Wednesday 30 November 2011

इतस्ततः


२९ नवंबर के लिए भाष्य


 

विदेश में संस्कृत

३० अक्टूबर को प्रकाशित हुए ‘ऑर्गनायझर’ इस विख्यात अंग्रेजी साप्ताहिक के दीपावली अंक में, ‘संस्कृत भारती’ के अखिल भारतीय संगठन मंत्री श्री श्रीश देवपुजारी का, विदेशों में संस्कृत कैसे लोकप्रिय हो रहा है, यह निवेदन करनेवाला एक सुंदर लेख प्रकाशित हुआ है| यहॉं प्रस्तुत जानकारी, मैंने उसी लेख से ली है|
कॉमनवेल्थ गेम्स (राष्ट्रमंडलीय क्रीडा स्पर्धा) कार्यक्रम समाप्त होने के बाद भी उसकी चर्चा कॉंग्रेस के सांसद सुरेश कलमाडी के भ्रष्टाचार की पराक्रम गाथाओं के कारण कई दिन चली थी| फिलहाल कलमाडी साहब तिहार जेल की हवा खा रहे है| लेकिन इस क्रीडा कार्यक्रम की कुछ विशेषताएँ भी है| उनमें से एक यह कि, इंग्लंड की रानी एलिझाबेथ के प्रतिनिधि ने, भारत की राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के प्रतिनिधि को क्रीडा आयोजन का अधिकारदंड (Baton) देते समय ‘संगच्छध्वम्, संवदध्वम्, सं वो मनांसि जानताम्’ यह वैदिक मंत्र पढ़ा गया; और वह भी उसके एकदम सही उदात्त-अनुदात्त-स्वरित स्वरों के आरोहावरोह के साथ| मंत्र पढ़नेवाले छात्र भारतीय नहीं थे| गोरे अंग्रेज थे| देवपुजारी ‘यू ट्यूब’ पर कुछ साहित्य खोज रहे थे, उस समय, यह आश्‍चर्यकारक बात देवपुजारी के ध्यान में आई|
उन्हें ‘यू ट्यूब’ पर अन्य भी कुछ ऐसा साहित्य मिला| दूसरी एक कतरन (क्लिप) में एक अश्‍वेत अमेरिकन ईसाई पाद्री प्रवचन दे रहा था| वह श्रेताओं को नमस्ते का महत्त्व बता रहा था! एकदूसरे को मिलते समय सब ‘नमस्ते’ कहें ऐसा आग्रह कर रहा था| वह बता रहा था कि, ‘नमस्ते’ यह परमेश्‍वर को वंदन करने का विधि है, और वह परमात्मा अन्य सब लोगों के भी अंत:करण में वास करता है| इसलिए किसी के मिलने पर ‘नमस्ते’ कहो|
तिसरी कतरन में एक प्रौढ व्यक्ति, ‘प्रणाम’ कैसे करे, यह सिखा रही थी| हम सब जानते है कि, ‘प्रणाम’ हाथ जोडकर किया जाता है और वह ‘नमस्ते’ का बोधक होता है|
एक अन्य कतरन में एक ऑर्केस्ट्रा संस्कृत गाने गा रहा था| उस आर्केस्ट्रा का नाम है ‘शान्ति:शान्ति:’!
यह किस बात का प्रभाव होगा? यह प्रभाव है ‘संस्कृत भारती’द्वारा अमेरिका में संस्कृत संभाषण के जो वर्ग चलाए जाते है उसका| प्रतिवर्ष अमेरिका में कम से कम ४० स्थानों पर यह संस्कृत संभाषण वर्ग नियमित लिए जाते है| इसका परिणाम यह हुआ है कि, कम से कम सौ अमेरिकी परिवार, आपस में संस्कृत में बोलने लगे है| कुछ संभाषण वर्ग निवासी पद्धति के होते है| वह एक प्रकार से पारिवारिक मेला ही होता है| इस मेले का नाम है ‘जान्हवी’| परिवार में के सब छोटे-बडे एकत्र आते है तथा बालक और युवक खेल आदि का आनंद लेते है, तो वयस्क लोग चर्चा करते है| लेकिन खेल हो या चर्चा, सब संस्कृत में ही चलता है|
यूरोप के फ्रान्स में भी संस्कृत का आकर्षण बढ़ रहा है| बनारस हिंदू विश्‍वविद्यालय के गोपबंधु मिश्र नाम के प्राध्यापक गत दो वर्ष से फ्रान्स में रह रहे है| वे वहॉं एक विश्‍वविद्यालय में संस्कृत पढ़ाते है| उस विश्‍वविद्यालय में उन्होंने एक संस्कृत संभाषण शिबिर भी आयोजित किया था|
‘संस्कृत भारती’ने आयर्लंड में के चार शिक्षकों को संस्कृत पढ़ाया| अब वे अपने विश्‍वविद्यालय में संस्कृत पढ़ा रहे है| विद्यार्थींयों को संस्कृत पढ़ाने के पूर्व, उन्होंने उनके पालकों की सभा ली| उन्हें संस्कृत का महत्त्व समझाया| पालकों ने इस उपक्रम को मान्यता दी| इन चार शिक्षकों के प्रमुख का नाम रटगुर (Rutgure) है| लेकिन अब वो अपना नाम ‘मृत्युंजय’ बताता है!
पाश्‍चात्त्यों को अपने जीवन की पुनर्रचना करे, ऐसा लगता है| उन्हें योग और आयुर्वेद पढ़ने में रस निर्माण हुआ है| इससे हमारे जीवन में समतोल और शान्ति निर्माण होगी, ऐसा उन्हें लगता है| इस कारण हिंदूओं के विचार और तत्त्वज्ञान जानने की इच्छा उनके मन में जागृत हुई है| और, यहॉं भारत में? ‘गुड मॉर्निंग’ से लेकर ‘हॅपी बर्थ डे’ धडल्ले से चल रहे है| रामनवमी उनके लिए ‘बर्थ डे ऑफ राम’ होता है!

ईसाई विश्‍वविद्यालय में योग

उपर योग के बारे में आकर्षण का उल्लेख किया है| हमारे यहॉं ‘सेक्युलॅरिझम्’ का रंगीन चष्मा लगाए रहने के कारण, सेक्युलॅरिस्टों को कुछ और ही रंग दिखाई देते है| कुछ दिनों पूर्व मध्य प्रदेश में की भाजपा की सरकार ने सरकारी विद्यालयों में सूर्यनमस्कार और योग पढ़ाने की व्यवस्था की थी| उस समय ईसाई और कुछ मुस्लिम संस्थाओं के साथ ढोंगी सेक्युलरवादियों ने भी उस उपक्रम का विरोध किया था| उनका कहना था कि, हमारा संविधान ‘सेक्युलर’ है और योग तथा सूर्यनमस्कार हिंदू धर्म का अंग होने के कारण सरकारी विद्यालयों में उसकी शिक्षा देना संविधान के विरुद्ध है| लेकिन, सब ईसाई और मुस्लिम इन विचारों के नहीं है| बंगलोर से प्रकाशित होनेवाले ‘बंगलोर मिरर’ इस समाचारपत्र के १७ ऑगस्त २०११ के अंक में ऐसी जानकारी है कि, कट्टरता के लिए विख्यात देवबंद के दारुल उलूम ने ‘योग’ इस्लाविरोधी नहीं, ऐसा फतवा निकाला था| अनेक ईसाई संस्थाएँ भी अब ऐसा ही मत प्रकट करने लगी है|
अमेरिका में तो मानो योग सिखाने की चाह ही निर्माण हुई है| कॅलिर्फोनिया में कापेपरडाईन विश्‍वविद्याय, ईसाई विश्‍वविद्यालय के रूप में पहेचाना जाता है| वह विश्‍वविद्यालय ‘प्राणविन्यास फ्लो योग’ इस नाम से, सूर्यनमस्कार पर आधारित प्राणायाम सिखाता है| टेक्सास राज्य में बॅप्टिस चर्च का ‘बेलर’ (Baylor) विश्‍वविद्यालय है|  उस विश्‍वविद्यालय में अधिकृत रूप से, प्रतिवर्ष, वसंत ऋतु में, अष्टांग योग का प्रशिक्षण दिया जाता है| टेनेसी राज्य में के बेलमॉण्ट विश्‍वविद्यालय में ‘फ्लो योग’, ‘रेस्टोरेटिव्ह योग’, ‘योग ऍट द वॉल’, नामों से प्राणायाम सिखाया जाता है| इलीनाईस, मॅसॅच्युसेट्ल, वॉशिंग्टन, मिसीसीपी इन राज्यों में भी विभिन्न नामों से योग पढ़ाया जाता है| कहीं उसे ‘हठयोग’ कहा जाता है, तो कहीं ‘पॉवर योग’| वॉशिंग्टन में के व्हिटवर्थ विविश्‍वविद्यालय में ‘देवान् पूजय’, ‘येशुम् अनुसर’, ‘मानवं सेवस्व’ इन संस्कृत मंत्रों के साथ योग शिक्षा दी जाती है| इनमें के अधिकांश विश्‍वविद्यालय, अपनी पहेचान ईसाई विश्‍वविद्यालय के रूप में बताते है| अमेरिका में के ‘युनिव्हर्सल सोसायटी ऑफ हिन्दुइझम्’ इस संस्था के अध्यक्ष राजन् आनंद बताते है कि, ‘‘योग हिंदू धर्म से जुडा है, लेकिन वह संपूर्ण दुकिया की संपदा है| अपने धर्म का पालन करते हुए भी योगानुष्ठान किया जा सकता है|’’  ‘नॅशनल इन्स्टिट्यूट ऑफ हेल्थ’ यह अमेरिका में की एक प्रमुख संस्था है| उस संस्था ने सार्वजनिक रूप से बताया है कि, योग से मन की उद्विग्नता दूर होती है, उसे शान्ति मिलती है और श्‍वासोच्छ्वास निरामय होता है|

‘सुयश’ यशोगाथा

पुना में ‘सुयश’ नाम की एक सेवाभावी संस्था है| उसका वनवासी बंधुओं की सेवा करने का व्रत है| ‘सुयश’ के इस सेवाकार्य का मुख्य सूत्र वनवासी बंधु आत्मनिर्भर बने, यह है| १९८२ में ‘सुयश चैरिटेबल ट्रस्ट’ की स्थापना की गई| उसके कार्य का विस्तार अब महाराष्ट्र के बाहर राजस्थान, छत्तीसगढ़ और ओरिसा इन राज्यों में भी हुआ है|
वर्ष २००९ में ‘सुयश’ने निश्‍चित किया कि, वनवासी बंधु किसी की भी आर्थिक सहायता लिए बिना स्वयंपूर्ण बने| इसके अंतर्गत ११३ गॉंवों में के २४१० परिवारों ने अपने पैसों से ३६ लाख ५० हजार रुपयों के बीज खरीदे, बोए और ८ करोड ६८ लाख रुपयों का उत्पादन लिया|
वर्ष २०१० में २९३ गॉंवो में के १२ हजार ५५ परिवार इस प्रयोग में शामिल हुए| ३०० युवा किसानों की फौज खडी हुई| १ करोड ७१ लाख रुपयों के बीज खरीदे गए और उसमें से ५७ करोड ६४ लाख रुपयों का उत्पादन हुआ| आगे इस उपक्रम की प्रगति ही होती गई| २०११ में, अधिक आत्मविश्‍वास के साथ ७२८ गॉंवों के २७,८५० परिवारों ने इस योजना में भाग लिया| उनका उद्दिष्ट १४० करोड रुपयों का उत्पादन लेने का है|
‘सुयश’ने सब कार्यकर्ताओं को कृषि विकास का एक मंत्र ही दिया है| इसके लिए चार सूत्री कार्यक्रम चलाया गया| वे चार सूत्र इस प्रकार है :
१) बीज एवं बीजप्रक्रिया : पहले वनवासी बंधु बीजप्रक्रिया किए बिना बीजों का उपयोग करते थे| इस कारण फसलें रोग की शिकार होती थी| ‘सुयश’ने बीजप्रक्रिया करने का मार्गदर्शन किया| बीजप्रक्रिया के लिए, गोबर, नमक का पानी, जिवाणुसंवर्धक (रायझोबियम, ऍझेटोबॅक्टर) जैसी सेंद्रिय प्रक्रियाओं का प्रयोग करना सिखाया| अंकुरणशक्ति कैसे जॉंचे यह भी सिखाया| इससे उत्पादन में २० से २५ प्रतिशत वृद्धि हुई|
२) सेंद्रिय खाद : ‘सुयश’ने रासायनिक खाद के दुष्परिणामों की जानकारी लोगों को दी| गड्डा पद्धति से कम्पोस्ट खाद बनाना सिखाया| इसके अलावा, केंचुओं के खाद, हीरयाली के खाद, जिवाणु खाद कैसे बनाना, इसका भी मार्गदर्शन किया| यह सब करते समय मिट्टी /खाद की जॉंच के लिए, परीक्षण संच उपलब्ध करा दिए और उनका उपयोग करना भी सिखाया|
३) जैविक कीटनाशक : रासायनिक कीटकनाशकों का मानव, अन्य प्राणी, पर्यावरण और मित्र कीडोंपर दुष्परिणाम होता है और उत्पादन खर्च भी बढ़ता है| इस पर उपाय, इस रूप में ‘सुयश’ने जैविक पद्धति से कीटनियंत्रण कैसे करना और रोग आने के पहले ही फसलों का संरक्षण कैसे करना, इस बारे में मार्गदर्शन किया| गौमूत्र अर्क, वनस्पतिजन्य कीटकनाशक (दशपर्णी अर्क, निबोली अर्क) आदि का प्रयोग कैसे करे, इसका प्रशिक्षण दिया| रोग ही ना आए, इसके लिए क्या करना चाहिए यह भी बताया|
४. जलव्यवस्थापन : असमय बारिश, पानी की कमी, केवल खरीप की फसल पर परिवार चलाना असंभव है, यह सब बातें ध्यान में रखकर बांधबंधन, पत्थर के बांध, वनराई बांध, खेती तालाब, कुएँ, फेराक्रिट बंधारे आदि उपायों से बारिश का पाणी रोककर, उसका नियोजन कैसे करें, इस बारे में ‘सुयश’के कार्यकर्ताओं ने मार्गदर्शन किया| संग्रहित पानी की मात्रा कैसे गिने और उससे कितनी खेती का सिंचन हो सकता है यह भी गणित वनवासियों को समझाया| रब्बी का बुआई क्षेत्र बढ़ाकर वनवासियों के कृषि उत्पादन में वृद्धि करने के लिए ‘सुयश’ने चार-पॉंच वनवासी परिवारों के लिए एक जलनियोजन प्रकल्प की व्यवस्था करना निश्‍चित किया और उसके अनुसार वनवासियों को मार्गदर्शन किया|
इस उपक्रम के कारण, गॉंव के लोगों का काम की खोज में बाहर जाना बंद हुआ| ‘सुयश’ के और भी कुछ पषशंसनीय उपक्रम है| विस्तृत जानकारी के लिए, सांगली से प्रकाशित होनेवाले ‘विजयन्त’ साप्ताहिक का २५ अक्टूबर २०११ का अंक देखें|
‘विजयंन्त’ का पता है : ‘विजयन्त’, २५५, खणभाग, सांगली| दूरध्वनि क्रमांक : २३७६४११.

