्र देश होगा! उसके पूर्व की ओर, एशिया महाद्वीप में सैबेरिया यह एक प्रान्त है| वह भी बहुत विस्तीर्ण| अर्थात् केवल क्षेत्रफल की दृष्टि से| वहॉं मनुष्यों से बर्फ ही अधिक है| इस सैबेरिया के बर्फिले रेगिस्थान में तोम्स्क नाम का एक शहर है| वहॉं के कनिष्ठ न्यायालय में यह मुकद्दमा चला| और उसने हमारे देश में खलबली मचा दी|

चर्च का हाथ

मेरी पहली प्रतिक्रिया इस मामले की ओर दुर्लक्ष करने की थी| दस-बारह दिनों पूर्व ‘स्टार माझा’ दूरदर्शन वाहिनी की एक टीम, कुछ मुद्दों पर मेरा मत जानने घर आई थी| उस टीम के प्रमुख ने, मुझे, अनेक प्रश्‍नों के साथ यह भगवद्गीता पर बंदी डालने की मांग के बारे में भी प्रश्‍न पूछॉं था| मैंने कहा, इस मांगका कारण केवल अज्ञान है; और उसकी उपेक्षा ही करना योग्य होगा| लेकिन गत रविवार, ब्लॉग पर मेरा भाष्य पढ़ने के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक ज्येष्ठ प्रचारक का अभिप्राय आया कि, ‘गीता प्रकरण पर’ मेरा भाष्य आएगा, ऐसी उनकी अपेक्षा थी| फिर मुझे भी लगा कि, इस विषय पर लिखना चाहिए| मन का ऐसा निश्‍चय हो ही रहा था कि मुकद्दमें के फैसले का आनंददायक समाचार आया| और इस विषय पर लिखना चाहिए, ऐसा लगा| साथ ही यह भी पता चला कि, तोम्स्क मामले के पीछे रूस के ऑर्थोडॉक्स चर्च का हाथ है|  

आर्थोडॉक्स चर्च

ईसाई धर्म के अनेक संप्रदाय और पंथ है| रोमन कॅथॉलिक यह सबसे बड़ा पंथ है| प्रॉटेस्टंट उससे कम लोकसंख्या का| और, उसके उपपंथ भी अनेक है| ऑर्थोडॉक्स चर्च यह भी एक पंथ ही है| ‘ऑर्थोडॉक्स’ मतलब पुराना, मूलगामी, परिवर्तनविरोधी| इस चर्च का प्रभाव ग्रीस और अन्य कुछ देशों में है| रूस में इस पंथ को माननेवालों की संख्या करीब बीस प्रतिशत है| १९१७ में हुई कम्युनिस्ट क्रांति के बाद, इस चर्च पर, सरकार ने बंदी लगाई थी| कारण, कम्युनिस्टों का धर्मसंप्रदायों को विरोध था| सत्तर वर्षों से अधिक समय तक यह बंदी कायम थी| ऐसा लगता है कि अब वह हटाई गई है| लोग खुले आम चर्च में जाने लगे है| इस पुरानी विचारधारा के कुछ लोगों को भगवद्गीता अच्छी ना लगी हो, तो इसमें आश्‍चर्य नहीं| शायद रूस में भगवद्गीता को दिनोंदिन बढ़ता भक्तसंघ प्राप्त हो रहा है, इस कारण भी चर्च में के कुछ अतिवादियों का माथा ठनका होगा|

