Sunday 25 December 2011

‘लोकपाल’का पेच कायम

    २८ दिसंबर के लिए भाष्य

लोकपाल विधेयक संसद में रखा गया, लेकिन उसके बारे में पेच अभी भी कायम है| इस त्रिशंकु अवस्था के लिए, कारण डॉ. मनमोहन सिंह के संप्रमो सरकार की नियत साफ नहीं, यह है| सरकार की नियत साफ होती, तो उसने सीधे अधिकारसंपन्न लोकपाल व्यवस्था स्थापन होगी, इस दृष्टि से विधेयक की रचना की होती| उसने यह किया नहीं| विपरीत, उसमें से भी राजनीतिक स्वार्थ साधने के लिए अल्पसंख्यक मतलब मुस्लिम, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जमाति और महिलाओं के लिए कम
से कम ५० प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान रखा है |

आरक्षण क्यों?

इस आरक्षण की क्या आवश्यकता है? ‘लोकपाल’ कोई शिक्षा संस्था नहीं; वह एक विशिष्ट अधिकार युक्त, भ्र्रष्टाचार को नियंत्रित करने के लिए स्थापन की जानेवाली संस्था है| इस संस्था को कार्यकारित्व (एक्झिक्युटिव) और न्यायदान के भी अधिकार रहेगे| वह रहने चाहिए, ऐसी केवल अण्णा हजारे और टीम अण्णा की मांग नहीं; १२० करोड भारतीयों में से बहुसंख्यकों की मांग है| विद्यमान न्यायपालिका में, क्या इन चार समाज गुटों के लिए आरक्षण है? नहीं! क्यों नहीं? आरक्षण नहीं इसलिए क्या कोई
मुस्लिम या अनुसूचित जाति या जमाति का व्यक्ति, अथवा महिला न्यायाधीश नहीं बनी? न्यायाधीश किस जाति या किस पंथ का है, इस पचड़े में पड़ने की हमें आवश्यकता प्रतीत नहीं होती| लेकिन समाचार पत्रों में के समाचार क्या बताते है? यही कि, सर्वोच्च न्यायालय के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश न्या. मू. बालकृष्णन् अनुसूचित जाति से है| क्या वे आरक्षणपात्र समूह की सूची (रोस्टर) से आए थे? एक मुस्लिम न्या. मू. अहमदी ने भी इस पद की शोभा बढ़ाई थी| उनके पूर्व न्या. मू. हिदायतुल्ला मुख्य न्यायाधीश थे| क्या वे मुस्लिमों के लिए आरक्षण था इसलिए इस सर्वोच्च पर पहुँचे थे? हमारे भूतपूर्व राष्ट्रपतियों की सूची देखे| डॉ. झाकिर हुसैन, हिदायतुल्ला, फक्रुद्दीन अली अहमद, अब्दुल कलाम इन चार महान् व्यक्तियों को वह सर्वोच्च सम्मान प्राप्त हुआ था| वह किस आरक्षण व्यवस्था के कारण? पद के लिए आरक्षण ना होते हुए भी प्रतिभा पाटिल आज उस पद पर आरूढ है| श्रीमती इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी थी| श्रीमती सोनिया गांधी को भी तांत्रिक अडचन ना होती तो वह पद मिल सकता था| यह आरक्षण के प्रावधान के कारण नहीं हुआ| यह सच है कि, अभी तक कोई महिला मुख्य न्यायाधीश नहीं बनी| लेकिन सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय में भी महिला न्यायाधीश है| प्रधानमंत्री पद किसी मुस्लिम को नहीं मिला इसलिए क्या वह अन्याय हुआ? और आगे वह मिलेगा ही नहीं, क्या ऐसी कोई व्यवस्था हमारे संविधान में है? फिर लोकपाल व्यवस्था में आरक्षण का प्रावधान क्यों?

उत्तर प्रदेश के चुनाव के लिए

इसके लिए कारण है| अनुसूचित जाति या अनुसूचित जमाति या महिलाओं की चिंता यह वो कारण नहीं| मुस्लिम मतों की चिंता यह सही कारण है| और आरक्षण की श्रेणी में केवल मुस्लिमों का ही अंतर्भाव किया, तो उस पर पक्षपात का आरोप होगा, यह भय कॉंग्रेस को लगा इसलिए मुस्लिमों के साथ महिला और अनुसूचित जाति एवं जमाति को भी जोड़ा गया| कॉंग्रेस को चिंता दो-तीन माह बाद होनेवाले उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव की है| इस चुनाव की संपूर्ण जिम्मेदारी युवराज राहुल गांधी ने स्वीकारी है| एक वर्ष पूर्व, बिहार विधानसभा के चुनाव में उनके नेतृत्व की जैसी धज्जियॉं उड़ी थी, वैसा उत्तर प्रदेश के चुनाव में ना हो, इसके लिए सर्वत्र जॉंच-फूककर रणनीति बनाई जा रही है| इस रणनीति के तहत ही, अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के सत्ताईस प्रतिशत आरक्षण में साडे चार प्रतिशत मुस्लिमों को देना सरकार ने तय किया है| इस कारण ओबीसी मतदाता नाराज होगे, लेकिन कॉंग्रेस को उसकी चिंता नहीं| कारण, उ. प्र. में ओबीसी कॉंग्रेस के साथ नहीं और आने की भी सम्भावना नहीं| मुस्लिम मतदाता किसी समय कॉंग्रेस के साथ था| बाबरी ढ़ॉंचा ढहने के बाद वह कॉंग्रेस से टूट चुका है| उसे फिर अपने साथ जोड़ने के लिए यह चाल है| उ. प्र. विधानसभा के करीब १०० मतदार संघों में मुस्लिम चुनाव के परिणाम पर प्रभाव डाल सकते है| इसलिये कॉंग्रेस को चिंता है| इस चिंता के कारण ही, यह साडे चार प्रतिशत आरक्षण है, इस कारण ही लोकपाल विधेयक में भी वैसा प्रावधान है|

सेक्युलर!

मुस्लिमों के लिए ‘कोटा’ यह पहली पायदान होगी| आगे चलकर स्वतंत्र मतदार संघों की मांग आएगी और सत्ताकांक्षी, अदूरदर्शी, स्वार्थी राजनेता वह भी मान्य करेगे| भारत का विभाजन क्यों हुआ, इसका विचार भी ये घटिया वृत्ति के नेता नहीं करेगे| इस संबंध में और एक मुद्दा ध्यान में लेना आवश्यक है| विद्यमान ओबीसी में कुछ पिछड़ी मुस्लिम जातियों का समावेश है| उन्हें ओबीसी में आरक्षण प्राप्त है| लेकिन उनकी मुस्लिम के रूप में स्वतंत्र पहेचान नहीं| सरकार को वह स्वतंत्र पहेचान करानी और
कायम रखनी है, ऐसा दिखता है| राष्ट्रजीवन के प्रवाह के साथ वे कभी एकरूप ना हो, इसके लिए यह सब कवायत चल रही है| और यह सरकार स्वयं को ‘सेक्युलर’ कहती है| पंथ और जाति का विचार कर निर्णय लेनेवाली सरकार ‘सेक्युलर’ कैसे हो सकती है, यह तो वे ही बता सकते है!मुस्लिमों के लिए आरक्षण संविधान के विरुद्ध है, यह कॉंग्रेस जानती है| भाजपा और अन्य कुछ पार्टियॉं इसका विरोध करेगी यह भी कॉंग्रेस जानती है| इतना ही नहीं तो न्यायालय में जाकर, अन्य कोई भी इसे रद्द करा ले सकता है, यह भी कॉंग्रेस को पता है| फिर भी, कॉंग्रेस लोकपाल संस्था में सांप्रदायिक अल्पसंख्यकों का अंतर्भाव करने का आग्रह क्यों कर रही है? इसका भी कारण उत्तर प्रदेश के चुनाव ही है| सर्वोच्च न्यायालय, मुस्लिमों के लिए रखा यह आरक्षण संविधान विरोधी घोषित करेगा, इस
बारे में शायद किसी के मन में संदेह नहीं होगा| लेकिन, इससे कॉंग्रेस की कोई हानि नहीं होगी| हमने आपके लिए प्रावधान किया था| भाजपा और अन्य पार्टियों ने उसे नहीं माना, इसमें हमारा क्या दोष है, यह कॉंग्रेस का युक्तिवाद रहेगा| अर्थमंत्री प्रणव मुखर्जी ने उसका संसूचन भी किया है| चीत भी मेरी पट भी मेरी- यह कॉंग्रेस की चालाकी है|

चिंता की बात

आरक्षण के प्रावधान ने एक और बात स्पष्ट की है| सरकार का प्रारूप कहता है कि, आरक्षण पचास प्रतिशत से कम नहीं रहेगा|  लोकपाल संस्था में नौ सदस्य रहेगे| उसका पचास प्रतिशत मतलब साडे चार होता है| मतलब व्यवहार में नौ में से पॉंच सदस्य आरक्षित समूह से होगे| फिर गुणवत्ता का क्या होगा? गुणवत्ता अल्पसंख्य सिद्ध होगी; और इस गुणवान अल्पसंख्यत्व की किसे भी चिंता नहीं, यह इस सरकारी विधेयक  में का चिंता का विषय है|