वंगारी माथाई

वंगारी माथाई यह एक महिला का नाम है| वह आफ्रीका में के केनिया देश की निवासी है| आफ्रीका में से नोबेल पारितोषिक प्राप्त करनेवली वे एकमात्र महिला है| २००४ में उन्हें शान्ति का नोबेल पारितोषिक मिला था| ८ अक्टूबर को उनकी मृत्यु हुई| ईसाई होने के बावजूद उन्होंने, मेरा दाह संस्कार ही होना चाहिए, ऐसी इच्छा व्यक्त की थी| महंगे कॉफीन में अपना देह रखा जाना उन्हें मान्य नहीं था| उनकी इच्छा का सबने मान रखा, और नैरोबी की कारिओकर स्मशानभूमि में की दाहवाहिनी में उनका शव आग के स्वाधीन किया गया|
वे पर्यावरणवादी थी| पेड़ों की कटाई उन्हें पूर्णत: अमान्य थी| कॉफीन बनाकर, उसमें देह रखकर उसका दफन करने के विरोध के लिए भी उनका वृक्षप्रेम ही कारण होगा| उन्हें ‘आफ्रीका की वृक्षमाता’ (Tree Mother of Africa) कहा जाता है|
अनेक बारे में उन्होंने प्रथम क्रमांक प्राप्त किए थे| पूर्व आफ्रीका में की वे पहली महिला पीएच. डी. थी| एक पार्क में ६० मंजिला इमारत बननी थी| उन्होंने असके विरुद्ध तीव्र आंदोलन किया और सरकार को अपना प्रकल्प पिछे लेने के लिए बाध्य किया| १९९० के दशक में, मोई इस तानाशाह के सत्ता के काल में, राजनयिक कैदियों की मुक्तता के लिए उन्होंने उन कैदियों की माताओं का विवस्त्र मोर्चा निकाला था| अंत में तानाशाह की वह सरकार झुकी और उसने सब राजनयिक कैदियों को मुक्त किया|
महंगे साग कीलकडी की कॉफीन ना बनाए| शव ढोने के लिए सीडी भी सस्ते पॅपीरस के लकडी की बनाए, ऐसी अपनी इच्छा उन्होंने मृत्यु के पूर्व ही बताई थी| उसने रिश्तेदार और मित्रों ने उसकी इच्छा का सम्मान किया और उसका दाह संस्कार किया|

रूढीग्रस्त चर्च

पश्‍चिम के प्रगतिशीलता की हम खूब प्रशंसा करते है| लेकिन वहॉं चर्च अभी भी रूढीग्रस्त ही है| रोमन कॅथॉलिक पंथीयों को सर्वाधिक रुढिप्रिय माना जाता है| तुलना में प्रॉटेस्टंट चर्च सुधारवादी है, ऐसा माना जाता है| लेकिन यह धारणा प्रॉटेस्टंट पंथ के, प्रेस्बिटेरियन इस उपपंथ ने गलत साबित की है| हमारे मिझोराम में भी यह एक चर्च है| इस चर्च ने निश्‍चित किया है कि, कोई भी महिला पॅस्टर मतलब पाद्री या चर्च की अधिकारी नहीं बनेगी| १९७० के दशक में एक महिला पॅस्टर चुनी गई थी| लेकिन उसे वह पद नहीं दिया गया| ईसाई लोगों में इसके विरुद्ध असंतोष था| लोगों ने इस बार जोरदार मांग की कि, चर्च की सेवा के कार्य में लिंगभेद ना करें| लेकिन, यह मांग चर्च के कार्यकारी मंडल (सायनॉड) ने खारीज की| मिझोराम के बॅप्टिस्ट चर्च का भी महिला पुरोहितों को विरोध है|
दुनिया में हिंदूओं को रूढीवादी कहकर उनकी अवहेलना की जाती है| लेकिन हिंदूओं में शांततापूर्वक इष्ट परिवर्तन हुआ है| इतिहास इसका साक्षी है और वर्तमान ने भी इसके उदाहरण प्रस्तुत किए है| अब महिला पुरोहित यह वास्तविकता बन चुकी है| वे केवल पुराणोक्त मंत्र ही पढ़ती नहीं, तो वेदोक्त मंत्रों से धार्मिक कार्य भी करती है| इस वर्ष मुंबई में हुए गणेशोत्सव में पूजा करने के लिए करीब तीन सौ शालेय छात्राओं को प्रशिक्षित किया गया| तुलना में शालेय छात्रों की संख्या केवल ७० थी| ये छात्र शिवाजी विद्यालय, अहल्या विद्यालय और किंग जॉर्ज स्कूल में पढ़नेवालें थे| बताया जाता है कि, मुंबई में दो लाख से अधिक गणेश मूर्तिंयों की स्थापना होती है; और शहर में केवल तीन हजार पुरोहित है| अनेकों को काफी समय तक पुरोहितों की बाट जोहनी पडती है| इस पर उपाय के लिए नरेश दहीबावकर इस उत्साही व्यक्ति ने, छात्रों को पौरोहित्य सिखाना तय किया और अपना वह निश्‍चय पूरा भी कर दिखाया| श्री दहीबावकर बृहन्मुंबई गणेशोत्सव समन्वय समिति के अध्यक्ष है| किसी ने भी इन युवा महिला पुरोहितों का विरोध नहीं किया| समयानुसार जो चलते हैं वे ही टिकते हैं| जो विशिष्ट कालबिंदु के पास रुक जाते हैं, वे समाप्त हो जाते हैं, यह त्रिकालाबाधित नियम है|

- मा. गो. वैद्य
नागपुर
babujaivaidy@gmail.com

(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)

Monday 21 November 2011

उ. प्र. का विभाजन और छोटे राज्यों की निर्मिति

उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने. उ. प्र. का विभाजन कर, उसके चार राज्य बनाने का प्रस्ताव रखा है| यह प्रस्ताव, वे शीघ्र ही विधानसभा में प्रस्तुत करेगी; उसके पारित होने की भरपूर संभावना है| कारण, मुलायम सिंह यादव के एक समाजवादी का पार्टी के अलावा अन्य किसी विरोधी पार्टी जैसे : भाजपा, कॉंग्रेस या अजित सिंह के राष्ट्रीय लोक दल का इसे विरोध होने की संभावना नहीं है| भाजपा ने सदैव ही छोटे राज्यों का पुरस्कार किया है| इसी नीति के अनुसार उत्तराखंड के राज्य की निर्मिती में इस पार्टी की मुख्य भूमिका थी और उसी नीति के अनुसार अलग तेलंगना और विदर्भ के अलग राज्य के बारे में भी उसकी अनुकूलता है| कॉंग्रेस ने, उत्तर प्रदेश के ही एक भाग बुंदेलखंड के पिछड़ेपन का मुद्दा उठाकर, उसका अलग राज्य बनाने को अपनी सहमति सूचित की थी| अब उत्तर प्रदेश कॉंग्रेस की अध्यक्ष श्रीमती ऋता बहुगुणा जोशी ने कॉंग्रेस का छोटे राज्यों की निर्मिती को समर्थन है, लेकिन किसी एक प्रदेश का ही विभाजन करने के बदले राज्य पुनर्रचना आयोग गठित करना चाहिए, ऐसी सूचना की है| अजित सिंह के रालोद ने तो विद्यमान राज्य के पश्‍चिम भाग से ‘हरित प्रदेश’ नाम का एक अलग राज्य निर्माण करने की मांग की है| सारांश यह की, एक समाजवादी पार्टी छोड़ दे तो, अन्य प्रमुख राजनीतिक पार्टियों का उत्तर प्रदेश के विभाजन को तत्त्वत: विरोध नहीं है|

आश्‍चर्य का धक्का

मायावती ने राज्य के विभाजन का मुद्दा प्रकट करते ही, सबको आश्‍चर्य का धक्का लगा| कॉंग्रेस के एक नेता प्रमोद तिवारी ने कहा कि, कॉंग्रेस ने पूर्वांचल (उ. प्र. के पूर्व का भाग) और बुंदेलखंड के अलग राज्यों का पुरस्कार किया, तब मायावती की बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने उसे विरोध किया था| इस कारण, बसपा की, एकाएक यह घोषणा करने में कुछ राज छुपा है| भाजपा की उमा भारती ने, यह एक स्टंट है, ऐसा कहकर इसे अर्थहीन करार दिया है, और भाजपा के प्रवक्ता सांसद प्रकाश जावडेकर ने कहा है कि, साडेचार वर्ष बसपा खामोश थी; और अब एकदम उसका छोटे राज्यों के बारे में प्रेम उमड पड़ा है| राज्य आकाश से नहीं टपकते|

मायावती की राजनीति

यह प्रातिनिधिक प्रतिक्रियाएँ, यहीं दर्शाती है की, मायावती की इस घोषणा से उन्हें धक्का लगा है| उनका इस विभाजन को तात्त्विक रूप से विरोध नहीं| हॉं, समाजवादी पार्टी ने अपने विरोध का कारण देते हुए कहा है कि, उ. प्र. का विभाजन हुआ, तो राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में मतलब सत्ताकारण में उ. प्र. का महत्त्व समाप्त होगा| लेकिन यह कारण एकदम निराधार है| किसी भी विशिष्ठ राज्य का ही दबदबा राष्ट्रीय राजनीति में क्यों रहें? इस बारे में भी मतभिन्नता होने का कारण नहीं की, मायावती का उद्देश्य निर्मल नहीं है| उसके पीछे राजनीति है और क्यों ना रहे? क्या मायावती पारमार्थिक क्षेत्र में की कोई साध्वी है? वे अंतर्बाह्य राजनेता है और अपनी राजनीति की सुविधा के लिए वे कोई भी नया कदम उठाएगी| उनके सामने २०१२ के मार्च-अप्रेल में होने जा रहे विधानसभा के संभाव्य चुनाव है, उसका विचार होना ही चाहिए| राजनीति के दावों की जानकार इस महिला को यह निश्‍चित ही पता है की, चुनाव के लिए केवल चार-पॉंच माह ही शेष है, इस अत्यल्प अवधि में केन्द्र सरकार की ओर से राज्य विभाजन के प्रस्ताव के बारे में कोई भी निर्णय लिया जाने की संभावना नहीं है| राज्य विधानसभा ने प्रस्ताव पारित किया तो भी अमल करने की दृष्टि से, उसे महत्त्व नहीं| इस कारण, विधानसभा के चुनावों पर नजर रखकर ही मायावती ने उ. प्र. के विभाजन का मुद्दा उपस्थित किया है| लेकिन इसका अर्थ यह नहीं की, उ. प्र. के विभाजन की आवश्यकता नहीं| इसकी आवश्यकता है और आगे, २०१७ के विधानसभा के चुनाव के पूर्व या संभव हुआ तो २०१४ के लोकसभा के चुनाव के पूर्व राज्य का विभाजन होना चाहिए|

ध्यान देने योग्य बात

उ. प्र. के विभाजन के बारे में ध्यान देने योग्य बात यह है की, एक बुंदेलखंड का अपवाद छोड दे तो, पिछड़ापन या आर्थिक क्षेत्र में अन्याय होने का मुद्दा इस विभाजन की जड़ में नहीं है| उसी प्रकार, मायावती ने सुझाएँ चार राज्यों की अलग अस्मिता या इतिहास भी नहीं है| तेलंगना या विदर्भ इन राज्यों की मांग की जड़ में जैसे आर्थिक विकास में अन्याय यह एक महत्त्व का कारण है, वैसे ही उनका अलग इतिहास यह भी कारण है| उ. प्र. में के संभाव्य घटक राज्यों के बारे में ये कारण नहीं है| जिस पश्‍चिम प्रदेश और पूर्वांचल का, संकल्पित विभाजन में उल्लेख है, वह दोनों भाग आर्थिक दृष्टि से समृद्ध है| पश्‍चिम प्रदेश तो सर्वाधिक संपन्न है| इस कारण, भावनात्मक मुद्दा यहॉं लागू नहीं होता| राज्य के कामकाज की सुविधा का विचार कर ही उ. प्र. का विभाजन हो सकता है और राज्य के कामकाज की सुविधा यही राज्य पुनर्रचना के संदर्भ में एकमात्र ना सही, लेकिन अत्यंत महत्त्व का निकष होना चाहिए|