रूस में प्रभाव

आप कहेगे कि रूस में! और भगवद्गीता का प्रभाव! हॉं, यह आश्‍चर्यजनक पर सत्य है| यह परिवर्तन ‘हरे कृष्ण’ इस नाम से जाने जानेवाले पंथ के अनुयायीयों ने किया है| यह पंथ सर्वत्र ‘इस्कॉन’ के नाम से जाना जाता है| ‘इस्कॉन’ मतलब ‘इंटरनॅशनल सोसायटी फॉर कृष्ण कॉन्शस्नेस्’ -अर्थ स्पष्ट है - ‘भगवान् कृष्ण के बारे में जागृति करने के लिए बनी अंतर्राष्ट्रीय समिति’| इस समिति ने भगवान् कृष्ण और उसके तत्त्वज्ञान का रूसीयों को परिचय कराने की योजना बनाई है| वैसे इसका आरंभ तो १९७१ में ही हुआ था| उस समय कम्युनिस्ट शासन था| लेओनिद ब्रेझनेव्ह यह तानाशाह राज कर रहा था| १९७१ में इस ‘इस्कॉन’ के संस्थापक भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभूपाद का रूस की राजधानी - मॉस्को में - पॉंच दिन मुक्काम था| प्रोफेसर कोटोवस्की इस हिंदू धर्म का अभ्यास करनेवाले विद्वान से मिलने वे इतने दूर आए थे| वहॉं उनका कुछ युवकों के साथ संवाद हुआ| उसका परिणाम यह है कि आज रूस के राष्ट्रमंडल में के देशों में ५५ हजार वैष्णव है| मॉस्को में इस्कॉन का मंदिर है| वहॉं रोज एक हजार भक्त आते है| विशेष अवसरों पर तो यह आँकडा दस हजार से भी अधिक होता है| गोर्बाचेव रूस के राष्ट्रपति बनने के बाद, १९८८ में, इस ‘इस्कॉन’ को अधिकृत मान्यता मिली| अब मास्को में एक भव्य कृष्ण मंदिर बनाया जा रहा है| उसका नाम होगा ‘मॉस्को वेदिक सेंटर’| भक्तिविज्ञान गोस्वामी उस केन्द्र के प्रमुख है| नाम पढ़कर गडबडाने का कारण नहीं| वे रूसी है; और अभी भारत में आए है| मॉस्को में एक पुराना कृष्ण मंदिर था| वह मॉस्को नगर परिषद की आज्ञा से गिराया गया| उसके मुआवजे में इस्कॉन को पॉंच एकड जमीन मिली है, वहॉं भव्य ‘वेदिक सेंटर’ बन रहा है| २०१२ के अंत तक वह पूर्णहोगा| आज एक छोटी जगह पर अस्थाई मंदिर खड़ा है|

सेक्युलॅरिस्ट भी शामिल

रूस के एक न्यायालय में यह मुकद्दमा चलने का समाचार आते ही, भारत में उसपर प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक ही था| भारत सरकार ने भी इसमें ध्यान दिया और संपूर्ण भारत की भावना, रूस के राजदूत को बुलाकर, उसे बताई| संघ, विहिंप, आदि हिंदुत्त्वनिष्ठ संगठनों ने मुकद्दमा दायर करने की कृति का निषेध करना स्वाभाविक ही था| लेकिन संसद में भी इस बारे आवाज उठी; और आश्‍चर्य यह कि लालूप्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव इन छद्म सेक्युलॅरवादियों के अर्क ने भी इस कृति का निषेध किया| हम यहीं समझे कि, भगवद्गीता का कर्ता यादवकुलोत्पन्न था इस कारण ही उनका गीता-प्रेम नहीं उमडा, उन्हें भगवद्गीता की महती समझ आई है, इसलिए ही उन्होंने रूस में की घटना का तीव्र निषेध किया|
इस स्थानपर इन तथाकथित सेक्युलॅरवादियों का वर्तन कैसा रहता है, इसका एक नमुना दिखाना उचित होगा| मध्य प्रदेश की भाजपा की सरकार ने, विद्यालयों के पाठ्यक्रम में भगवद्गीता के कुछ श्‍लोकों को अंतर्भाव किया है| इस बारे में घोषणा होते ही ‘भगवाकरण’, ‘सांप्रदायिकता’ ‘आरएसएस का अजेंडा’ आदि नारे लगाकर सेक्युलॅरिस्टों ने छाती पीट ली थी| इन लोगों ने यह भी ध्यान में नहीं लिया कि, महात्मा गांधी, आचार्य विनोबा भावे जैसे, जिन्हें वे पूज्य मानते है गीता की शिक्षा से अनुप्राणित हुए थे| विनोबा की ‘गीताई’ और ‘गीताई चिंतनिका’ सब के एक बार पढ़नी ही चाहिए| क्या गांधी-विनोबा सांप्रदायिक थे? ऐसी वृत्ति के लोगों ने भी भगवद्गीता पर की संभाव्य बंदी का निषेध किया, यह विशेष है|