एक अच्छा प्रावधान

प्रस्तावित सरकारी विधेयक में लोकपाल की कक्षा में प्रधानमंत्री को लाया गया है, यह अच्छी बात है| टीम अण्णा की यही एक मांग संप्रमो सरकार ने मान्य की है| शेष मांगों को अंगूठा दिखाया है| प्रधानमंत्री के बारे में कुछ विषयों का अपवाद किया गया यह सही हुआ| इसी प्रकार, न्यायपालिका को लोकपाल की कक्षा के बाहर रखा गया, इस बारे में भी सर्वसाधारण सहमति ही रहेगी| इसका अर्थ न्यायापालिका में भ्रष्टाचार ही नहीं, ऐसा करने का कारण नहीं| न्या. मू. रामस्वामी और न्या. मू. सौमित्र सेन को महाभियोग के मुकद्दमें का सामना करना पड़ा था| पंजाब-हरियाना न्यायालय में के निर्मल यादव इस न्यायाधीश पर मुकद्दमा चल रहा है| निलचे स्तर पर क्या चलता है या क्या चला लिया जाता है, इसकी न्यायालय से संबंध आनेवालों को पूरी कल्पना है| लेकिन उसके लिए एक अलग कायदा उचित होगा ऐसा मेरे समान अनेकों का मत है| इसी प्रकार नागरिक अधिकार संहिता (सिटिझन चार्टर)  सरकार ने बनाई है| सरकार का यह निर्णय भी योग्य लगता है|

सरकारी कर्मचारी

परन्तु ‘क’ और ‘ड’ श्रेणी के सरकारी कर्मचारियों को लोकपाल से बाहर रखा गया, यह गलत है| सबसे अधिक भ्रष्टाचार इन्हीं दो वर्ग के सरकारी कर्मचारियों द्वारा होता है| यह केवल तर्क नहीं या पूर्वग्रहाधारित धारणा नहीं| ‘इंडियन एक्स्प्रेस’ इस अंग्रेजी दैनिक के २२ दिसंबर के अंक में कर्नाटक के लोकायुक्त के काम का ब्यौरा लेनेवाला लेख प्रसिद्ध हुआ है| बंगलोर में के अझीम प्रेमजी विश्‍वविद्यालय में के ए. नारायण, सुधीर कृष्णस्वामी और विकास कुमार इन संशोधकों ने, छ: माह परिश्रम कर जो संशोधन किया, उसके आधार पर ऐसा निश्‍चित कहा जा सकता है| इन संशोधकों ने १९९५ से २०११ इन सोलह वर्षों की कालावधि का कर्नाटक के लोकायुक्त के कार्य का ब्यौरा लिया है| अब तक सबको यह पता चल चुका होगा कि, कर्नाटक में का लोकायुक्त कानून, अन्य राज्यों के कानून की तुलना में कड़ा और धाक निर्माण करनेवाला है| इसके लिए और एक राज्य का अपवाद करना होगा, वह है उत्तराखंड| उत्तराखंड की सरकार ने हाल ही में लोकायुक्त का कानून पारित किया है| उस कानून की प्रशंसा स्वयं अण्णा हजारे ने भी की है| लेकिन उसके अमल के निष्कर्ष सामने आने के लिए और कुछ समय लगेगा| कर्नाटक में जो कानून सोलह वर्ष से चल रहा है और उसके अच्छे परिणाम भी दिखाई दिए है|

सरकार की नियत

हमारा विषय था कर्नाटक के लोकायुक्त के काम का ब्यौरा| उसमें ऐसा पाया गया है कि वरिष्ठ श्रेणी में के सरकारी नौकरों में भ्रष्टाचार का प्रमाण, कुल भ्रष्टाचार के केवल दस प्रतिशत है| आयएएस, आयपीएस आदि केन्द्र स्तर की परीक्षा में से आए अधिकारियों में भ्रष्टाचार का प्रमाण तो पूरा एक प्रतिशत भी नहीं| वह केवल ०.८ प्रतिशत है| मतलब कर्नाटक के लोकायुक्त ने देखे भ्रष्टाचार के मामलों में के ९० प्रतिशत सरकारी कर्मचारी ‘क’ और ‘ड’ श्रेणी के थे| और संप्रमो सरकार ने लाए प्रस्तावित विधेयक में, इन दोनों श्रेणी के सरकारी कर्मचारियों को लोकपाल/लोकायुक्त से बाहर रखा गया है| भ्रष्टाचार समाप्त करने के संदर्भ में इस सरकार की नियत इस प्रकार की है|

सीबीआय

और एक महत्त्व का मुद्दा यह कि सीबीआय इस अपराध जॉंच विभाग को लोकपाल से बाहर रखा गया है| टीम अण्णा को यह पसंद नहीं| यह यंत्रणा लोकपाल की कक्षा में ही रहे यह उनकी मांग है| कर्नाटक के लोकायुक्त के बारे में संशोधकों ने ब्यौरा लिया है उससे अण्णा और टीम अण्णा की मांग कैसे योग्य है, यह समझ आता है| कर्नाटक के लोकायुक्त को, भ्रष्टाचार के अपराध के जॉंच के अधिकार है| इतना ही नहीं, एक नए संशोधन के अनुसार वह, किसी ने शिकायत ना की हो तो भी (सुओ मोटो) फौजदारी जॉंच कर सकता है, ऐसे अधिकार उसे दिए गए है| वैसे देखा जाय तो स्वयं अपनी ओर से जॉंच किए मामलों की संख्या बहुत अधिक नहीं, केवल ३५७ है| विपरित अन्यों की शिकायत पर जॉंच किए गए मुक द्दमों की संख्या २६८१ है| इस प्रावधान ऐसी धाक निर्माण हुई है कि, गत कुछ वर्षों में अकस्मात छापे मारने के मामलों में लक्षणीय कमी हुई है| टीम अण्णा के एक सदस्य भूतपूर्व न्या. मू. संतोष हेगडे है, यह हम सब जानते है| वे २००६ से २०११ तक कर्नाटक के लोकायुक्त थे; और उन्होंने ही कर्नाटक के मुख्यमंत्री को भी त्यागपत्र देने के लिए बाध्य किया था| लोकपाल तथा लोकायुक्त की धाक होनी ही चाहिए| ऊपर लोकायुक्त की ओर से संभावित भ्रष्टाचारीयों के ठिकानों पर मारे गए छापों की जो संख्या दी गई है उसमें से ६६ प्रतिशत छापे, संतोष हेगडे के लोकायुक्त काल के है|

धाक आवश्यक

तात्पर्य यह कि, प्रस्तावित सरकारी विधेयक में के लोकपाल एक दिखावा (जोकपाल) है| यह अण्णा हजारे को ठगना है| कम से कम कर्नाटक में जैसा सक्षम लोकायुक्त कानून है, वैसा केन्द्र में लोकपाल का होना चाहिए| लोकायुक्त की नियुक्ति हर राज्य ने करनी चाहिए ऐसा इस विधेयक में कहा गया है, वह योग्य है| यह देश की संघीय रचना को बाधक है, आदि जो युक्तिवाद किया जा रहा है, वह निरर्थक है| कर्नाटक के समान अनेक राज्यों ने कम-अधिक सक्षम लोकायुक्त पहले ही नियुक्त किए है| वैसा कानून उन राज्यों में है| कहा जाता हे कि महाराष्ट्र में भी, लोकायुक्त कानून है| लोकायुक्त भी है| लेकिन उसे कोई मूलभूत अधिकार ही नहीं है| कर्नाटक के समान ही उत्तर प्रदेश के लोकायुक्त को भी सक्षम अधिकार होगे, ऐसा दिखता है| उस लोकायुक्त ने भी पॉंच-छ: मंत्रियों को जेल की राह दिखाई है|

लोग सर्वश्रेष्ठ

जो एक मुद्दा, इस प्रस्तावित लोकपाल विधेयक की चर्चा में आया नहीं और जिसकी चर्चा संसद में की चर्चा में भी नहीं होगी और जो मुझे महत्त्व का लगता है, उसका उल्लेख मैं यहॉं करनेवाला हूँ| वह है संसद सदस्यों द्वारा होनवाले भ्रष्टाचार का| चुनाव के दौरान, उम्मीदवारों ने किए भ्रष्टाचार की दखल चुनाव आयोग लेता है, यह अच्छा ही है| लेकिन जो लोकप्रतिनिधि चुनकर आते है और उस नाते शान से घूमते है, उनके भ्रष्टाचार की दखल कौन लेगा? इस बारे में संसद निष्प्रभ साबित हुई है, यह सब को महसूस हुआ है| पी. व्ही. नरसिंहराव के कार्यकाल में के झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों को खरीदने का मामला, झामुमो के नेता शिबु सोरेन की मूर्खता के कारण, स्पष्ट हुआ, इसलिए उस भ्रष्टाचार का हमें पता चला| लेकिन, २००८ में मनमोहन सिंह की सरकार बचाने के लिए सांसदों की खेरदी-बिक्री हुई, उसका क्या हुआ, यह सब को पता है| जिन्होंने खरेदी-बिक्री के व्यवहार की जानकारी दी  उन्हें जेल की हवा खानी पड़ी| लेकिन यह लज्जास्पद व्यवहार जिन्होंने कराया, वे तो आज़ाद है| और संसद उनके बारे में कुछ भी नहीं कर सकेगी| फिर उनके ऊपर किसका अंकुश रहेगा? इसलिए निर्वाचित लोकप्रतिनिधियों को भी लोकपाल में लाना चाहिए| ‘संसद सार्वभौम है’, आदि बातें अर्थवादात्मक है| स्वप्रशंसापर है| कानून बनाने का अधिकार संसद का है, यह कोई भी अमान्य नहीं करेगा| लेकिन संसद से श्रेष्ठ संविधान है| संसद संविधान की निर्मिति है| संसद ने कोई कानून पारित किया और वह संविधान के शब्द और भावना से सुसंगत ना रहा, तो न्यायालय वह कानून रद्द करता है| इसके पूर्व ऐसा अनेक बार हुआ है| इस कारण संसद की सार्वभौमिकता का अकारणढ़िंढोरा पिटने की आवश्यकता नहीं, और संविधान से भी श्रेष्ठ लोग है| We, the People of India इन शब्दों से संविधान का प्रारंभ होता है| हम मतलब भारत के लोगों ने, न्याय, स्वातंत्र्य, समानता, बंधुता इन नैतिक गुणों के आविष्कार के लिए यह संविधान बनाया, यह हमारी मतलब हम भारतीयों की घोषणा है, अभिवचन है; और वह पाला जाता है या नहीं, इसकी जॉंच करने का जनता को अधिकार है|