एक सूत्र

व्यक्तिश: मैं छोटे राज्यों का पुरस्कर्ता हूँ| इस स्तंभ में अनेक बार मैंने इस मुद्दे की चर्चा भी की है| केन्द्र सरकार अलग-अलग विचार ना कर, पुन: एक बार राज्य पुनर्रचना आयोग गठित करे और वह अपनी सिफारिसें दे| इस संबंध में एक सूत्र का भी मैंने उल्लेख किया था| वह सूत्र इस प्रकार है : किसी भी राज्य की जनसंख्या तीन करोड से अधिक और पचास लाख से कम ना हो| आज उ. प्र. की जनसंख्या १९ करोड से अधिक हो चुकी है| २००१ कीजनगणना के अनुसार वह १६ करोड ६० लाख थी| तो मिझोराम, मेघालय, नागालॅण्ड इन पूर्व के ओर के राज्यों की और गोवा इस दक्षिण के ओर के राज्य की जनसंख्या प्रत्येकी २५ लाख से अधिक नहीं| मिझोराम की जनसंख्या तो वर्ष २००१ में ९ लाख भी नहीं थी| आज वह अधिक से अधिक १२ लाख के करीब होगी| फिर भी वह एक राज्य है| उसे अगल राज्य बनाने का कारण ईसाई लोगों ने किया विद्रोह है| उन्हें खुश करने के लिए, असम का एक जिला रहा मिझोराम एक स्वतंत्र राज्य बना| कम से कम ५० लाख जनसंख्या वहॉं होगी, ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए| संभव हो तो, पडोस के छोटे-छोटे राज्य एक करें या पडोस के बड़े राज्य में उसका विलयन करें| जैसे गोवा का विलयन महाराष्ट्र में सहज संभव है| किसी अस्मिता के अहंकार में उसका जन्म होने के कारण वह अहंकार संजोते रहने की वहॉं की जनता को - सही में सत्ताकांक्षी राजनेताओं को -आदत हो गई होगी तो, उनका अलग अस्तित्व कायम रहने दे, लेकिन उसका दर्जा केन्द्रशासित प्रदेश के समान होना चाहिए| इससे जनता के, केवल उस प्रदेश में की जनता के ही नहीं, संपूर्ण भारतीय जनता के पैसों की काफी बचत होगी| इस सूत्र के अनुसार विचार किया तो उ. प्र. का विभाजन ६ या ७ राज्यों में होगा| केवल उ. प्र. ही नहीं, तो महाराष्ट्र, आंध्र, तामिलनाडू, बिहार, पश्‍चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, राज्यस्थान इन राज्यों का भी विभाजन करना होगा| महाराष्ट्र, आंध्र और प. बंगाल में इस दृष्टि से आंदोलन शुरू भी हुए है|

विषम विभाजन ना हो

उ. प्र. राज्य को चार नए राज्यों में विभाजित करने का सुझाव मायावती ने दिया है| वह योग्य नहीं| सब जानते है की, इस राज्य में लोकसभा की ८० या ८१ सिटें है और राज्य विधानसभा की ४०३| यह एकमात्र राज्य है जहॉं एक लोकसभा क्षेत्र में केवल पॉंच विधानसभा क्षेत्रों का समावेश होता है| महाराष्ट्र में छ:, आंध्र, तामिलनाडु. प. बंगाल आदि राज्यों में सात; मध्य प्रदेश और राज्यस्थान में आठ तो हरियाणा और पंजाब में नौ विधानसभा क्षेत्र एक लोकसभा क्षेत्र में समाविष्ट है| लोकसभा के क्षेत्र में बदल करने का कारण नहीं, लेकिन, उत्तर प्रेदेश मे, नई रचना में, हर विधानसभा में के सदस्यों की संख्या बढ़ सकती है| मायावती की संकल्पित योजना के अनुसार विद्यमान व्यवस्था में पश्‍चिम प्रदेश के हिस्से ३१ लोकसभा क्षेत्र आते है| तो, बुंदेलखंड के हिस्से केवल ४ लोकसभा क्षेत्र आते है| पूर्वांचल के हिस्से भी ३२ लोकसभाक्षेत्र आते है, तो अवध राज्य के हिस्से केवल १३ | चार ही राज्य बनाने हो तो, हर एक के हिस्से में २० के करीब लोकसभा क्षेत्र आने चाहिए| विधानसभा क्षेत्रों के बारे में भी ऐसी ही विषमता दिखाई देती है| पश्‍चिम प्रदेश में १५० और पूर्वांचल में १५९ विधानसभा क्षेत्र आते है, तो बुंदेलखंड में केलव २१ | यह विभाजन व्यवस्था योग्य नहीं| प्रत्येक संकल्पित राज्य में, आज की व्यवस्था के अनुसार कम से कम ९० से १०० विधानसभा क्षेत्र आने चाहिए| इस प्रकार ही विभाजन की योजना होनी चाहिए| मेरे सूत्र के अनुसार विभाजन किया और छ: राज्य बनाए तो प्रत्येक के हिस्से १३ - १४ लोकसभा क्षेत्र आएगे| इसमें कुछ भी अनुचित नहीं| अलग विदर्भ की मांग मान्य हुई तो उसके हिस्से में केवल ११ लोकसभा क्षेत्र आते है| तेलगंना के बारे में मुझे निश्‍चित कल्पना नहीं है| लेकिन वहॉं भी १४ या १५ लोकसभाक्षेत्र समाविष्ट होंगे| तात्पर्य यह की, उ. प्र. के विभाजन का गंभीरता से और विशिष्ट तत्त्व निश्‍चित कर विचार होना चाहिए| मायावती के मन में आया, इसलिए राज्यरचना की, ऐसा नहीं होना चाहिए| सौभाग्य की बात यह है की, उ. प्र. के विद्यमान प्रदेश में या संकल्पित पुनर्रचना में भावना का उद्रेक नहीं है| जहॉं कहीं होगा तो वह बुहत सौम्य है|   

समझदारी आवश्यक

अलग राज्यों की निर्मिती केलिए, स्वातंत्र्योत्तर काल में उग्र आंदोलन करने पड़े, यह दु:ख की बात है| पुराने मद्रास प्रांत में से आंध्र अलग करने के लिए श्रीरामलू को अनशन कर अपने प्राणों की आहुती देनी पड़ी| उसके पश्‍चात् हुए हिंसाचार के बाद आंध्र प्रदेश अलग हुआ| द्विभाषिक से अलग होने के लिए महाराष्ट्र में भी उग्र आंदोलन हुआ| १०९ शहिदों को आहुति देनी पड़ी और १९५७ के चुनाव में कॉंग्रेस को पटकनी भी देनी पड़ी| उसके बाद महाराष्ट्र और गुजरात यह दो राज्य बने| पंजाब के अलग राज्य के लिए भी उग्र आंदोलन करना पड़ा| उत्तराखंड के लिए बहुत बड़ा आंदोलन नहीं हुआ| लेकिन थोड़ी उग्रता लानी ही पड़ी| अपवाद छत्तीसगढ़ और झारखंड इन राज्यों का है| ये राज्य समझदारी से बने| यही समझदारी तेलंगना और विदर्भ कोभी नसीब हो, और समझदारी से उ. प्र. का भी सही और व्यवस्थित विभाजन हो|

जम्मू-काश्मीर का भी विभाजन

इस निमित्त मुझे जम्मू-काश्मीर राज्य के विभाजन का भी विचार रखना है| विद्यमान जम्मू-काश्मीर राज्य के तीन स्वतंत्र भौगालिक भाग है| (१) लद्दाख (२) काश्मीर की घाटी और (३) जम्मू प्रदेश| रणजित सिंह के सरदार गुलाब सिंह के पराक्रम के कारण यह सब प्रदेश रणजित सिंह के राज्य से जोडा गया| उनकी मृत्यु के बाद केवल सात-आठ वर्ष में अंग्रेजों ने वह राज्य जीत लिया| गुलाब सिंह ने चुतराई से ७५ लाख रुपये देकर और अंग्रेजों की मांडलिकता मान्य कर, संपूर्ण जम्मू-काश्मीर पर (पाकव्याप्त काश्मीर के प्रदेश सहित) अपनी सत्ता स्थापन की| १९४७ के अक्टूबर माह में, तत्कालीन संस्थानिक (राजा) हरिसिंह ने विलीनीकरण के अनुबंध पर स्वाक्षरी कर उस भाग को भारत का अविभाज्य भाग बना दिया| उसके बाद वहॉं शेख अब्दुला की सत्ता स्थापन हुई और सर्वसामान्य मुस्लिम सत्ताधारियों के अनुसार उन्होंने अपनी अलग जड़ें जमाने के षड्यंत्र किये| काश्मीर का वह सारा इतिहास यहॉं बताने की आवश्यकता नहीं| इतना बताया तो भी काफी है कि, १९४७ से २०११ इन ६४ इन वर्षों की अवधि में जम्मू में का एक भी हिंदू काश्मीर का मुख्यमंत्री नहीं बन सका| इतना ही नहीं, विभाजन के समय जो हिंदू पाकिस्थान में से भारत में आए और जम्मू में बसे, उन चार-पॉंच लाख हिंदुओं को जम्मू-काश्मीर राज्य की नागरिकता अभी तक नहीं मिल सकी है| वे लोग, लोकसभा के चुनाव में मतदान कर सकते है, मतलब वे भारत के नागरिक है, यह केन्द्र सरकार को मान्य है, लेकिन राज्य विधानसभा या स्थानिक स्वराज्य संस्था के चुनाव लिए उन्हें मताधिकार नहीं है| नकली सेक्युलॅरिझम् का चष्मा पहने लोगों को यह अन्याय दिखाई नहीं देता| जम्मू प्रदेश और काश्मीर के घाटी की जनसंख्या समान है| लेकिन जम्मू प्रदेश के हिस्से में लोकसभा की केवल दो सिटें है, तो घाटी के हिस्से में ३ | राज्य विधानसभा में जम्मू के हिस्से ३७ सिंटे है तो घाटी के हिस्से में ४६ ! आर्थिक क्षेत्र में भी अत्यंत विषम व्यवहार है| केन्द्र से प्राप्त अनुदान की केवल १० प्रतिशत राशि जम्मू प्रदेश के हिस्से आती है| काश्मीर कीघाटी में हिंदूओं की संख्या केवल चार-पॉंच लाख थी| मतलब घाटी की कुल जनसंख्या के दस प्रतिशत भी नहीं| लेकिन वे हिंदू वहॉं रह नहीं सके| उन्हें, योजनापूर्वक हकाला गया| उनके लिए कोई दो आँसू भी बहाता| और घाटी में के मुसलमानों को तो इसके बारे में शर्म भी अनुभव नहीं होती| हाल ही में केन्द्र सरकार ने पत्रकार दिलीप पाडगॉंवकर के नेतृत्व में वार्ताकारों के तीन सदस्यों की एक टीम, जम्मू-काश्मीर के विघटनवादियों से चर्चा करने के लिए भेजी थी| उस समिति ने अपनी रिपोर्ट सरकार को प्रस्तुत की| पता नही क्यों, प्रसार माध्यमों में उसकी अधिक चर्चा नहीं हुई| ऐसी जानकारी है की, इस समिति ने जम्मू, घाटी, और लदाख यह तीन विभाग मान्य किए है, उनके विकास की ओर ध्यान देने के लिए, इन तीन प्रदेशों के लिए अलग-अलग परिषदें स्थापन करें, ऐसा सुझाव दिया है| लेकिन इस मलमपट्टी से कुछ साध्य नहीं होगा| आवश्यकता राज्य के त्रिभाजन की ही है| कारण तीनों विभाग केवल भौगोलिक दृष्टि से ही अलग नहीं, सांस्कृतिक एवं भावनिक दृष्टि से भी उनके बीच कोई मेल नहीं| जम्मू का अलग राज्य बन सकता है| काश्मीर घाटी का अलग, और लदाख केन्द्रशासित प्रदेश| उ. प्र. का विभाजन करने की अपेक्षा भी इस राज्य के विभाजन की आवश्यकता अधिक है| जम्मू प्रदेश और घाटी की जनसंख्या निश्‍चित ही अब प्रत्येकी ६० लाख से अधिक होगी|

सारांश

सारांश यह कि, राज्यरचना का मूलभूत विचार किया जाना चाहिए| इसके लिए राज्य पुनर्रचना आयोग की स्थापना की जानी चाहिए| उ. प्र. की कॉंग्रेस पार्टी ने भी, मायावती की योजना के काट में ही सही, इस मांग का उच्चार किया है| यह अच्छी बात है| आशा करें की, केन्द्र सरकार अपनी पार्टी की मांग का सहानुभूति से विचार करेगी और उ. प्र. के विधानसभा के चुनाव होने के बाद नए पुनर्रचना आयोग के नियुक्ति की घोेषणा करेगी| २०१४ और उसके बाद के चुनाव इस नई रचना के अनुसार ही हो|

- मा. गो. वैद्य, नागपुर
babujaivaiday@gmail.com

(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)             

Wednesday 16 November 2011

निर्वाचित प्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार आवश्यक और संभव भी

रविवार का भाष्य दि. १६ नवम्बर २०११ के लिए

चुनाव आयोग ने, निर्वाचित प्रतिनिधि को वापस बुलाने केअधिकार के कारण, अस्थिरता निर्माण होगी और विकास कार्यों को बाधा पहुँचेगी, यह कारण बताकर इस अधिकार को विरोध किया है| आयोग का कहना है की, चुनाव हारनेवाले उम्मीदवार, परिणाम घोषित होने के दुसरे दिन से ही, निर्वाचित उम्मीदवार को वापस बुलाने की कारवाई शुरू करेगे और इस कारण अस्थिरता निर्माण होगी तथा बारबार चुनाव लेने पडेगे| भाजपा के वरिष्ठ नेता अडवाणी जी ने भी चुनाव आयोग के इस मत को समर्थन दिया है|

ढूलमूल रवैया ना रखे
चुनाव पद्धति में सुधार हो, ऐसा प्राय: सभी को लगता है| इन सुधारों में निर्वाचित व्यक्ति को वापस बुलाने के अधिकार का समावेश है| यह सच है की, टीम अण्णा ने इस अधिकार का पुरस्कार किया है| इस कारण, इस विषय पर चर्चा शुरू हुई है| लेकिन मेरे स्मरण अनुसार ७ सितंबर २०११ के मेरे ‘भाष्य’में चुनाव सुधारों के अनेक मुद्दों की चर्चा करते समय, मैंने अत्यंत संक्षेप में निर्वाचित को वापस बुलाने के अधिकार का भी निर्देश किया था|(मेरा वह मराठी लेख जिज्ञासू  http://www.mgvaidya.blogspot.com/ पर में पढ़ सकते है|)
टीम अण्णा ने, जिसमें, शांतिभूषण, प्रशंातभूषण, अरविंद केजरीवाल, मनीष शिसोदिया और किरण बेदी का अंतर्भाव था, चुनाव आयोग के साथ की चर्चा में मान्य किया की, इस मांग का पुनर्विचार करना पडेगा, ऐसा प्रकाशित समाचार में कहा गया है| इसका अर्थ टीम अण्णा और स्वयं अण्णा हजारे भी इस बारे में आग्रही नहीं, ऐसा हो सकता है| लेकिन इस बारे में ढूलमूल रवैया उपयोगी नहीं| टीम अण्णा ने इस बारे में भी दृढ रहना चाहिए|

सजा क्यों नहीं?
मेरा मत है की, यह अधिकार आवश्यक है और उसपर अमल करना भी संभव है| उम्मीदवार चुनकर आया हो तो भी, उसने वह चुनाव भ्रष्टाचार कर और / या चुनाव के कानून का भंग कर जीता होगा, तो उसके निर्वाचन के विरुद्ध याचिका की जा सकती है| ऐसी अनेक याचिकाएँ दाखिल होती है| कुछ याचिकाओं को अनुकूल निर्णय प्राप्त होता है| उस समय उस निर्वाचित उम्मीदवार का चुनाव रद्द होता है और पुन: चुनाव लेना पड़ता है| आज तक चुनाव आयोग ने ऐसे कई चुनाव लिये है| चुनाव जितने के लिए झूठा आचरण करने के लिए सजा हो सकती है तो चुनाव जितने के बाद झूठा आचरण करनेवाले को सजा क्यों नहीं होनी चाहिए?