सार्वकालिक, सार्वदेशिक

वस्तुत:, गीता सांप्रदायिक ग्रंथ है ही नहीं| वह भारत में निर्माण हुआ और हिंदू जिसे पूर्णावतार मानते है उस भगवान् श्रीकृष्ण के मुख से निकला होने के बावजूद, वह संपूर्ण मानवजाति के लिए है| देश और काल की मर्यादा उसे बांध नहीं सकती| गीता का उपदेश सार्वकालिक और सार्वदेशिक है| गीता ने जितनी स्वतंत्रता दी है उतनी अन्य किसी भी धर्मग्रंथ ने नहीं दी| गीता, अपने और पराए ऐसा भेद करती ही नहीं| गीता के ९ वे अध्याय में का २३ वा श्‍लोक कहता है ‘‘जो अन्य देवताओं के भक्त, श्रद्धापूर्वक, उन उन देवताओं का पूजन करते है, वे भी अज्ञानवश ही सही, मुझे ही पूजते है|’’ मूल शब्द है ‘‘यऽप्यन्यदेवताभक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता: | तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥'' ‘अवधि’ इस शब्द का अर्थ आद्य शंकराचार्य ने ‘अज्ञान’ बताया है| यही विचार ७ वे अध्याय के २१ वे श्‍लोक में भी व्यक्त हुआ है| वह श्‍लोक इस प्रकार है ‘‘यो यो यां यां तनुं भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति | तस्म तस्याचलां श्रद्धां तामेव विद्याम्यहम् ॥'' मतलब भक्त, श्रद्धापूर्वक, जिस जिस देवतास्वरूप का पूजन करना चाहता है, उसकी उसकी श्रद्धा मैं अचल करता हूँ| यहॉं मोमीन-काफीर, या ईसाई-हीदन ऐसा भेद नहीं| ‘सब मेरे’ - ऐसी संपूर्ण विश्‍व को अपने भीतर समाविष्ट करनेवाली अलौकिक उदारता है|

राष्ट्रीय ग्रंथ

भगवद्गीता कार्यप्रवण करनेवाली है| मोहवश हताश हुए एक वीर पुरुष को कर्तव्यप्रेरित करने के लिए ही उसका अवतार है| स्वयं का उदाहरण देकर भगवान् कृष्ण कहते है कि, ‘मुझे नहीं मिला ऐसा कुछ भी नहीं है| जो प्राप्त करना है, ऐसा भी कुछ नहीं| फिर भी मैं कार्यरत हूँ| ज्ञानी मनुष्य ने उसके हिस्से आया कर्म करना ही चाहिए| कारण लोकस्थिति का संधारण होना ही चाहिए|’ ज्ञानदेव के शब्द है ‘‘हे सकळ लोकसंस्था | रक्षणीय गा सर्वथा ॥ तात्पर्य यह कि, आज भी और आगे भी भगवद्गीता यर्थाथ रहनेवाली है| सब जननेताओं को, फिर वह किसी भी कार्यक्षेत्र में काम करनेवाले हो, उसका चिरंनत मार्गदर्शन है| ऐसे इस अद्वितीय ग्रंथ को वस्तुत: हमारे मतलब सब भारतीयों के राष्ट्रीय ग्रंथ की मान्यता मिलनी चाहिए| उत्तर प्रदेश के उच्च न्यायालय के एक न्यायमूर्ति ने भी ऐसी सूचना की है| लेकिन सेक्युलॅरिझम् के विकृत जाल में फंसे आज के राजकर्ता यह करने का धाडस करेगे, ऐसी आशा करने में कोई अर्थ नहीं और सरकारी मान्यता पर श्रीमद्भगवद्गीता का सामर्थ्य भी अवलंबित नहीं| 
   
     इतस्तत:

    भिन्न भिन्न संस्कृतियों का सम्मेलन
हम ऐसा समझते है कि, ईसाई धर्म प्रसार के कारण संपूर्ण यूरोप महाद्वीप और संपूर्ण अमेरिका मतलब दक्षिण और उत्तरी अमेरिका ईसाई बन गई है| लेकिन वस्तुस्थिति वैसी नहीं है| अनेक जनजातियों ने अपनी पुरानी श्रद्धा और विश्‍वास अभी भी संजोकर रखे है| उनके नाम ईसाई नामों  के समान लगते है, लेकिन उनका अंतरंग अलग है|
अपनी भिन्न संस्कृति और श्रद्धा सुरक्षित रखनेवाली जनजातियों के प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन करीब तीन माह पूर्व मेक्सिको में के ताओस शहर में संपन्न हुआ| इस सम्मेलन में ४२ प्रतिनिधि आए थे| चेरोकी, लाकोटा, होपी, किपात्सी इन परंपराओं के लोगों के साथ कुछ हिंदू भी वहॉं उपस्थित थे| यह सम्मेलन, उत्तर अमेरिका के ‘इंटरनॅशनल सेंटर फॉर कल्चरल स्टडीज्’ इस संस्था ने आयोजित किया था| नागपुर के प्रा. यशवंत पाठक इस संस्था के संयोजकों में प्रमुख है|
पहला सत्र प्रार्थना के साथ शुरू हुआ| यंगवुल्फ ने प्रार्थना पढ़ी| फिर सँटो डोमिनियन के प्रतिनिधि जोस ने परिषद को आशीर्वाद देनेवाला भाषण किया| फिर पेरू देश में ईसाई साम्राज्यवाद कैसे फैला, यह अलबुकर्क में रहनेवाले किपात्सी पंथीयों ने स्पष्ट किया| हिंदू स्वयंसेवक संघ के लक्ष्मीनारायण ने अमेरिका के संयुक्त संस्थान में (युएसए) बालगोकुलम् कैसे पनप रहा है, यह विशद किया|
डोग कोनेल ने पर्यावरण-संरक्षण का महत्त्व बताया| डॉ. योवेट्टो रोसर इस विदुषी ने समारोपीय भाषण किया| उन्होंने अपने भाषण में स्थानिक संस्कृतियों को विनाश का कैसे खतरा है, यह इतिहास के अनेक सबूत देकर स्पष्ट किया| आक्रमक संप्रदायों से बचाने के लिए केवल भारत ही हमें मदद कर सकता है, यह उन्होंने जोर देकर बताया; और सबने आपस में ऐक्यभावना के साथ रहना चाहिए, ऐसा उपदेश किया|

    थायलँड में का गणेशोत्सव

इस वर्ष थायलँड में लोगों ने उत्साह के साथ गणेशोत्सव मनाया| दो स्थानों पर गणेश की प्रतिष्ठापना की गई| एक, राजधानी बँकॉक में के रामिनतरा के शिवमंदिर में और दूसरी बँकॉक से करीब २०० किलोमीटर दूर के नखोन नायक में के गणेश मंदिर में|
करीब ३८ फुट ऊँची गणेश के भव्य मूर्ति के प्रतिष्ठापना की पूजा, बँकॉक के बौद्ध विश्‍वविद्यालय के कुलपति श्री फराराज कोसोन ने की| रामिनतरा मंदिर के प्रमुख श्री माए खु व्हॉन सॉंग ने भी पूजन किया|
गणेश विसर्जन के दिन एक भव्य जुलूस निकाला गया| भगवे वस्त्र और स्थानिक पद्धति के कपडे पहने लोग हाथों में झंडे फहराते हुए भजन, कीर्तन गाते, इस जुलूस में बड़ी संख्या में शामिल हुए| थाई पद्धति के घोष टीम (बँड्स) ने जुलूस में चैतन्य निर्माण किया|
गत अनेक वर्षों से केवल हिंदू ही नहीं, स्थानीय थाई लोग भी इस उत्सव में उत्साह से भाग लेते है| एक दिलचस्व बात यह कि इस वर्ष २८ थाई गणेश भक्त अपनी गणेश मूर्तिंयॉं लेकर मुंबई आए थे| चौपाटी पर उन्होंने गणेश मूर्ति का विसर्जन किया| इन २८ गणेश भक्तों की टीम का नेतृत्व शिल्पकॉन विश्‍वविद्यालय के डीन डॉ. खून खोन कृत और पं. ब्रह्मानंद दुबे ने किया|   