दबाव आवश्यक

टीम अण्णा ने जनता की आवाज बुलंद की यह सच है| उस आवाज का दबाव सरकार पर पडा यह भी सच है| लेकिन इस दबाव के कारण ही - लोकपाल को नाममात्र अधिकार देनेवाले ही सही - कानून का प्रारूप सरकार प्रस्तुत कर सकी| लेकिन इस सरकारी प्रारूप ने, लोगों को निराश किया| इस कारण टीम अण्णा के सामने आंदोलन के अतिरिक्त दुसरा विकल्प नहीं बचा| निर्वाचित लोकप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का प्रावधान चुनाव के नियमों में होता, तो कॉंग्रेस और उसके मित्रपार्टियों के आधे से अधिक सांसद घर बैठ चुके होते| मनमोहन सिंह की इस सरकार ने, २००९ में उसे मिला जनादेश खो दिया है| उसने यथासत्त्वर जनता के सामने पुनर्निर्वाचन के लिए आना यह जनतांत्रिक व्यवस्था के तत्त्व और भावना के अनुरूप होगा|

- मा. गो. वैद्य
babujivaidya@gmail.com
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)     
                       

Sunday 18 December 2011

चालीस वर्ष पूर्व का गौरव दिन

    २१ दिसंबर के लिए भाष्य

१६ दिसंबर १९७१ को, मतलब ठीक चालीस वर्ष पूर्व, भारत ने स्वातंत्र्योत्तर काल में एक महान् गौरव प्राप्त किया था| भारते की फौज ने पाकिस्तान को बुरी तरह से परास्त किया था| नया, स्वतंत्र बांगला देश उसी कारण निर्माण हो पाया| पाकिस्तान के दो टुकडे हुए| पाकिस्तान की तानाशाही को एक सबक मिला|

पाकिस्तान की शरणागति

इस्लाम का आधार लेकर भारत को तोडकर बने पाकिस्तान ने अपने जन्म के दिन से ही भारत के साथ शत्रुत्व का व्यवहार करना ही पसंद किया| प्रथम १९४७ में, टोलीवालों के बहाने काश्मीर पर उसने आक्रमण किया| भारतीय फौज वह आक्रमण पूरी तरह से विफल कर पाकिस्तानियों को खदेड रही थी, उसी समय हमारे राजकर्ताओं को कुबुद्धि सूझी; और उन्होंने, पाकिस्तान ने नहीं, हमारे विजयी फौज का आगे बढ़ना रोका| अकारण, काश्मीर का प्रश्‍न राष्ट्रसंघ में गया| इस बात ६४ वर्ष हो गए है| लेकिन प्रश्‍न जस का तस बना है| पाकिस्तान ने आक्रमण कर हथियाया जम्मू-काश्मीर राज्य का प्रदेश, अभी भी पाकिस्थान के ही कब्जे में है| १९६२ को, चीन से हमें करारी हार मिली| दुनिया भर में भारत की बेइज्जती हुई| पाकिस्तान को लगा कि, भारत को पराभूत करना अपने हाथ का मैल है| इसलिए उसने १९६५ में पुन: धाडस किया| लेकिन इस युद्ध में पाकिस्तान के हाथ कुछ नहीं लगा| भारतीय फौज बिल्कुल लाहोर की सीमा तक जा पहुँची थी| तथापि, युद्ध में पाकिस्तान ने जो गवॉंया था, वह उसने ताशकंद में हुए समझौते के टेबल पर वापस हासिल कर लिया| लेकिन १९७१ में भारत ने पाकिस्तान को निर्विवाद तरीके से पराभूत किया| पाकिस्थान को घुटने टेककर शरण आना पड़ा| वह दिन था, १६ दिसंबर १९७१| उस दिन पाकिस्थान के पूर्व क्षेत्र के सेनापति लेक्टनंट जनरल ए. ए. के. नियाझी ने शरणागति स्वीकार की| पाकिस्तान के ९३ हजार सैनिक भारत के कैदी बने|

इंदिरा जी का अभिनंदन

इस गौरवास्पद विजय के लिए भारत की फौज का मुक्तकंठ से अभिनंदन करना चाहिए| इसके साथ ही, उस समय की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी का भी अभिनंदन करना चाहिए| वे दृढ रही| आंतरराष्ट्रीय वातावरण भारत के लिए अनुकूल नहीं था| चीन और अमेरिका की मित्रता हुई थी| और ये दोनों बलवान देश पाकिस्तान के समर्थन में खड़े थे| उस समय इंदिरा जी ने रूस का दौरा किया| रूस के साथ मित्रता का अनुबंध किया| वह समय अमेरिका और रूस के बीच के शीतयुद्ध का था| चीन के साथ रूस के संबंध बिगडे थे| इस स्थिति का इंदिरा जी ने चतुराई से लाभ उठाया| इस कारण चीन कोई साहस नहीं कर सका; और अमेरिका को भी अपने पाकिस्तान-प्रेम में फौजी सहायता का कदम उठाने के पूर्व विचार करने के लिए बाध्य किया| अमेरिका ने अण्वस्त्रों से सुसज्जित अपना नौसेना का सातवा बेड़ा भारत की दिशा में भेजा, लेकिन उसके पहुँचने के पहले ही युद्ध का फैसला हो चुका था| पाकिस्तान ने शरणागति स्वीकारी थी| श्रीमती गांधी का गौरव इसलिए भी करना चाहिए कि, उन्होंने अपनी फौज के जीत की राह रोकी नहीं| १९४७ के समान आत्मघातकी निर्यय नहीं लिया| दुनिया क्या कहेगी, इस विचार से भी नहीं डगमगाई| जिन गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों के नेता का भारत का स्थान था, उन गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों को भी भारत का यह ‘आक्रमक’ कदम पसंद नहीं था| संयुक्त राष्ट्रसंघ में बांगला देश का प्रश्‍न उपस्थित हुआ तब, भारत के मित्र कहे जानेवाले अधिकतर राष्ट्रों ने भारत की भूमिका का समर्थन नहीं किया| अच्छे और बुरे, मित्र और शत्रु में से एक का चुनाव करने के बारे में भी वे राष्ट्र तटस्थ रहे| श्रीमती गांधी ने इन राष्ट्रों की परवाह नहीं की| उन्होंने दृढ रहकर, चौदह दिनों के अल्प काल में, जीत हासिल कर, भारत का नाम और प्रतिष्ठा उज्ज्वल की|

इस्लाम की मर्यादा

इस युद्ध ने कुछ बातें अधोरेखित की| पहली यह कि, इस्लाम की कटिबद्धता, राष्ट्र या लोगों को जोडकर नहीं रख सकती| इस्लाम के आधार पर पाकिस्तान निर्माण किया गया| ‘इस्लाम खतरें में’ का नारा देकर, मुसलमानों की बहुसंख्या का भाग, भारत से अलग हुआ| पश्‍चिम की ओर के चार प्रांत एकत्र हुए| वे चार प्रांत है बलुचिस्थान, वायव्य सरहद प्रांत, पंजाब और सिंध| तो पूर्व में बंगाल| एक पश्‍चिम पाकिस्तान, और दूसरा पूर्व पाकिस्तान बना| इन दो भागों में डेढ हजार किलोमीटर से अधिक दूरी है|
भारत से अलग होने के लिए, इस्लाम यह आधार उन्हें उपयुक्त लगा| लेकिन वह इस्लाम उन्हें एक नहीं रख पाया| बहाना बना भाषा का| पूर्व पाकिस्तान के लोगों की भाषा बंगाली थी और आज भी है, तो पश्‍चिम पाकिस्तान उर्दूूभाषी| उर्दू के साथ बंगाली को भी राज्यभाषा का दर्जा दे, इतनी छोटी मांग पूर्व पाकिस्तान की थी| पाकिस्तान के फौजी प्रशासकों ने उर्दू थोपने का प्रयास किया| बंगाली भाषिकों ने इसका प्रखर विरोध किया| मध्यम वर्ग और विद्यार्थी तानाशाही के विरुद्ध मैदान में उतरे|