दो ठोस उदाहरण
हाल ही दो उदाहरण बताता हूँ| एक उदाहरण नरसिंहराव प्रधानमंत्री थे उस समय का है| मतलब १९९१ ते १९९६ इन पॉंच वर्षों में का| सरकार बचाने के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा के निर्वाचित सांसदों ने सरकार पक्ष से धूस लेकर मतदान किया| झामुमों के प्रमुख शिबू सोरेन को इसके लिए सजा भी हुई| लेकिन क्या उनकी संसद की सदस्यता गई? या उनके पार्टी के जिन सदस्यों ने घूस लेकर मतदान किया, उनका संसद सदस्यत्व गया? अपनी निष्ठा बेचनेवाले इस बिकाऊ माल को लोग अपना प्रतिनिधि क्यों स्वीकार करे? उन्हें क्यों हटाया नहीं जाना चाहिए? 
दूसरा उदाहरण अभी अभी का मतलब केवल तीन वर्ष पूर्व का है| २००८ के जुलै माह में का है| मनमोहन सिंह की सरकार बचाने के लिए कुछ सांसदों को घूस देकर फोडा गया| कुछ ने सरकार के पक्ष में मतदान किया, तो कुछ ने बीमारी का बहाना बनाकर अनुपस्थित रहने का विक्रम किया| इन घूसखोर, बिकाऊ माल में भाजपा के भी छ: सांसद थे| उन्हें क्या सजा मिली? उन्हें किसने और कितने पैसे दिये इसकी सीबीआय ने या अन्य किसी केन्द्रीय अपराध अन्वेषण यंत्रणा ने जॉंच की? अब यह मामला न्यायप्रविष्ठ है| जिन्हें घूस दी गई या जिन्होंने भ्रष्टाचार का भंडाफोड करने की व्यूहरचना की, वे जेल में है; और स्वयं का आसन बचाने के लिए जिन्होंने यह भ्रष्ट खरेदी-व्यापार किया, वे सरे आम खुले घूम रहे है| यह सच है की, २००८ के कुछ माह बाद तुरंत ही २००९ में लोकसभा के चुनाव हुए| इस कारण, उन्हें वापस बुलाने से भी कुछ विशेष परिणाम नहीं होता| किंतु, इस प्रकरण में के कितने सांसद २००९ के चुनाव में खड़े हुए और कितने चुनकर आए, इसका भी हिसाब रखा जाना चाहिए| हमारे विदर्भ में के सांसद को २००९ के चुनाव में मतदाताओं ने घर बिठाया| इस प्रकरण के एक मुख्य सूत्रधार अमरसिंह कहते है की उन्हें इस प्रकरण की पूरी जानकारी है| सरकार उनका भी साक्ष दर्ज करे|

एक उपाय
मेरा मुद्दा यह है की, अपना इमान बेचनेवाले का, लोग, अपने प्रतिनिधि के रूप में बोझ क्यों ढोए?  यह सही है की निर्वाचित प्रतिनिधि को वापस बुलाने की प्रक्रिया आसान नहीं होगी| लेकिन वह निश्‍चित करना असंभव नहीं| मैं यहॉं एक उपाय सुझाता हूँ| उसे अंतिम या परिपूर्ण मानने का कारण नहीं| उसमें संशोधन हो सकता है| बदल भी हो सकता है| मैं विधानसभा क्षेत्र का उदाहरण ले रहा हूँ| लोकसभा का क्षेत्र बड़ा होने के कारण उसमें कुछ बदल भी किया जा सकता है|
निर्वाचित विधायक को वापस बुलाना हो, तो उस मतदारसंघ में हुए कुल मतदान के कम से कम दस प्रतिशत मतदाता कारण बताकर, यह प्रतिनिधि हमें नहीं चाहिए, ऐसा आवेदन चुनाव आयोग के पास भेजे| कल्पना करे की, उस मतदान क्षेत्र में एक लाख मतदान हुआ, तो १० हजार या उससे अधिक मतदाताओं की स्वाक्षरी का आवेदन चुनाव आयोग के पास जाना चाहिए| इस आवेदन के साथ २५ हजार रुपये अनामत चुनाव आयोग के पास जमा करानी होगी| इसके बाद चुनाव आयोग जनमत जान लेने की व्यवस्था करेगा| इसके लिए मतदार संघ में के सब मतदाताओं को मतदान करने की आवश्यकता नहीं होगी| इसके लिए एक विशेष छोटा मतदारसंघ  (Special Electoral College) होगा| उस मतदारसंघ के क्षेत्र में की ग्रामपंचायतों, पंचायत समितियों, उसी प्रकार जिला परिषदों के सब सदस्य इस विशेष मतदार संघ में मतदाता होगे| उसी प्रकार इस क्षेत्र में की नगर परिषदों और महापालिका हो तो, उस महापालिका के सदस्य भी मतदार होगे| ये सब लोगों द्वारा निर्वाचित ही होते है| मतलब एक प्रकार से वे जनता का ही प्रतिनिधित्व करते है| इस मतदारसंघ में सुबुद्ध नागरिकों का भी अंतर्भाव हो सकता है| इसके लिए उस क्षेत्र में की सब मान्यताप्राप्त प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालयों के मुख्याध्यापकों को भी मतादान का अधिकार होना चाहिए| मतदान सब के लिए अनिवार्य होना चाहिए| जिन्हें मतदान नहीं करना है, उन्हें पहले से ही इसके लिए, चुनाव आयोग से अनुमती लेनी होगी| हुए मतदान के ६० प्रतिशत या उससे अधिक मत, निर्वाचित प्रतिनिधि को वापस बुलाने के प्रस्ताव के पक्ष में पड़ने पर ही, उसकी सदस्यता रद्द होगी| अन्यथा वह कायम रहेगी| दस प्रतिशत स्वाक्षरियॉं जमा करने के लिए जिस व्यक्ति या गुट की पहल होगी, उसने जमा की अनामत राशि, उस प्रस्ताव के पक्ष में ४० प्रतिशत से कम मत मिलनेपर जप्त होगी| इस कारण फालतू आरोप करनेवालों पर धाक बैठेगी| लेकिन ४० प्रतिशत या उससे अधिक मत वापस बुलाने के प्रस्ताव के पक्ष में पड़ने पर वह राशि संबंधितों को लौटा दी जाएगी|

सांसदों के लिए
लोकसभा का मतदासंघ बड़ा होता है| वहॉं पुन: मतदान कराने के लिए बनाए जानेवाले मतदारसंघ की रचना भिन्न हो सकती है| ग्रामपंचातें, पंचायत समितियॉं या जिला परिषदों के सब सदस्यों को मताधिकार देने के बदले, उस क्षेत्र में आनेवाली ग्रामपंचायतों के सरपंच और पंचायत समितियों के तथा जिला परिषदों के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष तक यह अधिकार मर्यादित किया जा सकता है| नगर परिषदों और महापालिकाओं के सब सदस्यों को मताधिकार रहेगा| सुबुद्ध जनों में, उस क्षेत्र में के सब महाविद्यालयों के प्राचार्य, उसी प्रकार विश्‍वविद्यालय की सेवा में रत सब रीडर्स और प्रोफेसर्स को भी इस विशेष मतदारसंघ में समाविष्ट किया जा सकता है| अन्य नियम एवं शर्ते उसी प्रकार होगी| अनामत राशि का आँकड़ा बढ़ाया जा सकता है; और जो दस प्रतिशत स्वाक्षरी देंगे, वे मतदार, लोकसभा के क्षेत्रांतर्गत आनेवाले सब विधानसभा क्षेत्रों में से कम से कम आधे मतदारसंघों में के होने चाहिए, ऐसा निर्बंध होगा| इस कारण केवल एक-दो मतदारसंघों में के मतदाताओं की मांग होने से नहीं चलेगा| उद्देश्य यह की वापस बुलाने की प्रक्रिया में अधिकांश मतदारसंघों का प्रतिनिधित्व रहे|

भय ना रखे
६० प्रतिशत या उससे अधिक मतदान प्रस्ताव के पक्ष में हुआ, तो पुन: चुनाव होगा| इस चुनाव में, जिसके विरुद्ध प्रस्ताव पारित हुआ है, वह खड़ा नहीं रह सकेगा| यह या इस प्रकार की अन्य शर्ते रहेगी, इससे सहज या अकारण निर्वाचित प्रतिनिधि को वापस बुलाने के प्रयत्नों पर प्रतिबध लगेगा| चुनाव आयोग ने पुन: मतदान का भय पालने की आवश्यकता नहीं| १९८९ से १९९९ इन केवल दस वर्षों के कालखंड में संपूर्ण लोकसभा के पॉंच आम चुनाव हुए| १९८९, फिर १९९१, फिर १९९६, फिर १९९८, फिर १९९९| मतलब जिस कालावधि में १९९४ और १९९९ ऐसे दो ही चुनाव होने चाहिए थे, उस कालावधि में पॉंच चुनाव हुए और उसकी सब व्यवस्था चुनाव आयोग ने की| उस तुलना में विशेष मतदारसंघ बनाकर, उसके द्वारा चुनाव लेना कई गुना आसान है| इस प्रक्रिया में अस्थिरता का प्रश्‍न ही नहीं और विकास कार्य में बाधा, यह मुद्दा तो पूर्णत: निरर्थक है|
उपर उल्लेख किये अनुसार यह एक उपाय मैंने सुझाया है| उसके विकल्प हो सकते है| मेरे विकल्प पर साधक-बाधक चर्चा हुई, तो मुझे निश्‍चित ही अच्छा लगेगा|

- मा. गो. वैद्यनागपुर
 (अनुवाद : विकास कुलकर्णी)   
       

Thursday 10 November 2011

भाजपा का कॉंग्रेसीकरण हो रहा है?

लेख का शीर्षक प्रश्‍नात्मक है और मेरा उत्तर ‘हॉं’ है| कॉंग्रेसीकरण की राह पर भाजपा की ‘प्रगति’ हो रही है| लेकिन कॉंग्रेस ने इस ‘प्रगति’ में जो मुक्काम हासिल किया है, वह भाजपा ने हासिल नहीं किया है; शायद हासिल कर भी नहीं पाएगी|

परिवारवाद

इस दृष्टि से कुछ मुद्दों का हम इस लेख में विचार करेगे| पहला मुद्दा ‘परिवारवाद’ का है| कॉंग्रेस पार्टी ने इस बारे में जो शिखर पार किया है, भाजपा अभी तक वहॉं पहुँच नहीं पाई है; और शायद कभी पहुँच भी नहीं सकेगी| लेकिन, अपने रिश्तेदारों को लाभ और प्रतिष्ठा के पदों पर आरूढ करने की प्रक्रिया भाजपा में भी शुरू हुई है| भाजपा के राष्ट्रीय स्तर के एक उपाध्यक्ष और हिमाचल प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री शांताकुमार ने इस बारे में सार्वजनिक रूप से खेद भी व्यक्त किया है| शांताकुमार के उद्गारों का आशय है : ‘‘परिवारवाद राजनीति की ओर (भाजपा) पार्टी की प्रवृत्ति बढ़ रही है| पार्टी के सामने बहुत बड़ा संकट है| हिमाचल प्रदेश से कर्नाटक तक भाजपा, लड़के, लड़कियॉं और परिवाजनों की पार्टी बन रही है, ऐसा दिखता है|’’ शांताकुमार अखिल भारतीय स्तर के भाजपा के अधिकारी है| वे कुछ भी बोलनेवाले नेता के प्रवृत्ति के नहीं है| मेरा उनसे कुछ परिचय है, उसके आधार पर मैं यह कह सकता हूँ| हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री धुमल के पुत्र सांसद है, यह तो उन्हें निश्‍चित ही पता होगा| लेकिन उन्होंने जिस प्रकार यह सार्वजनिक विधान किया है, उससे लगता है की उनके पास बहुत कुछ मसाला होना चाहिए| हमें केवल महाराष्ट्र में की ही घटनाएँ पता है| लेकिन वह भी बहुत कुछ स्पष्ट करनेवाली है| गोपीनाथ मुंडे महाराष्ट्र में के भाजपा के श्रेष्ठ नेता है| वे सांसद है ही| लेकिन उनकी लड़की और दामाद भी विधायक है| उनकी भांजी भी चुनाव में खड़ी थी| वह दुर्भाग्य से पराजित हुई| एकनाथ खडसे ये भाजपा के नेता आज महाराष्ट्र विधानसभा में विपक्ष के नेता है| उनका लड़का विधान परिषद के चुनाव में खड़ा था| वह पराभूत हुआ| यही प्रवृत्ति सर्वत्र होगी, इस कारण ही शांताकुमार जैसा नेता ऐसा बोल सका|