    संस्कृत भारती का कार्य

‘संस्कृत भारती’ संस्था लोगों को संस्कृत भाषा में बोलचाल करना सिखाती है| उसकी सिखाने की पद्धति ऐसी खास है कि, लोगों को अब संस्कृत कठिन और क्लिष्ट भाषा है, ऐसा लगता ही नहीं|
‘संस्कृत भारती’ गत तीस वर्षों से यह कार्य कर रही है| उसके इस प्रयास के कारण करीब ९० लाख लोग संस्कृत बोल सकते है, बोलते भी है| १९ देशों में संस्कृत भारती का काम चल रहा है|
हमारे देश में के अधिकांश प्रांतों में १० दिनों के संस्कृत संभाषण वर्ग चलते रहते है| सामान्यत: हर माह एक वर्ग होता है| पहले एक वर्ग में मुश्किल से १० - १५ लोग आते थे| अब हर वर्ग में ५० - ६० की उपस्थिति रहती ही है| और मुख्यत:; वे युवक होते है| म्हैसूर के सेंट्रल इंस्टिट्यूट ऑफ इंडियन लँग्वेजेस इस संस्था के प्रोफेसर आर. सुब्बाकृष्ण बताते हे कि, अत्याधुनिक विज्ञान एवं तंत्रज्ञान सिखानेवाली आयआयटी में संस्कृत भाषा पर संशोधन चल रहा है| मुंबई में की आयआयटी में तो संस्कृत भाषा में के विज्ञान और तकनीक का अभ्यास करने के लिए एक अलग केन्द्र ही (सेल) कार्यरत है|     
    भय्याजी काणे का स्मृतिदिन

कहॉं महाराष्ट्र? कहॉं मणिपुर? लेकिन इस मणिपुर राज्य में के उखरूल जिले में के खरासोम गॉंव में ‘ओजा शंकर विद्यालय’ नाम की शाला है| ‘शंकर’ यह भय्याजी का नाम है| पूरा नाम शंकर दिनकर काणे है|
भय्याजी काणे संघ के कार्यकर्ता लेकिन प्रचारक नहीं| साधे ही कार्यकर्ता थे| उन्होंने अपने कर्तृत्व के लिए मणिपुर राज्य को चुना| १२ वर्ष पूर्व उनका निधन हुआ| लेकिन, उनसे प्रेरणा लेनेवालों की स्मृति में वे जीवित ही है| २६ अक्टूबर २०११ को ओजा शंकर विद्यालय में उनका स्मृतिदिन मनाया गया| भय्याजी के भूतपूर्व विद्यार्थी रिंगफानी ने उस अवसर पर कहा, ‘‘सीधे साधे भय्याजी ने स्वयं को समाज के लिए समर्पित कर दिया था|’’ उन्होंने आगे कहा, ‘‘१९७१ में, भय्याजी महाराष्ट्र में से अत्यंत दुर्गम मणिपुर में के न्यू त्सोम गॉंव आए| वहॉं शिक्षक बनकर एक वर्ष सेवा की| उस अल्पावधि में वे स्थानीय तांखुल नागा ही बन गए| फिर वे हमें पढ़ाई के लिए कर्नाटक में ले गए| माता-पिता के समान हमारा ध्यान रखा| अलग अलग प्रांतों में ले जाकर करीब तीन सौ विद्यार्थींयों को शिक्षित किया| यह बच्चें विविध जनजाति एवं धर्म के थे| लेकिन उन्होंने कभी भी भेदभाव नहीं किया| ‘शिक्षा में से राष्ट्रीय एकात्मता’ यह उनका ध्येय था| उनका यह स्वप्न पूर्ण करना अब हम सब की जिम्मेदारी है|’’

- मा. गो. वैद्य
babujivaidya@gmail.com
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी) 
  

 
   

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