दमन

इस्लाम व्यावर्तक (exclusivist) पंथ है| सर्वसमावेशकता (inclusiveness) उसे हजम नहीं होती, यह इस संघर्ष ने स्पष्ट किया है| जनतंत्र के प्राथमिक तत्त्व भी वे नहीं मानते| जनरल अयुब खान की फौजी तानाशाही समाप्त करने के बाद १९७० के दिसंबर में संपूर्ण पाकिस्तान में आम चुनाव हुए| उस चुनाव में पूर्व पाकिस्तान के बंगाली भाषी नेता मुजीबुर रहमान की अवामी लीग पार्टी को बड़ी सफलता मिली| पूर्व पाकिस्तान में की १६२ में से १६० सिटों पर अवामी लीग विजयी हुई| संपूर्ण पाकिस्तान की संसद में भी अवामी लीग को बहुमत प्राप्त हुआ था| स्वाभाविक ही, मुजीबुर रहमान पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बनते| वे भी मुसलमान ही थे| लेकिन उर्दूभाषी नहीं थे| उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनने देना, ऐसा षड्यंत्र, उस समय के अध्यक्ष जनरल याह्याखान और सिंध से चुनकर आये झुल्फीकार अली भुत्तो ने मिलकर रचा| और मुजीबुर रहमान को गिरफ्तार कर उन्हें कैद में डाल दिया| स्वाभाविक ही, जनक्षोभ और अधिक भड़का| निदर्शन आरंभ हुए| याह्याखान और भुत्तो ने फौजी ताकद का प्रयोग कर वह जन-आक्रोश कुचलने का प्रयास किया| जनरल टिक्काखान को पूर्व पाकिस्तान भेजा गया| टिक्काखान की फौज ने अपने और पराए मतलब मुस्लिम और अन्य ऐसा भेदभाव किए बिना अत्याचार का तांडव शुरू किया| कितने लोगों का कत्ल हुआ इसकी गिनती ही नहीं| अंदाज है कि कम से कम एक लाख लोग मारे गए होगे; और दूसरा अत्याचार महिलाओं पर बलात्कार का| लोगों को भयभीत करने का यह खास उपाय मुस्लिम फौज अपनाती है और इसमें भी उन्होंने भेदभाव नहीं रखा!

बांगला देश स्वतंत्र

ऐसे अत्याचारों से जनक्षोभ समाप्त नहीं होता, यह दुनिया का इतिहास है| आज २०११ में हमने इस सत्य का आविष्कार ट्युनेशिया, मिस्र और लिबिया में देखा है| ४० वर्ष पूर्व वह पाकिस्तान में देखने को मिला| बंगला भाषिकों ने, पाकिस्तान की गुलामी से मुक्त होने के लिए मुक्तिवाहिनी (मुक्तिसेना) स्थापन की| यह घटना मार्च १९७१ की होगी| बंगला भाषिकों ने अपनी सरकार भी स्थापन की| अर्थात् निर्वासित सरकार| और मुख्य यह कि भारत सरकार ने उस सरकार को संपूर्ण मदद की| भारत की फौज मुक्तिवाहिनी की सहायता के लिए सुसज्ज थी| लेकिन बारिश समाप्त होने की राह देखना उन्हें योग्य लगा| इसलिए प्रत्यक्ष युद्ध कुछ समय लंबा खींचा| युद्ध के लिए, कुरापात पाकिस्तान ने ही की| ३ दिसंबर १९७१ को, पाकिस्तान की हवाई सेना ने, सीमा पर तैनात भारतीय सैनिकों की छावनियों पर हमले किये| और युद्ध आरंभ हुआ| वह १६ दिसंबर को समाप्त हुआ| भारत की स्पष्ट जीत के साथ| मुजीबुर रहमान को रिहा किया गया| वे पूर्व पाकिस्तान की राजधानी ढाका आये| उन्होंने बांगला देश के निर्मिति की घोषणा की| उस देश का पूरा नाम है ‘गण प्रजातन बांगला देश’ मतलब प्रजातंत्रवादी गणराज्य (रिपब्लिक) बांगलादेश|

मुजीबुर रहमान की हत्या

मुजीबुर रहमान ने सांसदीय जनतांत्रिक व्यवस्था स्वीकार की थी| लेकिन पता नहीं क्यों १९७५ की जनवरी में हुए चुनाव में की सफलता के बाद मुजीबुर रहमान ने अध्यक्षीय पद्धति का पुरस्कार किया| अध्यक्षीय पद्धति भी जनतांत्रिक हो सकती है| अमेरिका, फ्रान्स में ऐसी ही पद्धति है| लेकिन वहॉं अनेक पार्टिंयॉं हो सकती है| मुजीबुर रहमान एकदलीय राज पद्धति चाहते होगे, या सारी सत्ता अपने हाथों में केन्द्रित रहे, ऐसा उन्हें लगता होगा, ऐसा तर्क करने के लिए कारण है| कुछ भी हो, लोगों को, मुस्लिम बहुसंख्य देश को भी जनतंत्र सुहाया, इस बारे में समाधान हुआ| लेकिन यह दिलासा अधिक समय नहीं टिक पाया| केवल आठ माह में, निश्‍चित कहे तो १५ ऑगस्त १९७५ को मुजीबुर रहमान और उनके परिवार की हत्या की गई और मुख्य सेनापति मेजर जनरल झिया उर रहमान सत्ताधीश बने| उन्होंने १९७८ में अध्यक्षीय राज पद्धतिनुसार चुनाव कराए और उस चुनाव में वे राष्ट्राध्यक्ष चुने भी गए| उन्होंने छ: वर्ष राज किया और फिर बिरासत निश्‍चित करने के इस्लामी परंपरा के अनुसार ३० मई १९८१ में उनकी भी हत्या हुई| न्या. मू. अब्दुल सत्तार अध्यक्ष बने| लेकिन उनके विरुद्ध भी जनक्षोभ हुआ| और २४ मार्च १९८२ को जनरल ईर्शाद यह फौजी अधिकारी सत्ता में आए| सत्तार का नसीब कुछ अच्छा माने| कारण, उनकी हत्या नहीं हुई| खून का बूंद भी बहाए बिना बांगला देश में फौज ने क्रांति की| जनरल ईर्शाद १९९० तक सत्ता में थे फिर उन्हें भी हटना पड़ा| उनका भी नसीब अच्छा था| वे आज भी जीवित है| १९९१ के फरवरी माह में वहॉं संसद के चुनाव हुए| भूतपूर्व फौजी तानाशाह झिया उर रहमान की पत्नी बेगम खालिदा झिया प्रधानमंत्री बनी| उनकी पार्टी का नाम है ‘बांंगला देश जातीय (=राष्ट्रीय) पार्टी’| आज अवामी लीग की शेख हसीना वाजीद प्रधानमंत्री है| वे शेख मुजीबुर रहमान की कन्या है और मुजीबुर रहमान ने स्थापन की अवामी लीग की नेता है| गत बीस वर्षों से वहॉं जनतांत्रिक पद्धति से राजव्यवस्था चल रही है| बांगला देश जातीय पार्टी और अवामी लीग क्रमक्रम से सत्ता भोग रही है| इसका अर्थ उस देश में सांसदीय पद्धति का विकास हुआ है, ऐसा नहीं लिया जा सकता| देश में फौजी शासन नहीं, नागरी शासन है, इतना ही मर्यादित अर्थ स्वीकारना उचित होगा|

सेक्युलॅरिझम् समाप्त हुआ

बांगला देश की स्थापना हुई, उस समय मुजीबुर रहमान ने यह देश स्वतंत्रता का पुरस्कार करेगा, राज्य व्यवस्था पंथनिरपेक्ष (सेक्युलर) रहेगी, सांस्कृतिक बाहुल्य की कदर करनेवाला रहेगा और सब नागरिकों को समान माननेवाला होगा, ऐसा आश्‍वासन दिया था| लेकिन उनके बाद आये राजकर्ताओं ने उस आश्‍वासन का पालन नहीं किया| मुसलमानों को श्रेष्ठत्व और मुस्लिमों के अलावा अन्य को गौणत्व प्रदान करने वाली व्यवस्था पुन: शुरू हुई| मुजीबुर रहमान की हत्या के बाद किसी ने भी ‘सेक्युलर’ शब्द का प्रयोग नहीं किया| इतना ही नहीं, जनरल झिया उर रहमान, जिन्होंने १९७५ से १९८१ तक राज किया, उन्होंने बांगला देश के संविधान में से ही ‘सेक्युलर’ शब्द हटा दिया| पंथाधारित राजनीतिक दलों पर की बंदी भी हटा दी| उनके बाद आये जनरल ईर्शाद तो उससे भी आगे बढ़ गए| उन्होंने इस्लाम को राज्य का अधिकृत धर्म ही घोषित कर दिया| इन दोनों फौजी तानाशाहों ने इस्लामी धार्मिक संस्थाओं को हर संभव सहायता देकर अपना जनाधार संगठित किया| विद्यमान प्रधानमंत्री शेख हसीना को इस बात का श्रेय देना चाहिए कि, उन्होंने पुन: देश के संविधान में ‘सेक्युलर’ शब्द अंतर्भूत किया है| यह सच है कि, केवल शब्द महत्त्व का नहीं है| उसके अनुसार आचरण अपेक्षित है| यह होने के लिए कुछ समय देना होगा| लेकिन अवामी लीग ही सत्ता मे रहेगी, इसकी गारंटी कौन दे सकता है? खलिदा झिया, भूतपूर्व राष्ट्राध्यक्ष झिया उर रहमान की पत्नी है; और झिया ने ही संविधान में से वह शब्द हटा दिया था| उनका राज कई वर्ष चला; और उनका व्यवहार पंथनिरपेक्ष था ही नहीं|

भारत का क्या लाभ?