संघ की रीत

नेताओं के रिश्तेदारों की गुणवत्ता के बारे में मुझे प्रश्‍न नहीं उपस्थित करना है| वे कभी संघ में आए भी होगे| लेकिन उन्होंने संघ जीवन में उतारा नहीं | मुझे एक सामान्य कार्यकर्ता की जानकारी है| वह एक शिक्षा संस्था का पाव शतक से अधिक समय अध्यक्ष था| उसने निश्‍चय किया था की अपने करीबी रिश्तेदारों को संस्था की ओर से चलाई जानेवाली शाला में नौकरी नहीं देना| वह अध्यक्ष था उस समय, एक शाला में की शिक्षिका प्रसूति और वैद्यकीय छुट्टी पर गई| तीन माह के लिए वह जगह रिक्त हुई थी| अध्यक्ष की लड़की बी. ए., बी. एड. थी| मतलब आवश्यक आर्हता उसके पास थी| किसी ने उसे बताया की, तू आवेदन दे| उसने अपने पिता से पूँछा| उन्होंने कहा, ‘तू आवेदन मत दे| तुझे नौकरी नहीं मिलेगी|’ उसने पूँछा, ‘क्यों?’ पिता ने कहा, ‘कारण तू अध्यक्ष की लड़की है|’ मैं तरुण भारत में कार्यकारी संपादक था उस समय, हमने परीक्षा लेकर तीन संपादकों को नौकरी दी| परीक्षा के लिए आए उम्मीदवारों में तरुण भारत का संचालन करनेवाली संस्था के अध्यक्ष श्री बाळासाहब देवरस का सगा ममेरा भाई भी था| बाळासाहब ने बुलाकर मुझे बताया कि, ‘‘तुम्हें योग्य लगा तो ही उसे ले| मेरा रिश्तेदार है इस कारण उसका विचार ना करे|’’ और उस परीक्षा में गुणानुक्रमानुसार हमने प्रभाकर सिरास, शशिकुमार भगत और बाळासाहब बिनीवाले का चुनाव किया| बाळासाबह देवरस ने मुझे एक शब्द भी नहीं पूँछा| यह संघ की रीत है| द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी ने ‘‘मैं नहीं, तू ही’’ इस आशयगर्भ संक्षेप में उसे व्यक्त किया है| संघ के स्वयंसेवक को प्रथम औरों का विचार करते आना चाहिए|

कॉंग्रेस की रीत

कॉंग्रेस का क्या कहना! पंडित जवाहरलाल के बाद उनकी पुत्री श्रीमती इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी| उनके बाद कनिष्ठ पुत्र संजय गांधी ही प्रधानमंत्री बनते| लेकिन एक अपघात में उनकी मृत्यु हुई इसलिए उनके वैमानिक पुत्र राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने| उनके बाद श्रीमती सोनिया गांधी, उनके बाद राहुल गांधी यह परिवारवाद कहे या राजशाही कहे परंपरा चल रही है| लेकिन कॉंग्रेसजनों को इसके बारे में कुछ नहीं लगता| उनकी पार्टी में निकला कोई शांताकुमार? जो परंपरा उपर चल रही है वही नीचे भी चालू रही तो आश्‍चर्य कैसा! भुजबळ का पुत्र और भतीजा सांसद-विधायक नहीं बनेगे तो कौन बनेगा? सुशीलकुमार शिंदे की लड़की विधायक नहीं बनेगी तो कौन बनेगा? श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान ने ही कहा है कि, ‘‘यद् यदाचरति श्रेष्ठ: तत् तदेवेतरो जन:| स यत् प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते’’ (अध्याय ३, श्‍लोक २१) - अर्थ बिल्कुल आसान है : श्रेष्ठ व्यक्ति जिस प्रकार आरचण करती है, वैसा ही आरचण अन्य लोग करते है| वे जो प्रमाणभूत करती है, उसका ही अनुसरण लोग करते है| इस कारण इनमें कौन भला और कौन बुरा, यह बताना कठिन है| हम इतना ही कह सकते है की, कॉंग्रेस और भाजपा में अंतर होगा ही तो वह अनुपात का है, प्रकार का नहीं|

गुटबाजी

दुसरा मुद्दा गुटबाजी का है| वह दोनों पार्टियों में है| लेकिन हाल ही में, पुणे शहर भाजपा के अध्यक्ष की नियुक्ति के संदर्भ में गोपीनाथ जी की नाराजी समाचारपत्रों एवं प्रसारमाध्यमों में प्रमुखता से प्रकट हुई, उस समय उन्होंने, वे स्वयं अपनी नाराजी नहीं व्यक्त कर रहे, कार्यकर्ताओं की नाराजी व्यक्त कर रहे है, यह जोर देकर बताया था| मेरा उस समय भी प्रश्‍न था और आज भी है की, यह कार्यकर्ता किसके? गोपीनाथ जी के या भाजपा के? उनपर अन्याय हुआ तो उन्होंने प्रदेश अध्यक्ष के पास जाना चाहिए या नहीं? मान ले वहॉं भी न्याय नहीं मिला तो केन्द्र से शिकायत करनी चाहिए या नहीं? गोपीनाथ जी ने उनकी पैरवी पार्टी स्तर पर करने के बारे में कोई आक्षेप नहीं लेता| लेकिन उन्होंने जो सार्वजनिक हो हल्ला मचाया उसका कारण क्या है?  कारण एक ही हो सकता है, वह है नेता का अहंकार और उसका पोषण करनेवाले अनुयायी| केवल महाराष्ट्र में ही ऐसे गुट होंगे ऐसा नहीं| राजस्थान में, मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का पराभव करने की योजना में भैरोसिंह शेखावत, जसवंत सिंह, प्रदेशाध्यक्ष माथुर जैसे बड़े बड़े लोग शामिल थे, ऐसे समाचार थे और वह झूठ थे ऐसा किसी ने नहीं कहा| कॉंग्रेस में तो गुटबाजी का कहर ही है| उस पार्टी के सौभाग्य से वह केन्द्रीय स्तर पर प्रकट नहीं हुई, लेकिन प्रदेश स्तर पर वह खूब है| केन्द्रीय नेताओं को, सारे सूत्र अपने हाथों में रखने के लिए यह गुटबाजी लाभदायक ही होती है| इससे उन्हें छोटे नेताओं को एक के विरुद्ध दूसरे संघर्ष में लगा देना संभव होता है, जिससे किसे भी वरिष्ठ को आव्हान देने की शक्ति प्राप्त नहीं होती| श्रीमती इंदिरा गांधी ने महाराष्ट्र में यशवंतराव चव्हाण के समर्थ नेतृत्व को लगाम लगाने के लिए यही चाल चली थी| भाजपा में, सौभाग्य से, केन्द्रीय नेताओं का गुटबाजी को आशीर्वाद नही और पार्टी को कमजोर करने की साजिश भी नहीं होती, यह सच है|

पार्टी संगठन

गुटबाजी निर्माण होने अनेक कारण हो सकते है लेकिन, मेरे मतानुसार, एक महत्त्व का कारण - वैधानिक (लेजिस्लेटिव विंग) पक्ष, संगठनात्मक पक्ष (ऑर्गनायझेशनल विंग) से शक्तिशाली होना है| वैधानिक पक्ष का आकर्षण होना बिल्कुल स्वाभाविक है| कारण उससे ही मंत्री, विधायक, सांसद जैसे लाभ और प्रतिष्ठा के पद प्राप्त होते है| संगठन शास्त्र का जो थोड़ा बहुत ज्ञान और अनुभव मेरे पास संग्रहीत है, उसके आधार पर मैं यह कह सकता हूँ की संगठनात्मक पक्ष वैधानिक पक्ष से शक्तिशाली होना चाहिए| कम से कम समतुल्य होना चाहिए| कॉंग्रेस ने पार्टी संगठन करीब समाप्त ही कर डाला है| एक औपचारिकता मात्र दिखाई देती है| मतलब वह दिखावटी है| इस संदर्भ में थोडा इतिहास देखनेलायक है| पंडित जवाहरलाल नेहरु प्रधानमंत्री थे उस समय, उनके जैसे ही वयोज्येष्ठ अनुभवी नेता पुरुषोत्तमआस टंडन कॉंग्रेस पार्टी के अध्यक्ष थे| पंडित जी और उनके बीच किसी बात को लेकर विवाद हुआ| तब टंडन जी को अध्यक्षपद छोडना पड़ा; और पंडित नेहरु ही प्रधानमंत्री और पक्षाध्यक्ष भी बने| वे पुरानी विचारधारा के थे, इसलिए यह व्यवस्था उन्हें जची नहीं और जल्द ही उन्होंने पक्षाध्यक्ष का पद छोड दिया| लेकिन उस पद पर अपने अनुकूल, तुलना में बौना, अध्यक्ष चुना| श्रीमती इंदिरा गांधी ने भी वहीं परंपरा जारी रखी| कामराज जैसे जनसामान्य से उभरे समर्थ व्यक्ति के अध्यक्ष बनते ही, इंदिरा जी ने पार्टी तोडी और फिर देवकांत बरुआ, देवराज अर्स, शंकरदयाल शर्मा जैसे उनकी नजर से नजर मिलाने की हिंमत ना रखनेवाले अध्यक्ष बनाए| आगे चलकर यह उपचार भी उन्होंने बंद कर दिया| अपने ही पास प्रधानमंत्रीपद और अध्यक्षपद भी रखा| वहीं प्रथा राजीव गांधी ने चालू रखी| नरसिंहराव ने भी उसी का अनुसरण किया| सोनिया जी भी वहीं परंपरा चलाती, लेकिन वे कुछ तकनीकी कारणों से प्रधानमंत्री नहीं बन सकी| वे पार्टी की अध्यक्ष है और उनके पास कोई भी सरकारी अधिकारपद नहीं है, इसलिए उनका दबदबा है| इसी कारण संगठन में उपरी स्तर पर गुटबाजी नहीं| भाजपा में भी अटलबिहारी बाजपेयी ने संगठन के पक्ष की भरपूर उपेक्षा की थी| एक बार मंत्रिमंडल में बदल होतेसमय, नए मंत्री बने एक विशिष्ट व्यक्ति के बारे में कुछ बातें मेरे सुनने में आई थी| सहज मैंने राष्ट्रीय अध्यक्ष को दूरध्वनि कर पूँछा कि, मंत्रिमंडल के नए बदल के बारे में आपसे कुछ चर्चा हुई थी? उनका उत्तर था, मंत्रिमंडल में हुए बदल मैंने समाचार पत्रों में पढ़े!

कम्युनिस्ट पार्टी में

कम्युनिस्ट पार्टी में स्थिति इससे भिन्न है| वहॉं संगठन पक्ष अधिक शक्तिशाली है| प्रकाश कारत या अर्धेन्दुभूषण बर्धन, पार्टी संगठन में सर्वोच्च पद पर है; लेकिन वे ना सांसद है, ना विधायक| राज्य स्तर भी ऐसी ही स्थिति होगी, ऐसा मेरा तर्क है| केरल के मुख्यमंत्री अच्युतानंद और पार्टी के महासचिव विजयन् के बीच बेवनाव की चर्चा हमने पढ़ी है| ये विजयन् विधायक नहीं थे| ऐसी ही परिस्थिति बंगाल में भी थी| बुद्धदेव भट्टाचार्य के समान या संभवत: उनसे भी अधिक दबदबा बिमान सेन इस पार्टी के महासचिव का था और अभी भी है| मेरे मतानुसार पार्टी अनुशासन के लिए, गुटबाजी निर्माण नहीं होनी चाहिए इसलिए यह पद्धति अधिक उपयुक्त है| राज्य स्तरपर और उसी प्रकार केन्द्र स्तरपर कम से कम एक श्रेष्ठ पद ऐसा होना चाहिए की जिस पद पर की व्यक्ति लाभार्थी पद के बारे में निरपेक्ष होगी| संगठन में के पद का उपयोग लाभार्थी पद पर चढने की एक पायदान जैसा नहीं होना चाहिए| राज्यस्थान में पार्टी के अध्यक्ष को ही मुख्यमंत्री बनने की इच्छा हुई और वे चुनाव में खडे हुए| क्यों? मुख्यमंत्री बनने के लिए| परिणाम सबके सामने है| मैं पॉंच वर्ष भारतीय जनसंघ के नागपुर शहर और जिले का संगठनमंत्री था| मैं किसी भी लाभार्थी पद के लिए इच्छुक नहीं होने के कारण, व्यक्तिनिरपेक्ष विचार कर सकता था और मेरे शब्द को मान भी था| कॉंग्रेस और भाजपा इन दोनों पार्टिंयों के नीतिनिर्धारकों को अभी तक पार्टी संगठन का सही महत्त्व समझ आया है, ऐसा दिखता नहीं| इतना सही है की, कॉंग्रेस के समान भाजपा में गिरावट नहीं हुई है| लेकिन राह वही है, ऐसा दिखाई देता है|

सैद्धांतिक अधिष्ठान

राजनीतिक पार्टिंयों का उद्दिष्ट सत्ता प्राप्त करना, और बनाए रखना होने में अनुचित कुछ भी नहीं है| विपरित वह स्वाभाविक ही है| लेकिन सत्ता किसलिए, इस बारे में पार्टी का उद्दिष्ट स्पष्ट और निस्संदिग्ध होना चाहिए| यह स्पष्टता और निस्संदिग्धता पार्टी को आधारभूत सिद्धांतों से मिलती है| कॉंग्रेस के पास कोई सिद्धांत ही नहीं बचा है| वहॉं गांधीजी का नाम लिया जाता है, लेकिन कॉंग्रेस गांधीतत्त्वज्ञान कोे सौ प्रतिशत छोड चुकी है| यह अहेतुकता से नहीं हुआ है| पंडित नेहरु के जमाने में समाजवाद यह लक्ष्य था| श्रीमती इंदिरा गांधी ने वही उद्दिष्ट सामने रखा था| राजेरजवाड़ों की प्रिव्ही पर्स उन्होंने रद्द की| बँकों का राष्ट्रीयकरण किया| अनेक मूलभूत उद्योगों में सरकार ने पूँजी लगाई| आपात्काल की विशेष परिस्थिति का उनचित लाभ उठाकर संविधान की आस्थापना में (प्रिऍम्बल) बदल कर उन्होंने ‘सोशॅलिस्ट’ शब्द घुसेडा| अनाज का व्यापार भी अल्प समय के लिए ही सही, सरकार ने अपने अधिकार में लिया| लेकिन, समाजवाद के साफल्य के लिए जनतांत्रिक प्रणाली उपयुक्त नहीं| समाजवाद में आर्थिक एवं राजनीतिक शक्ति का एकत्रीकरण अभिप्रेत है| वह तानाशाही को जन्म देता है| इसलिए समाजवाद के पीछे उसे सौम्य बनानेवाला कोई विशेषण लगाना पड़ता है| वह उसकी सर्वंकषता मर्यादित करता है : जैसे जनतांत्रिक समाजवाद (डेमोक्रेटिक सोशॅलिझम्), गांधीवादी समाजवाद, फेबियन सोशॅलिझम् इत्यादि| इस समाजवादी आर्थिक नीति के कारण देश की अर्थव्यवस्था तहसनहस हुई| फिर १९९१ से नए मुक्त व्यापार का तत्त्व स्वीकारा गया| उसके अवश्य ही कुछ लाभ हुए है| लेकिन अब उनका भी पुनर्विचार आरंभ हुआ है| अर्थात यह हुई आर्थिक नीति| कॉंग्रेस के पास तात्त्विक आधार नहीं होने के कारण, उसका स्वरूप किसी सत्ताकांक्षी विशाल टोली के समान हो गया है| उनकी राजनीति को नैतिक अधिष्ठान यत्किंचित भी नहीं बचा है| स्वाभाविक ही राजनीतिक क्षेत्र में प्रचंड भ्रष्टाचार बढ़ा है|