इस संदर्भ में और एक विचारणीय मुद्दा यह है कि, बांगला देश को स्वतंत्रता दिलाने में भारत को क्या लाभ हुआ? एक लाभ निश्‍चित ही हुआ कि, पाकिस्तान कमजोर हुआ| कभी ना कभी पाकिस्तान के साथ निर्णायक युद्ध होगा ही, ऐसा राजनीतिक विचारकों का मत है| ऐसी परिस्थिति निर्माण हुई तो, कम से कम पूर्व की ओर से हमला नहीं होगा| तुलना में वह दिशा सुरक्षित रहेगी| यह लाभ कम महत्त्वपूर्ण नहीं| बांगला देश के लोग और राजकर्ता, उन्हें स्वतंत्रता दिलाने के लिए भारत के प्रति कृतज्ञ रहेगे, यह अपेक्षा खोखली साबित हुई है| पाकिस्तान के समान शत्रुत्व का भाव बांगला देश ने प्रदर्शित नहीं किया, लेकिन मित्रता के सबूत बहुत ही थोडे हैं, और वह भी कुछ समय पूर्व के ही| भारत के विरुद्ध, पाकिस्तान प्रेरित हो अथवा चीनपुरस्कृत, आतंकवादी कारवाईयॉं करनेवालों को बांगला देश में प्रशय मिला है| उसमें भी अब कुछ इष्ट परिवर्त हुआ है| तथापि, इन आतंकवादियों के प्रशिक्षण के अड्डे बांगला देश में थे और आज भी होंगे, इस बारे में संदेह नहीं| भारत और बांगला देश की सीमा कमजोर है| बांगला देश की जनसंख्या बहुत अधिक है| करीब बीस करोड होगी| इतनी बड़ी जनसंख्या के लिए वहॉं जमीन कम पड़ती है| इसलिए बांगलादेशी घुसपैंठियों के झुंड भारत में आते रहते है| बांगला देश, उन्हें रोक नहीं पाया, यह सत्य है| लेकिन इसके लिए केवल बांगला देश को दोष देने से बात नहीं बनेगी| दोष तो हमारे देश के राजकर्ताओं की ढूलमूल नीति और अपने स्वार्थी सियासत के लिए वोटबँक तैयार करने के मनसुबों का ही है और यह अधिक घातक है|

प्रश्‍न कायम

पाकिस्तान का पराभव करने के बाद हम पाकिस्तान पर धाक कायम नहीं रख सके| १९७२ में, मतलब बांगला देश स्वतंत्र होने के बाद, सिमला में पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री भुत्तो और भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बीच समझौता हुआ| हम विजेता होने के बावजूद उस समझौते में सफल नहीं हो सके| काश्मीर के प्रश्‍न का फैसला कर सकते थे| लेकिन नही किया| उसके बाद भुत्तो अधिक समय अधिकारपद पर नहीं रहे| १९७७ में उनकी गच्छन्ति हुई| और पुन: फौजी तानाशाही शुरू हुई| कट्टरपंथी झिया उल हक्क राष्ट्राध्यक्ष बने| उनके सत्ताकाल में पुन: इस्लामी कट्टरवाद को प्रोत्साहन मिला| उन्होंने आतंकी संगठनों द्वारा भारत के विरुद्ध छद्म युद्ध किया| उसे अमेरिका का भी समर्थन था| इस्लामी कट्टरवाद क्या होता है, इसका अमेरिका को, उसके प्रतिष्ठा के स्थानों पर इस्लामी आतंकियों ने हमाल करने के बाद ही अहसास हुआ| प्रत्यक्ष या परोक्ष आतंकवाद को पाकिस्तान का मतलब पाकिस्तान की फौज का समर्थन और मार्गदर्शन रहता है (और पाकिस्तान में सही में सत्ता फौज की ही रहती है) यह अमेरिका अच्छी तरह से समझ चुकी है| पाकिस्तान को अमेरिका की ओर से दी जा रही सहायता का प्रवाह अब क्षीण हो रहा है| इस नई परिस्थिति का लाभ कैसे ले यह भारतीय राजकर्ताओं की चतुराई पर निर्भर है| लेकिन वह विषय अलग है|
हम सब ने ४० वर्ष पूर्व के उस गौरवमयी दिन का नित्य स्मरण रखना चाहिए| विद्यमान सरकार ने और जनता ने भी इस विजशाली दिन को याद नहीं रखा, इसका आश्‍चर्य लगा|

- मा. गो. वैद्य
babujivaidya@gmail.com
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)
                           

Sunday 11 December 2011

सरकार बची, लेकिन इज्जत गई

   भाष्य १४ दिसंबर के लिए   ....................................

आखिर डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार ने खुदरा वस्तुओं के व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश (एफडीआय) का निर्णय वापस लिया| प्रत्यक्ष विदेशी निवेश जनता के लाभ में है, किसानों के हित मे है, ऐसा दावा यह सरकार कर रही थी| तो विरोधी पार्टियॉं सरकार के इस निर्णय का विरोध कर रही थी| विरोधकों ने इसके लिए करीब डेढ सप्ताह संसद का काम नहीं चलने दिया|

कार्यक्षम उपाय?

व्यक्तिगत रूप में, मेरा अभी भी मत है कि, संसद में हो या विधिमंडल में, विरोध करने के शस्त्र अलग है| नारे लगाना, सभापति के आसन के सामने की खुली जगह में आना, सभापति का दंड हथियाना या धरने जैसे हंगामा करने के प्रकार करना, और संसद या विधिमंडल का काम नहीं चलने देना आक्षेपार्ह है| विरोध प्रकट करने के यह प्रकार एक समय सदन केबाहर चलने भी दिए जा सकते है| लेकिन सभागृह में वे चलने नहीं देने चाहिए| यह केवल सभापति का अपमान नहीं; संपूर्ण संसद का विधिमंडल मतलब संसदीय जनतंत्र का अपमान है; और सभापति ने यह चलने नहीं देना चाहिए| लेकिन अब ऐसा लगता है कि, युपीए के जैसी निगोडी सरकार को सीधा करने का यही एकमात्र कार्यक्षम मार्ग है|

सरकार ही जिम्मेदार

केवल, प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश के मुद्दे का ही अपना ‘दृढ’ निश्‍चय सरकार को बदलना पड़ा ऐसा नहीं| २ जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जॉंच करने के लिए संयुक्त संसदीय समिति गठित करे, विरोधकों की औचित्यपूर्ण मांग भी मनमोहन सिंह की सरकार ने मग्रुरी के साथ अमान्य कर दी थी और संसद का करीब एक सत्र व्यर्थ गवाया| सतही स्तर पर लगता है कि, विरोधकों की आक्रमकता इसके लिए कारण है| लेकिन अब विचारान्त ऐसा लगता है कि, इसके लिए सरकार ही जिम्मेदार है| २ जी स्पेक्ट्रम प्रकरण, संयुक्त संसदीय समिति को सौपने की मांग में गलत क्या था? और अगर वह गलत था तो सरकार ने, देर से ही सही, वह मान्य क्यों किया?

इज्जत गवाई

किसी भी स्वाभिमानी सरकार ने त्यागपत्र दिया होता, लेकिन स्वयं को अयोग्य लगनेवाली बात मान्य नहीं करती| लेकिन इस सरकार में स्वाभिमान ही नहीं| केवल कुर्सी बचाए रखना यही उसकी एकमात्र नीति दिखाई देती है| ऐसा केवल तर्क करने का भी अब कारण नहीं बचा है| अर्थमंत्री प्रणव मुखर्जी ने स्वयं ही मान्य किया| उन्होंने अपनी पार्टी के सांसदों के सामने भाषण करते समय स्पष्ट कहा कि, लोकसभा का मध्यावधि चुनाव टालने के लिए सरकार को यह निर्णय लेना पड़ा| प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश का मुद्दा इतना देश के हित में था और उससे किसान और सामान्य जनता का भी हित साध्य होनेवाला था, तो सरकार अपने निर्णय पर कायम रहती| होता सरकार का पराभव और मध्यावधि चुनाव| उससे सरकार का क्या बिगडता? क्या इसके पूर्व मध्यावधि चुनाव हुए नहीं? १९८९ के बाद केवल दो वर्ष मतलब १९९१ में चुनाव हुआ| १९९६ के बाद पुन: १९९८ में चुनाव हुआ. और उसके बाद केवल डेढ वर्ष बाद १९९९ में फिर चुनाव हुआ| किसान और जनता के हितों के लिए प्रतिबद्ध इस सरकार को पुन: चुनाव का सामना करना पडता, तो वह भी तीन वर्ष सत्ता भोगने के बाद| और इसके लिए सरकार को कोई दोष भी नहीं देता| विपरीत, अपने ‘न्याय्य और जनहितैषी’ निर्णय के लिए सरकार ने अपनी सत्ता का बलिदान दिया, ऐसा लोगों को बताने का उसे मौका मिलता| लेकिन ये लाचार सरकार यह कर नहीं सकी| उसने अपनी सत्ता कायम रखी; लेकिन इज्जत गवाई|

गठबंधन का धर्म

सब जानते है कि , यह अकेली कॉंग्रेस पार्टी की सरकार नहीं है| बहुमत के लिए आवश्यक कम से कम २७३ सिटों में से कॉंग्रेस पार्टी के पास केवल २०६ सिटें ही है| राष्ट्रवादी कॉंग्रेस, तृणमूल कॉंग्रेस और द्रमुक की मदद से यह सरकार चल रही है| ऐसी संमिश्र सरकार होना यह कोई अनोखी बात नहीं| आज का समय ही ऐसा नहीं है कि किसी एक पार्टी की सरकार सदा रहेगी| अन्य देशों में भी, उदाहराणार्थ इंग्लंड या जर्मनी में भी, संमिश्र सरकारे हैं| लेकिन सरकार में जो पार्टी सबसे बड़ी होती है, वह अपनी सहयोगी पार्टियों की भूमिका समझकर निर्णय लेती है| लेकिन युपीए - २ की सरकार को यह समझदारी नहीं सूझी| यह अनेक पार्टियों का गठबंधन है, इस कारण अन्य सहयोगी पर्टियों की राय क्या है, यह जान लेने की आवश्यकता सरकार में की सबसे बडी पार्टी कॉंग्रेस को महसूस नहीं हुई| वे अपनी ही मस्ती में निर्णय लेते रहे| प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश जैसे, देश की आर्थिक व्यवस्था पर गहरा परिणाम करनेवाला निर्णय लेने के पूर्व, सरकार ने, विरोधी पार्टियों, कम से कम प्रमुख विरोधी पार्टियों से चर्चा करनी चाहिए थी| कारण, यह केवल पार्टी के हित का प्रश्‍न नहीं था| संपूर्ण देश की आर्थिक व्यवस्था का प्रश्‍न था| सरकार ने यह तो किया ही नहीं| लेकिन अपने मित्र पार्टियों का भी मत नहीं जान लिया| सरकार की मित्रपार्टियों में से प्रमुख दो -तृणमूल कॉंग्रेस और द्रमुक  - ने इस प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश का विरोध किया था| लेकिन सरकार ने उसे भी नहीं माना| द्रमुक, थोडा समझाने के बाद झुकी, लेकिन तृणमूल की बबता बॅनर्जी दृढ रही; और एक प्रकार से विरोधी पार्टियों ने रखे काम रोको प्रस्ताव को समर्थन दिया| काम रोको प्रस्ताव देना यह वैध संसदीय शस्त्र है| वह मंजूर होता तो सरकार को त्यागपत्र नहीं देना पड़ता|  काम रोको प्रस्ताव मतलब अविश्‍वास प्रस्ताव नहीं| इस कारण, उसका समाना कर सरकार शक्तिपरिक्षण हो जाने देती| लेकिन सरकार ने यह सम्मानजनक मार्ग नहीं अपनाया| उसने सत्ता की लालच में, अपने ‘दृढ’ निर्णय को ही स्थगिति दी| इसमें  सरकार तो बची, लेकिन इज्जत गई|

विचारविनिमय आवश्यक

संमिश्र सरकार चलानी हो तो कुछ आवश्यक व्यवस्थाऐं करनी पड़ती है| मित्रों के साथ विचारविनिमय करने के लिए कोई यंत्रणा बनानी पड़ती है| ऐसी यंत्रणा होती तो सरकार को ऐसी लज्जाजनक स्तिति का सामना नहीं करना पड़ता| ऐसी जानकारी है कि, सरकार ऐसी कोई समिति निर्माण करनेवाली है| अच्छी बात है| कारण, संमिश्र सरकार के निर्णय, केवल एक पार्टी के निर्णय नहीं हो सकते| और, प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश केवल केन्द्र तक ही सीमित मुद्दा नहीं था| वह संपूर्ण देशव्यापी मुद्दा था| अपने देश में अनेक राज्य है| सब राज्यों में कॉंग्रेस पार्टी या कॉंग्रेस के मित्र पार्टीयों की सरकारें नहीं है| पश्‍चिम बंगाल का एक अपवाद छोड दे तो भी, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, त्रिपुरा, ओरिसा, तामिलनाडु, कर्नाटक, गुजरात. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ - इन राज्यों में कॉंग्रेस के विरोधियों की सरकारें हैं| देश की ६० प्रतिशत से अधिक जनसंख्या के भाग में कॉंग्रेस की अपनी सत्ता नहीं या मित्र पार्टियों के साथ भी कॉंग्रेस सत्ता में भी नहीं| सब मित्र पार्टियॉं मिलकर, तृणमूल कॉंग्रेस भी कॉंग्रेस पार्टी के साथ है, ऐसी कल्पना कर भी, कॉंग्रेस और मित्र पार्टियों की सत्ता रहनेवाले राज्यों की जनसंख्या संपूर्ण देश की जनसंख्या के ३८ प्रतिशत से अधिक नहीं होती| इस स्थिति में संपूर्ण देश की अर्थव्यवस्था का विचार करते समय, जहॉं विरोधी पार्टियों की सरकारे है, वहॉं के मुख्यमंत्रियों के साथ चर्चा करना आवश्यक नहीं था? प्रधानमंत्री ने बाद में स्पष्ट किया कि, राज्यों को, प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश का मुद्दा मानना या नहीं इसकी स्वतंत्रता है| लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी| सब मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाई होती, तो केन्द्र सरकार को सही स्थिति समझ आती| पूर्वोत्तर भारत में जो छोटे-छोटे राज्य है और वहॉं अधिकांश राज्यों में कॉंग्रेस पार्टी की सरकारे है, उनका भी प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश को विरोध था| वह क्यों? उनका मनमोहनकृत स्पष्टीकरण से समाधान क्यों नहीं हुआ? केन्द्र में सत्ता है इस कारण किसी परवाह नहीं करना यह नीति ना समझदारी की है, ना देश के विस्तार का ध्यान रखने की और ना जनमत जान लेने की| केवल अहंकार और उसमें से निर्माण हुए मग्रुरी की यह नीति है|

मीठी बातें निरर्थक

इस फजिहत पर भाष्य करते हुए कॉंग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा कि, ‘‘सरकार जनता की इच्छा के सामने झुकी; और जनता के सामने झुकना, यह पराभव नहीं है|’’ लेकिन यह लिपापोती भी बहुत विलंब से हुई| २ जी स्पेक्ट्रम घोटाला हो या अभी का प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश का मुद्दा, संसद का कामकाज अनेक दिन बंद पड़ा, इसके लिए कॉंग्रेस पार्टी ही जिम्मेदार है, ऐसा ही लोग मानेेगे| और उनके मन सदैव यह प्रश्‍न बना रहेगा कि, इसमें कॉंग्रेस ने क्या हासिल किया? लोग अभी ही संदेह व्यत कर रहे है कि, तेलंगना या महँगाई अथवा किसानों की आत्महत्या के मुद्दों पर मुश्किल में ना फंसे, इसीलिए कॉंग्रेस ने यह नाटक किया| उसे, संसद का शीतकालीन अधिवेशन शुरू होने के पहले दिन ही इसका अहसास हो जाना चाहिए था| इस कारण, कॉंग्रसाध्यक्ष कितनी ही मीठी बातें क्यों ना करें, लोग यही समझेगे कि, और दो-सवा दो वर्ष सत्ता भोगने के लिए ही सरकार ने अपनी बेइज्जति होने दी| निर्णय लेने की यह अस्थिरता किसी भी सरकार की प्रतिष्ठा और गौरव बढ़ानेवाली नहीं|
सरकार ने बताया है कि, प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश का मुद्दा उसने छोडा नहीं, केवल स्थगित किया है| लेकिन विरोधी पार्टियों के सदस्यों को यह मान्य नहीं और सरकार के इस भाष्य में कोई दम भी नहीं| दक्षिणपंथी कम्यनिस्ट पार्टी के सांसद गुरुदास दासगुप्त ने स्पष्ट कहा है कि, ‘‘वास्तव में यह पूरी से पीछे हटना है| सरकार केवल अहंकार में बहाने बना रही है|’’ वामपंथी कम्युनिस्ट पार्टी के सीताराम येचुरी ने कहा कि, संसद का संपूर्ण सत्र बेकार गवाने के बदले सरकार झुकी इसका हमें आनंद है| उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि, इस बारे में राज्य सरकारों का मत भी जान लेना चाहिए| सरकार कहती है कि, वह सबकी सहमति प्राप्त करने का प्रयत्न करेगी और बाद में ही निर्णय लेगी| यह अच्छा विचार है| लेकिन सबकी सहमति मिलना संभव नहीं, यह सूर्यप्रकाश के समान स्पष्ट है| इस कारण, सरकार इस मुद्दे पर तो, सब मुख्यमंत्रियों और सब विरोधी पार्टी के नेताओं को बुलाकर सहमती के लिए प्रयास करने की कतई संभावना नहीं| हम यहीं माने कि, प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश का मुद्दा अब पीछे छूट गया है| २०१४ के चुनाव के बाद ही, वह फिर उठाया जा सकता है या सदा के लिए खत्म किया जा सकता है|


- मा. गो. वैद्य

(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)