भाजपा की स्थिति

भाजपा को उसके पूर्वावतार में - जनसंघ को - आधारभूत सैद्धांतिक अधिष्ठान था| उसका स्थूल नाम ‘हिंदुत्व’ है| उस सर्वव्यापक हिंदुत्व के प्रकाश में पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने ‘एकात्म मानववाद’ का सिद्धांत रखा| अब वह शब्द पीछे छूट गया है| भाजपा में उसका उच्चार भी नहीं होता होगा| संघ में विशेषत: संघ शिक्षा वर्ग में, प्रतिवर्ष दो-तीन बौद्धिक वर्ग होते है| १९७७ में जनसंघ जनता पार्टी में विलीन हुआ| तीन वर्ष के भीतर ही उसे, उसमें से बाहर निकलना पड़ा| उसने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) नाम धारण किया| पुराना भारतीय जनसंघ यह नाम क्यो छोड़ा? कारण एक ही दिखता है की, वह नाम लोकप्रिय नहीं होगा, ऐसा उस समय के पार्टी नीतिनिर्धारकों को लगा| लेकिन यह नाम का बदल वैसे खटकनेशवाला मुद्दा नहीं था| किंतु मूल अधिष्ठान ही बदला| ‘गांधीवादी समाजवाद’ यह सिद्धांत स्वीकारा गया| क्यों? कारण समाजवाद का बहुत आकर्षण लगा| उस दशक में सारी दुनिया में ही समाजवाद का आकर्षण था| १९८४ के आम चुनाव में हुए सफाए के बाद भाजपा का समाजवाद भी गया और गांधीवाद भी खत्म हुआ| फिर पुन: हिंदुत्व अपनाया गया; लेकिन ढूलमूल तरीके से, एक औपचारिकता के रूप में| ऐसी अनिशचितता से शायद मत मिल सकेंगे| लेकिन इभ्रत नहीं मिलती| फिर अयोध्या में की राम जन्मभूमि का मुद्दा स्वीकारा गया| अच्छी बात थी| अयोध्या में राममंदिर बनाना मतलब समग्र हिंदुत्व नहीं; लेकिन वह हिंदुत्व को पोषक था| अडवाणी ने रथयात्रा निकाली| लोग फिर भाजपा के साथ आए| वह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में चुनकर आया| लेकिन सत्ता के मोह में उसने अपनी अस्मिता ही धूमिल कर डाली| सत्ताग्रहण के लिए जो पार्टियॉं भाजपा की सहायता में आई, उनकी नीतियॉं भाजपा ने स्वीकार की| धारा ३७० के निराकरण का आग्रह छोडा, हरकत नहीं, लेकिन कम से कम काश्मीरी हिंदुओं के पुनवर्सन को महत्त्व था या नहीं? ‘साझा’ कार्यक्रम में इस मुद्दे को स्थान क्यों नहीं? संपूर्ण ‘समान नागरी संहिता’ का मुद्दा बाजू में रख दिया| ठीक है| लेकिन कम से कम ‘विवाह और तलाक’ का समान कायदा क्यों नहीं? राम मंदिर नहीं बना सके तो वह भी समझा जा सकता है| लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की सूचना के अनुसार अविवादित अधिगृहित जमीन पहले के मालिकों को वापस लौटाने का क्यों नहीं सुझा? कारण एक ही सिद्धांतनिष्ठा छूटी| फिर स्वाभाविक ही भटकना आरंभ हुआ| जो अपना था उससे दूर हो गए, और नया कुछ भी नहीं मिला| अधोगति इतनी हुई कि, ६ दिसंबर का बाबरी ढ़ांचा उद्ध्वस्त करने का दिन, कुछ महान नेताओं के जीवन में का सर्वाधिक ‘क्लेशदायक’ और ‘दु:खदायक’ दिन बन गया! यह प्रश्‍न भी मन में नहीं आया कि, रथयात्रा क्यों निकाली थी? ढ़ांचा गिरता नहीं तो उसके नीचे दबे सबूत मिलते? और अलाहबाद उच्च न्यायालय ने हाल ही जो निर्णय दिया, क्या वह निर्णय भी न्यायालय दे पाता? २००४ और २००९ के चुनावों के परिणाम अस्थिर राजनीति के फल है|

‘बी टीम’

सिद्धांत ना होने पर, सही में उससे निष्ठा, प्रतिबधता, और उसका स्मरण नहीं रहने से स्वार्थ बलवान होता है; अहंकार बढता है| फिर पार्टी हित ताक पर रख दिया जाता है और भ्रष्टाचार पनपता है| येदियुपरप्पा का उदाहरण ताजा है| शांताकुमार कर्नाटक के ही प्रभारी थे| उन्होंने वहॉं के अनुचित प्रकार की जानकारी निश्‍चित ही श्रेष्ठियों को दी होगी| लेकिन उन्होंने ध्यान नहीं दिया| ऐसा बताते है कि, येदियुरप्पा को पद छोडने केलिए कहने का निर्णय हो चुका था| लेकिन येदियुरप्पा ने विधानसभा बरखास्त करने की धमकी दी और श्रेष्ठि झुक गए| लोकायुक्त ने ही उन्हें दोषी बताने के बाद पद छोडना पड़ा| आज वे जेल में है| प्रश्‍न यह है की, सत्ता का मोह इतना प्रखर बने या इतना होने दे कि सारे पार्टी की ही बदनामी हो? कॉंग्रेस के पास सिद्धांत नहीं है| इसलिए कलमाडी, हसनअली और अभी भी उनके जो मित्र है वे राजा, मारन और कनीमोळी के कांड हुए| भाजपा को कॉंग्रेस का विकल्प बनना है| लेकिन क्या उसका अर्थ यह है कि, वह कॉंग्रेस के समान ही हो? अनेक लोग अब खुलेआम कहते है कि भाजपा कॉंग्रेस की ‘बी टीम’ बन गई है|

अस्मिता को ग्रहण

तात्पर्य यह कि, कॉंग्रेस का विकल्प चाहिए| वह भाजपा ही दे सकती है| लेकिन भ्रष्टाचारियों को पनाह देनेवाली, बाबरी ढ़ांचा गिरने का शोक मनानेवाली, बॅ. जिना की आरती उतारनेवाली, गुटबाजी से लिप्त और नेताओं के अहंकार का पोषण करनेवाली - भाजपा सही अर्थ में विकल्प नहीं बन सकती है| राजनीति की दलदल में, एक शुद्ध, प्रखर राष्ट्रवादी प्रवाह रहना चाहिए - ऐसा प्रवाह की जो दलदल में की गंदगी साफ करेगा - इसके लिए ही जनसंघ बना था| इसके लिए संघ ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय, नानाजी देशमुख जैसे अनेक श्रेष्ठ कार्यकर्ताओं को, उनकी राजनीति के कीचड में उतरने की इच्छा ना होते हुए भी उस क्षेत्र में काम करने के लिए प्रेरित किया| ‘अ’ या ‘ब’ को सत्ता प्राप्त हो, वह और उसके रिश्तेदार करोडपति बनकर शान से घूमे, इसके लिए नहीं| मेरा विचारपूर्वक मत बना है कि, १९९८ को जिस घोेषणापत्र के आधार पर भाजपा ने चुनाव लढ़ा था, और जिसके आधार पर उसे १८० सिटें मिली और वह सबसे बड़ी पार्टी बनी, वह घोषणापत्र बाजू में ना रखकर भाजपा खड़ी रहती, तो शायद उस वर्ष उसे सत्ता नहीं मिलती| लेकिन दूसरी कोई भी पार्टी स्थिर सरकार नहीं पाती और शीघ्र ही फिर चुनाव होता| वैसे भी १९९९ में फिर चुनाव हुआ ही| उस चुनाव में, भाजपा ने अपनी अस्मिता का परिचय देनेवाला घोषणापत्र ही बाजू में रख दिया| कितना लाभ हुआ? १८० से १८२! लेकिन अपने सिद्धांत और नीति पर वह कायम रहती तो २०० से आगे निकल जाती|
तात्पर्य यह कि, भाजपा अपने मूल ‘हिंदुत्व’ के सिद्धांतभूमि पर खड़ी रहे; ‘हिंदुत्व’ मतलब राष्ट्रीयत्व यह जनता को समझाकर बताते आना चाहिए| ‘हिंदू’ कोई पंथ नहीं, रिलिजन नहीं, मजहब नहीं, वह धर्म है मतलब वैश्‍विक सामंजस्य का सूत्र है| हिंदुत्व मतलब आध्यात्मिकता और भौतिकता का संगम, चारित्र्य और पराक्रम का समन्वय, निष्कलंक सार्वजनिक एवं व्यक्तिगत चारित्र्य का आदर्श, विविधता का सम्मान, सर्व संप्रदाय का समादर और इसी कारण पंथनिरपेक्ष राज्यरचना का भरोसा, यह आत्मविश्‍वास से बताते आना चाहिए| अटलबिहारी जी ने, गुजरात दंगों के संदर्भ में वहॉं के मुख्यमंत्री को ‘राजधर्म’ की याद दिलाई थी| क्या अर्थ है उस शब्द का? क्या ‘राजधर्म’ मतलब राजा का रिलिजन हुआ? या राजा ने पालने का उपासना का कर्मकांड? धर्म का व्यापक अर्थ बताते आना चाहिए| ‘राष्ट्र’ और ‘राज्य’ इन दो संकल्पनाओं के बीच का अंतर स्पष्ट करते आना चाहिए| राज्य, राजनीति, सरकार यह सब राष्ट्रानुकूल होने चाहिए| राष्ट्र मतलब लोग होते है, Peoele are the Nation   यह मन में धारण कर और जनता की भाव-भावनाओं का विचार कर सारी राजनीति चलनी चाहिए| भाजपा ऐसा करना तय करेगी तब ही वह सही मायने में अलग प्रकार की पार्टी  (Party with a difference) बनेगी| ऐसी पार्टी कॉंग्रेस का विकल्प बनकर आगे आनी चाहिए| कॉंग्रेस में भ्रष्टाचार बड़ी मात्रा में है, हममें थोड़ा रहा तो क्या बिगड़ा, ऐसी मनोधारणा रखनेवाली पार्टी भारतीय जनता को नहीं चाहिए| कॉंग्रेस पार्टी के रास्ते से भाजपा वापस लौटी तो ही उसकी अलग पहेचान सिद्ध होगी| बहुसंख्य जनता की यहीं इच्छा है, अपेक्षा है|

         ('दैनिक देशोन्नती' के दीपावली अंक से साभार)
- मा. गो. वैद्यनागपुर
e-mail: babujivaidya@gmail.com
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)

टीम अण्णा, कॉंग्रेस और संघ

अण्णा हजारे के आंदोलन से सामान्य जनमानस प्रभावित हुआ है, उसी समय उनके टीम में की दुर्बलता प्रकट होने लगी है| इस दुर्बलता का, उनके आंदोलन पर बहुत विपरित परिणाम होगा, ऐसा मुझे नहीं लगता| लेकिन, इससे अण्णा के विरोधकों को, उनके उपर आघात करने के लिए एक शस्त्र मिल गया, यह मान्य करना ही पड़ेगा|

उपोषण पर्व

पहले सब ने यह बात ध्यान में लेनी चाहिए कि, टीम अण्णा अनेक वर्ष संगठित काम करने के बाद नहीं बनी है| अण्णा के विरोधक यह ध्यान में नहीं लेंगे; कारण उनका उद्दिष्ट येन केन प्रकारेण, अण्णा को बदनाम करना ही है| इन विरोधकों में कॉंग्रेस और उनके नीतिनिर्धारक अग्रणी है| बाबा रामदेव के आंदोलन के समान ही, अण्णा का आंदोलन उन्हें कुचलना था| लेकिन वह संभव नहीं हुआ| कॉंग्रेस सरकार ने, उन्हें कानून तोडने के लिए पकड़ा और जेल में भी भेजा| लेकिन सरकार की ही फजिहत हुई; अण्णा को एक दिन के भीतर ही मुक्त करना पड़ा| फिर अण्णा का अनिश्‍चितकालीन अनशन आरंभ हुआ| उसकी व्यापकता से सरकारी की आँखों चौंधियॉं गई| सरकार ने अण्णा को पकड़ा तो सही, लेकिन इसके परिणाम में सरकार ही मुश्किल में फँस गई| अंत में उसमें समझौते का रास्ता निकला और वह अनशन समाप्त हुआ|

बदले की मानसिकता

लेकिन इसका अर्थ सरकार अपनी फजिहत भूली ऐसा करना गलत होगा| सरकार भूली नहीं| अण्णा और उनकी टीम यह ध्यान में रखे कि, सरकार बदला लेने की ताक में है; तत्पर है| उनके पाले हुए हरदम भौंकनेवाले लोग तो मौका खोजते रहेंगे| मौका नहीं मिला तो कृत्रिम रीति से तैयार करेंगे| लेकिन अण्णा ने उनके टीकास्त्रों से डगमगाने का कारण नहीं|
अण्णा की टीम के बारे में विचार करते समय हमने यह ध्यान में रखना चाहिए कि, ये लोग विविन्न क्षेत्रों में कार्यरत है| वे प्रामाणिक है| लेकिन, अनेक प्रश्‍नों के बारे में उनके मत भिन्न हो सकते है| अण्णा के आंदोलन का मुख्य लक्ष्य जनलोकपाल बिल संसद से पारित करा लेना है| उनका एक निश्‍चित उद्देश्य है| वह है, सरकारी काम में का भ्रष्टाचार रोकना और भ्रष्टाचारप्रवण व्यक्तियों के मन में दंड का धाक निर्माण करना| सरकार भ्रष्टाचार में लिप्त है, इस बारे में दो मत नहीं| विधायिकाओं के सदस्य भी भ्रष्टाचारलिप्त है| जिनकी खरीद-बिक्री हो सकती है, ऐसा बिकाऊ माल उनमें भी है| इसी बिकाऊ माल के कारण २००८ को विश्‍वासमत प्रस्ताव के संकट में मनमोहन सिंह की सरकार टिक सकी| इस सरकार में शर्म की संवेदना का अंश भी बचा होता तो, उसने, सांसदों को भ्रष्ट करने के बदले पदत्याग किया होता| न्यायपालिका भी इस बिमारी से मुक्त नहीं| कर्नाटक में के दो लोकायुक्तों के मामले ताजे है| सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश भी आरोपों के किचड़ से मुक्त नहीं| इन सब पर धाक रहे, कार्यपालिका, विधिपालिका और न्यायपालिका ये जनतांत्रिक राज्यप्रणाली के जो तीन स्तंभ है, वे यथासंभव निर्दोष रहने चाहिए, इसके लिए जनलोकपाल बिल की योजना की जा रही है, संसद यह बिल मंजूर करे, यह अण्णा के आंदोलन का प्रयास है| इस कारण, इस आंदोलन को राजनीतिक आयाम है ही|

उद्देश्य राजनीतिक

गत सात वर्षों से कॉंग्रेस के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील मोर्चा की सरकार राज कर रही है| उनके कार्यकाल में ही विधिपालिका और कार्यपालिका से भ्रष्टाचार के गंभीर अपराध हुए है| स्वाभाविक ही, अण्णा का आघात लक्ष्य कॉंग्रेस पार्टी और उसकी सरकार ही होगी| भाजपा, केन्द्र की सत्ता में होती और उसके कार्यकाल में भ्रष्टाचार के ऐसे गंभीर प्रकार होते तो, अण्णा के आंदोलन के निशाने पर भाजपा होती| आज कॉंग्रेस पार्टी उनके निशाने पर होना स्वाभाविक है| कारण, कॉंग्रेस के नेतृत्व में के गटबंधन का संसद में बहुमत है|
इस कारण, राजस्थान के मरुस्थल में जलसंवर्धन का काम करनेवाले राजेन्द्रसिंह या वनवासी क्षेत्र में अच्छा काम करनेवाले राजगोपाल ने राजनीति का कारण बताकर अण्णा टीम से बाहर निकलने में कोई मतलब नहीं| वैसे देखा जाय तो ‘भ्रष्टाचार का विरोध’ यह नकारात्मक कार्य है| स्वच्छ, पारदर्शक समाजजीवन की निर्मिती यह भावात्मक लक्ष्य है| टीम अण्णा का यही अंतिम लक्ष्य है, फिर भी सरकारी यंत्रणा में का भ्रष्टाचार निमूर्लन यह उनके आंदोलन का तात्कालिक लक्ष्य है; और यह लक्ष्य प्राप्त होने के मार्ग में सबसे बड़ी रुकावट कॉंग्रेस पार्टी की ही है| राजेन्द्रसिंह और राजगोपाल जैसे जानकारों के ध्यान में यह बात नहीं आती, यह आश्‍चर्यजनक है| अपने निवेदन में राजगोपाल ने एक सत्य कथन किया है कि, ‘‘(अण्णा की) यह टीम कभी भी एकदूसरे के साथ सुसंगतता नहीं रखती थी| इस समूह को ‘टीम’ कहना भी सही नहीं था| वे विविध क्षेत्रों में काम करनेवाले लोग है|’’ राजगोपाल का यह विश्‍लेषण बिल्कुल सही है| लेकिन उन्हें यह समझना चाहिए था कि, अण्णा के आंदोलन का उद्देश्य राजनीतिक है| इस कारण टीम अण्णा ने हिस्सार के चुनाव में कॉंग्रेस को मत नहीं दे, ऐसा बताने में कुछ भी अनुचित नहीं था| टीम अण्णा ने किसी पार्टी या व्यक्ति को मत देने के लिए नहीं कहा था| कॉंग्रेस को हराओ, यही बताया और हरियाणा की जनता ने वह माना| कॉंग्रेस के उम्मीदवार की अनामत भी जप्त हुई|

प्रेरक शक्ति

टीम अण्णा के एक मुख्य सदस्य प्रशांत भूषण भी विवाद में फँसे| उन्होंने काश्मीर के बारे में मत व्यक्त किया| वह टीम अण्णा का मत कैसे हो सकता है? काश्मीर की समस्या पर हल ढूढंने के लिए अण्णा का आंदोलन नहीं था| हॉं, प्रशांत भूषण के विरुद्ध लोगों का रोष हो सकता है| लेकिन उनके समान ही मत रखनेवाले अन्य भी तथाकथित विद्वान हमारे देश में है| उनपर ऐसा जनरोष क्यों नहीं बरसा? प्रशांत भूषण पर ही क्यों? कारण, टीम अण्णा के अग्रगामी सदस्यता के कारण, प्रशांत भूषण लोगों के सम्मान और आदर के भाजन बने थे| उनकी वह नैतिक ऊँचाई कम करने के लिए, अत्यंत निषेधार्ह मार्ग का अवलंब कुछ अविचारी लोगों ने किया| कोई भी समंजस देशहितैषी व्यक्ति इस मार्ग की घोर निंदा ही करेगा| लेकिन अनजाने ही सही प्रशांत भूषण ने अण्णा के विरोधकों के हाथों में शस्त्र दे दिया है| फिर टीम अण्णा के दूसरे महत्त्वपूर्ण सदस्य अरविंद केजरीवाल पर भी चप्पल फेंकी गई| जिसने चप्पल फेंकी उसे पकड़ा गया| लेकिन वह अपने कृत्य समर्थन नहीं कर सका| ‘‘केजरीवाल, आंदोलन को गलत दिशा में ले जा रहे है, उन्होंने संसद का शीतकालीन अधिवेशन होने तक रुकना चाहिए था’’, ऐसा उसने कहा, ऐसा प्रसिद्ध हुआ है| लेकिन या सब रटीरटाई पोपटपंची लगती है| मेरा संदेह है कि, प्रशांत भूषण या केजरीवाल पर हुए हमले के पीछे प्रेरक शक्ति कोई दुसरी ही होनी चाहिए|

किरण बेदी का मामला

प्रशांत भूषण और केजरीवाल के बाद अब किरण बेदी का नंबर लगा है| उन्होंने सामान्य श्रेणी में हवाई यात्रा की| शौर्यपदक विजेता होने के कारण उन्हें हवाई जहाज के सामान्य श्रेणी के टिकट के किराए में ७५ प्रतिशत छूट मिलती है| लेकिन जिन संस्थाओं ने उन्हें कार्यक्रम-भाषण के लिए निमंत्रित किया था, उनकी ओर से उन्होंने पूरा किराया लिया, ऐसा इस शिकायत का आशय है| श्रीमती बेदी ने भी यह मान्य किया है| उनका स्पष्टीकरण है कि, उन्होंने इस बचाई हुई राशि का उपयोग स्वयं के लिए नहीं किया; उनकी जो गैरसरकारी सेवा संस्था (एनजीओ) है, उसके लिए किया| लेकिन बचाव का यह युक्तिवाद खोखला है| अपनी सेवा संस्थाओं के लिए पैसे मिलाने के अनेक रास्ते उपलब्ध होते है| इसके लिए झूठ का सहारा लेने की आवश्यकता नहीं| दूसरा ऐेसा भी कह सकता है कि, मैंने घूस ली, लेकिन अपने लिए नहीं, मेरी पार्टी के लिए ली| लेकिन उसका यह स्पष्टीकरण समर्थनीय सिद्ध नहीं होता| एक राजनीतिक पार्टी के अध्यक्ष ने, एक ‘स्टिंग ऑपरेशन’में मोटी राशि स्वीकारी थी| उनका भी स्पष्टीकरण यही था कि, मैंने वह पैसे अपने लिए नहीं लिये थे; मेरी पार्टी के लिए लिये थे| लेकिन यह स्पष्टीकरण चल नहीं पाया| उन्हें अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ा| श्रीमती बेदी ने इस प्रकार बचाई राशि बहुत बड़ी नहीं होगी| दो-तीन लाख से कम ही होगी| वह राशि लौटाकर उन्होंने यह धब्बा मिटा देना योग्य होगा|

आरएसएस

अण्णा और उनकी टीम को बदनाम करने का अभियान बिल्कुल प्रारंभ से चल रहा है| जंतरमंतर मैदान पर हुए उनके अनशन मंडप में भारत माता का फोटो लगाया गया था| उसपर आक्षेप लिया गया कि, यह रा. स्व. संघ (आरएसएस) का प्रतीक है; इसलिए अण्णा का आंदोलन संघ प्रेरित है| इस आक्षेप के कारण अण्णा अकारण नरम पड़े| उन्होंने भारत माता का फोटो वहॉं से हटा दिया| कॉंग्रेस की ओर से भौंकनेवालों के ध्यान में आया कि, यह अण्णा की नाजुक रग है| फिर संघ को लेकर अण्णा पर हमले शुरू हुए| कॉंग्रेस पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह ने अंदाधुंद तोफ डागना शुरू किया| अण्णा आरएसएस के मुखौटा है, आरएसएस के राष्ट्रपतिपद के उम्मीदवार है इत्यादि| संघ को किसी भी आंदोलन के साथ जोड़ने से अल्पसंख्यकों का एक बड़ा गुट उससे दूर हो जाता है यह सब को पता है| इसलिए संघ को घसीटने का काम चलते रहता है| ‘भारत माता की जय’ या ‘वंदे मातरम्’ यह संपूर्ण राष्ट्र का भावविश्‍व के प्रकट करनेवाले नारे है| उन्हें केवल संघ के साथ जोडना, यह संघ का गौरव ही है| लेकिन उन भारतव्यापी नारों को किसी एक संगठन के साथ जोडना या उसपर आक्षेप लेना, यह राष्ट्रद्रोह है, यह इन लोगों के ध्यान में नहीं आता, यह खेद की और चिंता की बात है| किसी इमाम ने फिर फतवा निकाला कि, ‘भारत माता की जय’ और ‘वंदे मातरम्’ के नारे लगाना इस्लामविरोधी है, इसलिए मुसलमान अण्णा के आंदोलन में शामिल ना हो| यह फतवा मुस्लिम बंधुओं ने नहीं माना, यह बात अलग है| लेकिन क्या उस पर कॉंग्रेस या बडबोले दिग्विजय सिंह की कोई प्रतिक्रिया आई?  नाम ना ले| कारण यह मुसलमानों को अण्णा के आंदोलन से दूर करने के उनके उद्दिष्ट के अनुकूल था|

संघ की रीत

आगे और एक मजेदार बात हुई| ६ अक्टूबर को विजयादशमी के उत्सव में भाषण करते समय सरसंघचालक मोहन जी भागवत ने भ्रष्टाचार का भी मुद्दा चर्चा में लिया| उन्होंने इतना ही कहा कि, संघ के स्वयंसेवक भ्रष्टाचारविरोधी आंदोलन में निरपेक्ष बुद्धि से, किसी भी श्रेय की अपेक्षा ना करते हुए, स्वभावानुकूल शामिल हुए| मोहन जी के भाषण में की तीन विशेषताएँ बारीकी से ध्यान में लेनी चाहिए| ‘निरपेक्ष बुद्धि से’ यह पहली विशेषता| संघ को इस आंदोलन से अपने लिए क्या हासिल करना था? और व्यतिरेक पद्धति से विचार करे तो ऐसा भी सोचा जा सकता है कि, संघ के स्वयंसेवक इस आंदोलन में सक्रिय भाग नहीं लेते तो संघ का का क्या बिगडता? दूसरी विशेषता यह कि, ‘श्रेय की अपेक्षा ना करते हुए|’ संघ ने कभी आभार की भी अपेक्षा नहीं रखी| वह अपने काम के ढोल भी नहीं बजाता| इसलिए संघ विरोधक, यह गुप्त संगठन है, ऐसी गलतफहमी पालकर उसे फैलाते रहते है| कितने लोगों को पता है कि, संघ में ‘प्रचार विभाग’ सन् १९९४ को आरंभ हुआ| मतलब संघ की स्थापना के करीब ६९ वर्ष बाद! संघ को प्रसिद्धि की हाव तो छोड दे, लेकिन इच्छा भी नहीं होती; और तिसरी विशेषता है ‘स्वभावानुकूल’, कुछ दिनों पूर्व सिक्कीम में भूकंप हुआ| सहायता के लिए संघ के स्वयंसेवक दौडकर गए| क्या संघ ने इसके ढोल पिटें? उनकी हाफ पँट से लोगों को पता चला कि वे संघ के स्वयंसेवक है| संकट के समय सहायता के दौडकर जाना, यह स्वयंसेवकों की स्वाभाविक कार्यरीति है; और वहीं मोहन जी ने विजयादशमी के भाषण में अधोरेखित की|