Sunday 4 December 2011

अरब राष्ट्रों में वसंतागम और उसके बाद


भाष्य : 4 दिसंबर 2011
खुले मन से यह मान्य करना होगा कि, अरब राष्ट्रों में जनतंत्र की हवाऐं बहने लगी है| इन गतिमान हवाओं को आंधी भी कह सकते है| एक-एक तानाशाही राज ढहने लगा है| प्रारंभ किया ट्यूनेशिया ने| वैसे यह एक-सवा करोड जनसंख्या का छोटा देश है| लेकिन उसने अरब देशों में क्रांति का श्रीगणेश किया| तानाशाह अबीदाईन बेन अली को पदच्युत किया| जनतंत्र की स्थापना की| चुनाव हुए| मतदाताओं ने उस चुनाव में उत्साह से भाग लिया| इस चुनाव ने संविधान समिति का गठन किया| आगामी जून माह में उस संकल्पित संविधान के प्रावधान के अनुसार फिर आम चुनाव होगे| 

मिस्र में की क्रांति

ट्यूनेशिया में हुई क्रांति की हवा मिस्र में भी पहुँची| गत बत्तीस वर्षों से सत्ता भोग रहे होस्नी मुबारक को भागना पड़ा| उनके विरुद् के जनक्षोभ का स्थान रहा तहरीर चौक क्रांति का संकेतस्थल बन गया| जिस फौज के दम पर मुबारक की तानाशाही चल रही थी, वही फौज तटस्थ बनी| लोगों की जीत हुई| लेकिन सत्ता में कौन है? जनप्रतिनिधि? नहीं! फौजी अधिकारियों ने ही सत्ता सम्हाली! उन्होंने चुनाव घोषित किए| लेकिन वह होगे ही इसका लोगों को भरोसा नहीं| वे पुन: क्रांति के संकेतस्थल - तहरीर चौक में - जमा हुए और उन्होंने तत्काल सत्तापरिवर्तन की मांग की| सत्ता की भी एक नशा होती है| फौजी अधिकारियों को लगा कि, दमन से आंदोलन कुचल देंगे| उन्होंने पहले पुलीस और बाद में फौज की ताकद अजमाकर देखी| इस जोर जबरदस्ती में मिस्र के पॉंच नागरिक मारे गए| लेकिन लोग उनके निश्‍चय पर कायम थे| फिर फौज को ही पछतावा हुआ| दो फौजी अधिकारी, जो फौज द्वारा पुरस्कृत सत्तारूढ समिति के महत्त्व के सदस्य थे, उन्होंने, इस गोलीबारी के लिए जनता की स्पष्ट क्षमा मांगी| उनमें से एक जनरल ममदोह शाहीन ने घोेषित किया कि, ‘‘हम चुनाव आगे नहीं ढकेलेंगे, यह उनका अंतिम शब्द है|’’ ‘नारेबाजी करनेवालों से डरकर हम सत्तात्याग नहीं करेंगे’ - ऐसी वल्गना, एक समय इस फौजी समिति के प्रमुख ने की थी| लेकिन वह घोषणा निरर्थक सिद्ध हुई| यह सच है कि, इस फौजी समिति के प्रमुख फील्ड मार्शल महमद हुसैन तंतावी अभी तक मौन है| लोग उस मौन का अर्थ, उनकी सत्ता छोडने की तैयारी नहीं, ऐसा लोग लगा रहे है| और इसमें लोगों की कुछ गलती है ऐसा नहीं कहा जा सकता| कारण कील्ड मार्शल तंतावी, भूतपूर्व तानाशाह होस्नी मुबारक के खास माने जाते थे| लेकिन अब समिति के अन्य दो फौजी अधिकारियों का मत बदल चुका है| उनके विरुद्ध तंतावी कुछ कर नहीं सकेगे| निश्‍चित किए अनुसार गत सोमवार को चुनाव हुआ| वह और छ: सप्ताह चलनेवाला है| मार्च माह में नया संविधान बनेगा और यह संक्रमण काल की फौजी सत्ता समाप्त होगी| मिस्र अरब राष्ट्रों में सर्वाधिक जनसंख्या का राष्ट्र है| एक प्राचीन संस्कृति -इस्लाम स्वीकार करने के बाद वह संस्कृति नष्ट हुई - लेकिन उसकी बिरासत उस राष्ट्र को मिली है| ट्युनेशिया की जनसंख्या डेढ करोड के से कम तो मिस्र की दस करोड के करीब| मिस्र कीघटनाओं का प्रभाव सारी अरब दुनिया में दिखाई देखा| 

लिबिया का संघर्ष

मिस्र के बाद क्रांति की लपटें लिबिया में पहुँची| कर्नल गद्दाफी इस तानाशाह ने लिबिया में चालीस वर्ष सत्ता भोगी| लिबिया की जनता ने उसे भी सबक सिखाना तय किया| उसे अपनी फौजी ताकद का अहंकार था| उसने, अपनी फौजी ताकद का उपयोग कर यह विद्रोह कुचलने का पूरा प्रयास किया| नि:शस्त्र जनता के विरुद्ध केवल रनगाडे ही नहीं वायुसेना का भी उपयोग करने में उसे संकोच नहीं हुआ| और शायद वह को क्रांति कुचलने में भी सफल हो जाता| लेकिन क्रांतिकारकों की ओर से अमेरिका के नेतृत्व में नाटो की हवाई सेना खड़ी हुई| नाटो की हवाई ताकद के सामने गद्दाफी की कुछ न चली| लेकिन असकी मग्रुरी कायम रही| आखिर उसे कुत्ते की मौत मरना पड़ा| उसका शव किसी मरे हुए जानवर के समान घसीटकर ले गये| लिबिया में अभी भी नई नागरी सत्ता आना बाकी है| लेकिन वह समय बहुत दूर नहीं| नाटों के राष्ट्रों का हस्तक्षेप नि:स्वार्थ ना भी होगा, उन्हें लिबिया में के खनिज तेल की लालच निश्‍चित ही होगी| लेकिन उन्होंने अपनी हवाई सेना गद्दाफी के विरुद्ध सक्रिय करना, लिबिया में की फौजी तानाशाही समाप्त करने लिए उपयोगी सिद्ध हुआ, यह सर्वमान्य है| 

येमेन में भी वही

इन तीन देशों में की जनता के विद्रोह के प्रतिध्वनि अन्य अरब देशों में भी गूंजे| प्रथम, येमेन के तानाशाह कर्नल अली अब्दुला सालेह को कुछ सद्बुद्धि सूझी| स्वयं की गत गद्दाफी जैसी ना हो इसलिए उसने पहले देश छोड़ा; और २३ नवंबर को सौदी अरेबिया में से घोषणा की कि, मैं गद्दी छोडने को तैयार हूँ| अर्थात् यह सद्बुद्धि एकाएक प्रकट नहीं हुई| वहॉं भी उसकी सत्ता के विरुद उग्र आंदोलन हुआ था| उसने, उसे कुचलने का प्रयास भी किया था| लेकिन गद्दाफी की तरह उसने पागलपन नहीं किया| अपने सत्ता के विरुद्ध के जन आक्रोश की कल्पना आते ही उसने अपना तैतीस वर्षों का राज समाप्त करने की लिखित गारंटी दी| तुरंत, उपाध्यक्ष के हाथों में सौंप दी| आगामी तीन माह में चुनाव कराने का आश्‍वासन उसने दिया है| लेकिन उसकी शर्त है कि, अभी उसे उसका राजपद भोगने दे और नई सत्ता उसके विरुद्ध कोई मुकद्दमा आदि ना चलाए| हम भारतीयों को यमन करीबी लग सकता है| कारण हमारा परिचित एडन बंदरगाह येमेन में ही है| वहीं कैद में क्रांतिकारक वासुदेव बळवंत फडके की मृत्यु हुई थी| 

सीरिया में का रक्तपात

यह क्रांति की आंधी प्रारंभ में उत्तर आफ्रीका या अरबी सागर से सटे प्रदेशों तक ही मर्यादित थी| लेकिन अब यह आंधी उत्तर की आरे बढ़ रही है| भूमध्य सागर को छू गई है| अभी वह सीरिया में पूरे उफान पर है और सीरिया के फौजी तानाशाह बाशर आसद, गद्दाफी का अनुसरण कर रहे है| अब तक, कवल दो माह में इस तानाशाह ने चार हजार स्वकीयों को मौत के घाट उतारा है| उसकी यह क्रूरता देखकर, अन्य अरब राष्ट्रों को भी चिंता हो रही है| अरब लीग, यह २२ अरब राष्ट्रों का संगठन है| उसने कुछ उपाय बाशर आसद को सुझाए है| राजनयिक कैदियों को रिहा करने और शहरों में तैनात फौज को बराक में वापस भेजने के लिए कहा है| सीरिया में की स्थिति पर नज़र रखने के लिए कुछ निरीक्षक और विदेशी पत्रकारों को प्रवेश देने का भी सुझाव दिया है| इसी प्रकार, बाशर आसद अपने विरोधकों के साथ चर्चा कर मार्ग निकाले, ऐसा भी सूचना दी है| २ नवंबर २०११ को अरब लीग की यह बैठक हुई| बैठक में बाशर उपस्थित थे| उन्होंने यह सब सूचानाएँ मान्य की| लेकिन कुछ राजनयिक कैदियों को रिहा करने के सिवाय और कुछ नहीं किया| विपरीत, फौज का और अधिक ताकद के साथ उपयोग किया| अरब लीग ने फिर बाशर को सूचना की और लीग की सूचनाओं का पालन करने के लिए समयसीमा भी निश्‍चित कर दी| लेकिन बाशर ने अपनी राह नहीं छोडी| आखिर अरब लीग ने सीरिया को लीग से हकाल दिया और उसके विरुद्ध आर्थिक नाकाबंदी शुरू की| 
निरीक्षकों का कयास है कि, बाशर आसद के दिन अब पूरे हो रहे है| कारण, अब फौज का एक हिस्सा भी आंदोलन में उतरा है| सीरिया में फौजी शिक्षा अनिवार्य है| इस कारण, विश्‍वविद्यालय में पढ़नेवाले विद्यार्थींयों को भी विविध शस्त्रास्त्रों का उपयोग करने की जानकारी है और ये सब विद्यार्थी सीरिया में की तानाशाही समाप्त करने के लिए ना केवल आंदोलन में शामिल हुए है, बाशर आसद के सैनिकों से भिड भी रहे हैं| अभी तक पश्‍चिमी राष्ट्र, लिबिया के समान इस संघर्ष में नहीं उतरे है| लेकिन अरब लीग के माध्यम से वे आंदोलकों को सहायता किए बिना नहीं रहेंगे| कारण संपूर्ण आशिया में जनतांत्रिक व्यवस्था कायम हो यह अमेरिका के साथ सब नाटों राष्ट्रों की अधिकृत भूमिका है| इसके परिणाम भी दिखाई देने लगे है| मोरोक्को में हाल ही में चुनाव लिये गये| वहॉं राजशाही है| संवैधानिक राजशाही| मोरोक्कों में लोगों को निश्‍चित क्या चाहिए, यह अभी तक स्पष्ट नहीं हुआ है| 

वसंतागम या और कुछ?

ट्युनेशिया से जनतंत्र की जो हवाऐं अरब जगत में बहने लगी है, उसे पश्‍चिमी चिंतकों ने अरब जगत में ‘वसंतागम’  (Arab Spring)  नाम दिया है| सही है, इस क्षेत्र में तानाशाही के शिशिर की थंडी, लोगों को कुडकुडाती, उन्हें अस्वस्थ करती हवाऐं चल रहि थी| अनेक दशकों का शिशिर का वह जानलेवा जाडा अब समाप्त हो रहा है| वसंतऋतु आई है| कम से कम उसके आगमन के संकेत दिखाई दे रहे है| एक अंग्रेज कवि ने कहा है कि,   'If winter comes can spring be far behind' - मतलब शिशिर ऋतु आई है, तो वसंत क्या उससे बहुत पीछे होगी? शिशिर आई है, और दो माह बाद वसंत आएगी ही, ऐसा आशावाद कवि ने अपने वचन में व्यक्त किया है| लेकिन अरब जगत में वसंतागम के जो संकेत दिखाई दे रहे है, वे सही में वसंतागम की सुखद हवा की गारंटी देनेवाले है, ऐसा माने?  ऐसा प्रश्‍न मन में निर्माण होना स्वाभाविक है| 
प्रथम ट्युनेशिया का ही उदाहरण ले| वहॉं चुनाव हुए| २७१ प्रतिनिधि चुने गए| २२ नवंबर को निर्वाचित प्रतिनिधियों की पहली बैठक हुई| संक्रमणकाल के फौजी प्रशासन ने, स्वयं दूर होना मान्य किया था| लेकिन निर्वाचितों में ४१ प्रतिशत प्रतिनिधि ‘नाहदा’ इस इस्लामी संगठन के कार्यकर्ता है| स्वयं के बूते पर वे राज नहीं कर सकते| इसलिए ‘सेक्युलर’ के रूप में जिन दो पर्टिंयों की पहचान है, उनके साथ उन्होंने हाथ मिलाया है| एक पार्टी के नेता मुनीफ मारझौकी है, तो दूसरी के मुस्तफा बेन जफर| मुनीफ की पार्टी स्वयं को उदारमतवादी मानती है, तो जाफर के पार्टी की पहेचान कुछ वाम विचारों के ओर झुकी पार्टी की है| ‘नाहदा’के नेता हमादी जेबाली प्रधानमंत्री बनेंगे यह निश्‍चित है| तानाशाही राज में, राजनयिक कैदी के रूप में उन्होंने कारावास भी सहा है| उन्होंने गारंटी दी है कि, हम ‘भयप्रद’ इस्लामी नहीं| सही बात यह है कि, दूसरी दो पार्टिंयों के बैसाखी के सहारे उनकी सरकार चलनी है, इसकारण इस्लाम में की स्वाभाविक भयप्रदता उन्हें छोडनी ही पडेगी| वे दोनों पार्टिंयॉं उनकी शर्ते भी लादेगी| इस्लामी होते हुए भी उदारमतवादी होना यह वदतोव्याघात है| और जेबाली को यह स्पष्टीकरण इसलिए देना पड़ा कि, १३ नवंबर को अपने पार्टी के कार्यकर्ताओं के सामने भाषण करते समय जेबाली ने कहा था कि, ‘‘ट्युनेशिया में एक नई संस्कृति प्रवेश कर रही है| और अल्लाह ने खैर की तो छटवी खिलाफत हो निर्माण सकती है|’’ इस्लामी पाटीं के नेताओं के अंतरंग में कौनसे विचार उफान भर रहे है, इसका संकेत देनेवाले यह उद्गार है| ‘खिलाफत’ कहने के बाद ‘खलिफा’ आता है| उसके हाथों में राजनीतिक और धार्मिक शक्ति केंद्रित होगी ही| ईसाईयों के पोप के समान खलिफा केवल सर्वश्रेष्ठ धर्मगुरु नहीं होता| प्रथम महायुद्ध समाप्त होने तक तुर्कस्थान का बादशाह खलिफा था| उसके पहले बगदाद का मतलब इराक का बादशाह| लोगों की निर्वाचित प्रतिनिधिसभा खलिफा का चुनाव नहीं करती| वह पद एक तो जन्म से प्राप्त होता है या उस पद पर धार्मिक नेताओं के संगठन की ओर से नियुक्ति की जाती है| ‘खिलाफत’की स्थापना का विचार उदारमतवादी लेागों के मन में -जिन्होंने यह जनतांत्रिक क्रांति की उनके मन में - निश्‍चित ही भय निर्माण करनेवाला है| 

मिस्र में भी...

मिस्र में २८ नवंबर को मतदान का एक दौर समाप्त हुआ| और दो दौर बाकी है| लेकिन पहले दौर के मतदान से अंदाज व्यक्त किया जा रहा है कि, मुस्लिम ब्रदरहूड इस कट्टर इस्लामी संगठन द्वारा पुरस्कृत उम्मीदवार अधिक संख्या में चुने जाएगे| यह लेख वाचकों तक पहुँचने तक पहले दौर के मतदान के परिणाम शायद घोषित भी हो चुके होंगे| लेकिन राजनयिक विरोधकों ने मुस्लिम ब्रदरहूड के उम्मीदवारों को कम से कम ४० प्रतिशत मत मिलेंगे ऐसा अंदाज व्यक्त किया है| इस मुस्लिम ब्रदरहूड संगठन ने, मुबारक विरोधी आंदोलन में सक्रिय भाग नहीं लिया था| मुबारक के राज का समर्थन भी नहीं किया था| लेकिन आंदोलन में सक्रियता भी नहीं दिखाई थी| इस मुस्लिम ब्रदरहूड से भी अधिक कट्टर संस्था, जिसका नाम सलाफी है, उसके उम्मीदवारों को भी अच्छा मतदान होने का अंदाज है| यह सलाफी, सब प्रकार की आधुनिकता के विरुद्ध है| महिलाओं के राजनीति और सामाजिक, सार्वजनिक कार्य में के सहभाग को उनका विरोध है| दूरदर्शन आदि मनोरंजन के साधनों को भी उनका विरोध है| ट्युनेशिया के समान ही, वहॉं भी किसी एक पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिलने की संभावना नहीं त्रिशंकु अवस्था में मुस्लिम ब्रदरहूड और सलाकी का गठबंधन होने के संकेत स्पष्ट दिखाई देते है| इस गठबंधन को इजिप्त की नई संसद में ६५ प्रतिशत सिटें मिलेगी, ऐसा निरीक्षकों का अंदाज है| आश्‍चर्य यह है कि, तानाशाही शासन के विरोध में जिन्होंने प्राण की बाजी लगाई, वे असंगठित होने, या अन्य किन्हीं कारणों से पीछे छूट जाएगे ऐसा अंदाज है| उनकी तुलना में होस्नी मुबारक के शासनकाल में, सरकारी कृपा या अनास्था के कारण, इन दो इस्लामी संगठनों को बल मिला था, यह वस्तुस्थिति है| सही तस्वीर तो जनवरी के बाद ही स्पष्ट होगी| 

भवितव्य

पहले अंदाज व्यक्त कियेनुसार हुआ तो, एक खतरा है| वह है कट्टरवादियों के हाथों में सत्ता के सूत्र जाना| फिर इन क्रांतिवादी देश में भी तालिबान सदृष्य राज दिखाई देगा| मतलब वसंत का आगमन पुन: अन्य ऋतुओं को अवसर देने के बदले शिशिरागम के ही संकेत देते रहेगा| देखे क्या होता है| लेकिन यह देखना भी उत्सुकतापूर्ण और उद्बोधक रहेगा| 


- मा. गो. वैद्य
babujaivaiday@gmail.com

(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)