अण्णा की प्रतिक्रिया

बस, फिर क्या था; दिग्विजय सिंह जैसे वाचाल अण्णा विरोधकों को लगा कि, अण्णा पर वार करने के लिए एक धारदार शस्त्र उनके हाथ लगा है| उन्होंने किए आघातों का मुझे आश्‍चर्य नहीं हुआ| लेकिन अण्णा की प्रतिक्रिया का अप्रत्याक्षित थी| उन्हें इसमें साजिश की बू आई| संघ यह साजिश क्यों करेगा? अण्णा या बाबा रामदेव का अनशन पर्व शुरू होने के कम से कम एक माह पूर्व हुई संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा ने एक प्रस्ताव पारित कर भ्रष्टाचारविरोधी आंदोलन में शामिल होने के लिए स्वयंसेवकों से आवाहन किया था| उन्हें हाथ में फलक लेकर या गणवेश पहनकर जाने के लिए नहीं कहा था| दिल्ली के दो-तीन कार्यकर्ताओं ने मुझे बताया कि, रामलीला मैदान पर रोज पच्चीस-तीस हजार लोगों की जो भीड होती थी, उसे सम्हालने और अन्य गैरप्रकार रोकने में, संघ के स्वयंसेवकों ने सहायता की|
लेकिन अण्णा विरोधकों के ध्यान में आया कि, संघ यह अण्णा की नाजुक रग है; उसे दबाते ही अण्णा चिडते है| इसी घुस्से में उन्होंने, दिग्विजय सिंह को पागलखाने में भरती करो, ऐसा कहा होगा| संघ का यथार्थ आकलन ना होना यह भी एक कारण हो सकता है| इसलिए ‘साजिश’ जैसा हास्यास्पद आरोप वे कर सके| अण्णा सहज ही ऐसा भी कह सकते थे कि, १२० करोड भारतीयों के लिए मेरा आंदोलन है; इन १२० करोड में संघ के स्वयंसेवक भी शामिल है; वे आंदोलन में शामिल हो सकते है; ऐसा वक्तव्य उनकी व्यापक प्रगल्भता को शोभा देता| लेकिन ऐसा नहीं होना था| अंत में एक बताऊँ - जंतरमंतर पर के उपोषण के संदर्भ में नागपुर में जो आमसभा हुई थी, उसमें मेरा भाषण हुआ; और उस समय मेरे सिर पर संघ की काली टोपी थी| कारण मैं यह काली टोपी पहनकर ही घूमता हूँ और रामलीला मैदान पर हुए आंदोलन के समय, नागपुर में जिन्होंने सब कार्यक्रमों का आयोजन किया, उनमें के प्रमुख कार्यकर्ता संघ के स्वयंसेवक ही है| अण्णा हजारे यह समझ लेंगे तो दिग्विजय सिंह जैसों के बेताल वक्तव्यों की उपेक्षा कर उसे कचरे की टोकरी दिखाएँगे| अण्णा, आप विश्‍वास रखें| सारा भारत आपके समर्थन में खड़ा है और भारत में हमारे जैसे संघ के स्वयंसेवकों का अंतर्भाव भी है ही!

- मा. गो. वैद्य, नागपुर
e-mail: babujivaidya@gmail.com
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)

इतस्तत:

कराची की दुर्दशा

कारची पाकिस्तान में का सबसे बड़ा शहर है| जनसंख्या है करीब दो करोड| बहुत थोडे लोग जानते होगे कि, १९३५ तक सिंध प्रांत, उस समय के मुंबई क्षेत्र का हिस्सा था| फिर वह अलग प्रांत बना और १५ अगस्त १९४७ से पाकिस्तान में समाविष्ट हुआ| कराची, सिंध प्रांत में है; उसकी राजधानी है|
विभाजन के उस कालखंड में, लाखों हिंदुओं को निर्वासित होकर भारत में आसरा लेना पड़ा| इसी प्रकार, पंजाब में के कुछ मुसलमान भी पाकिस्तान में गए| उनमें से अधिकांश सिंध और मुख्यत: कराची में बसे| उन्हें ‘मुहाजिर’ कहते है| ‘मुहाजिर’ का अर्थ विस्थापित ही है| वहॉं उनकी संख्या बहुत अधिक है| उनकी एक राजनीतिक पार्टी भी है| उसका नाम है ‘कौमी मुहाजिर मुव्हमेंट’| ये पंजाबी मुहाजिर वहॉं पहुँचने के बाद, मूल के सिंधी और इन मुहाजिरो के बीच संघर्ष हुए| अर्थात्, मुसलमानों में संघर्ष! मतलब रक्तरंजित संघर्ष, यह अलग से कहने की आवश्यकता नहीं| विभाजन की घटना को आज ६४ वर्ष बीत चुके है, लेकिन इन मुहाजिरों की मुहाजिरत खत्म नहीं हुई| भारत में आए सिंधी और पंजाबी निर्वासित यहॉं समग्र समाजजीवन में पूरी तरह से घुल-मिल गए, लेकिन इन मुहाजिरों का वैसा नहीं हुआ| इस्लामी मनोवृत्ति और हिंदू मनोवृत्ति में का यह अंतर है|
अब, अफगानिस्तान में के पठान भी निर्वासित बनकर कराची पहुँचे है| इस कारण सिंधी वीरुद्ध मुहाजिर के समान, सिंधी विरुद्ध पठान और मुहाजिर विरुद्ध पठान ऐसे संघर्ष शुरू हुए है| कारची में प्राय: रोज ही दंगा होता है| २० जुलाई २०११ के ‘नवा ए वक्त’ दैनिक में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुआ है| उस लेख के शीर्षक का अर्थ है ‘कराची दुनिया का सबसे बड़ा अनाथालय’| उसी दिन के ‘डॉन’ इस अंग्रेजी समाचारपत्र के समाचार का शीर्षक था ‘कारची भड़का है| २४ घंटे में ३४ मरे|’  ‘डॉन’ के समाचार के अनुसार ‘जनवरी से ३१ जुलाई इन सात माह की कालावधि में कराची में ८०० लोगों को मौत के घाट उतारा गया है|’ १५ जुलाई के ‘नवा ए वक्त’ दैनिक के संपादकीय पृष्ठ पर मोहम्मद अहमद तराजी का लेख प्रकाशित हुआ है| लेख का शीर्षक है ‘कफन की दुकान पर भीड|’
कराची में रास्ते पर चलते समय, कौन, कहॉं से आनेवाली गोली की बलि चढ़ेगा, कहा नहीं जा सकता| यह रोज की ही बात हो गई है| पुलीस के मन में रहा तो वह आती है, अन्यथा स्वस्थ बैठे रहती है| कोई मजदूर घर से निकलर काम पर जाएगा तो वह सकुशल घर लौटेगा इसकी गारंटी नहीं| ५ से ८ जुलाई इन चार दिनों में, कराची में भाषिक दंगे हुए| इसमें ८५ लोगों ने प्राण गवाएँ| किसने मारा, क्यों मारा, इसके बारे में अब लोग पूछँते भी नहीं है| कराची में मृत्यु यह अब समाचार का विषय ही नहीं रहा| बाजार खुले रहते है लेकिन, ग्राहकों का स्वागत बंदूक की गोली से नहीं होगा, इसकी गारंटी नहीं| गोली कहॉं से आई, किसने चलाई, सब अज्ञात रहता है| ‘जसारत’ यह ‘जमाते इस्लामी’ इस कट्टरवादी संगठन का मुखपत्र है| उसके संपादकीय का शीर्षक है ‘कराची : बारूद के ढेर पर|’ २३ जुलाई के अंक में यह समाचारपत्र लिखता है, ‘‘राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का इंजन माना जानेवाला यह शहर दहशत के पिंजरे में फंस गया है| अभी जुलाई महिना समाप्त नहीं हुआ है, फिर भी ३४० लोग मारे जा चुके है|’’ ४ अगस्त के अंक में यही समाचारपत्र लिखता है, ‘‘अभी अगस्त का पहला सप्ताह भी समाप्त नहीं हुआ, और ३८ लाशें उठाई जा चुकी है| सरकार हताश है| फौज दूसरी ही तरफ लगी है और कराची में लगातार आग धधक रही है|’’

(२१ अगस्त २०११ के ‘पाञ्चजन्य’ में प्रकाशित श्री मुजफ्फर हुसैन के लेख पर आधारित)


डोंबिवली, महाराष्ट्र में कल्याण के समीप का शहर| शायद कल्याण-डोंबिवली मिलकर एक महानगर बनता होगा| और नागालँड? भारत के पूर्व छोर पर| लेकिन डोंबिवली ने नागालँड के साथ संबंध जोड़े है| वहॉं नागालँड में के विद्यार्थींयों के लिए एक छात्रावास है| गत १० वर्षों से वह चल रहा है| कौन चलाता होगा यह छात्रावास? और किनपर विश्‍वास कर नागालँड में के पालक अपने बच्चों को इतने दूर भेजते होंगे? इन प्रश्‍नों का एक ही उत्तर मिलेगा, वे संघ के स्वयंसेवक होंगे और वह सही है|
इस वर्ष की शालांत परीक्षा में इस छात्रावास के १७ विद्यार्थी उत्तीर्ण हुए| उन सब का अगस्त माह में सत्कार किया गया| लोकप्रिय संगीतकार सलिल कुलकर्णी के हाथों यह सत्कार संपन्न हुआ| सर्वाधिक गुण इनातो इस विद्यार्थी ने प्राप्त किए| उसे ८५ प्रतिशत गुण मिले| विद्यार्थींयों की ओर से आभार व्यक्त करते हुए उसने कहा, ‘‘छात्रावास समिति के सदस्य और अन्य नागरिकों ने हम पर बहुत प्रेम किया| हमसे पढ़ाई करा ली| इसलिए हम दसवी तक पहुँच सके| मैं यहॉं नहीं आता, तो मेरा क्या होता यह कह नहीं सकता| यहॉं आया इसलिए मेरी प्रगति हो सकी| हमसे निश्‍चित ही कुछ गलतियॉं हुई होगी, उसके लिए मैं क्षमा मॉंगता हूँ|’’
यह छात्रावास ‘अभ्युदय प्रतिष्ठान’ संस्था चलाती है| प्रतिष्ठान के कार्यवाह उदय कुलकर्णी ने कहा, ‘‘इन बच्चों को उनकी भावनाएँ व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं सूझ रहे थे| लेकिन उनके चेहरे ही उनकी भावनाएँ व्यक्त कर रहे थे| इन बच्चों से परिचय होने के बाद उनमें के सुप्त गुण हमारे ध्यान में आते है| ये बच्चें शिक्षा पूरी करने के बाद नागालँड वापस जाएगे| नागालँड में, हमारे जो कार्यकर्ता है, उन्हें मिलने के लिए, यहॉं से गये हुए बच्चें एक-दो दिन पैदल चलकर आते है| इससे यह भावनिक रिश्ता कितना गहरा है, इसका पता चलता है|’’

  (ईशान्य वार्ता, अगस्त २०११ के अंक में प्रकाशित जानकारी के आधार पर)
 

डॉ. मोहम्मद हनीफ शास्त्री

हॉं! डॉ. हनीफ मोहम्मद ‘शास्त्री’ है| संस्कृत के विद्वान है| संस्कृत के विख्यात अध्यापक है| हमारे उपराष्ट्रपति श्री हमीद अन्सारी के हस्ते ‘राष्ट्रीय सद्भावना’ पुरस्कार प्रदान कर, इस वर्ष जिन लोगों का सत्कार किया गया, उनमें डॉ. मोहम्मद हनीफ शास्त्री का भी समावेश था| डॉ. शास्त्री ने भागवद्गीता और कुरान का तुलनात्मक अभ्यास किया है| हिंदू-मुसलमानों में की समानता दिर्शानेवाले उनके लेखों के कारण ही उन्हें यह सद्भावना पुरस्कार मिला है| उनका मत है कि, दुनिया में के सारे मुसलमान नमाज पढ़ते हैं| लेकिन नमाज कैसे ‘कबूल’ होगी, इसका उत्तर गीता में है| ‘रोजे’ क्यों रखना, इसका भी उत्तर गीता में है और आश्‍चर्य यह कि श्री इंद्रेशकुमार मेरे प्रेरणास्रोत है, ऐसा उन्होंने बताया| इंद्रेशकुमार मतलब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक और कार्यकारी मंडल के एक सदस्य|
डॉ. शास्त्री के साथ मेरी भेट, शायद २००३ में, दिल्ली के तिहार जेल में के एक कार्यक्रम के दौरान हुई थी| दिल्ली में रामकृष्ण गोस्वामी नाम के एक समाजसेवी व्यक्ति है| उन्होंने ‘अपराध निवारण-चरित्र निर्माण’ इस नाम से एक संस्था बनाई है| यह संस्था मतलब अकेले गोस्वामी जेल में के कैदियों को श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ाते है| उनकी इस शिक्षा के अच्छे परिणाम देखकर, अनेक सरकारी जेल में उन्हें निमंत्रित किया जाता है| उनके साथ मैं तिहार जेल में दो बार, अहमदाबाद के साबरमती जेल में एक बार, और हाल ही में कुछ माह पूर्व नागपुर के मध्यवर्ती जेल में गया था|
- मैं बता रहा था, तिहार जेल के एक कार्यक्रम में डॉ. शास्त्री से मेरी भेट हुई| दो-ढाई हजार कैदियों के सामने गीता की शिक्षा पर हमारे भाषण हुए| जेल के अधिकारी भी उपस्थित थे| डॉ. शास्त्री ने बहुत अच्छी तरह गीता का महत्त्व विशद किया| गत सितंबर माह के ‘हिमालय परिवार’ इस नियकालिक के अंक में ‘सच्ची सांप्रदायिक भावना’ इस शीर्षक से इमरान चौधरी का एक छोटा लेख प्रकाशित हुआ है| निम्न जानकारी उस लेख के आधार पर है|
ऐसा लगता है कि, इमरान चौधरी ने डॉ. मोहम्मद हनीफ शास्त्री की मुलाकात ली है| उसमे चौधरी ने डॉ. शास्त्री को सीधे संघ के बारे में प्रश्‍न पूँछे| उन्हें उत्तर देते हुए डॉ. शास्त्री ने कहा, ‘‘संघ और मुसलमानों के बीच गलतफहमियॉं है| उन्हे दूर किया जा सकता है| लेकिन इन मुद्दों को राजनीति से ना जोड़े| संघ एक राष्ट्रवादी संगठन है| मैं एक मुसलमान हूँ और मेरा अनुभव मुझे बताता है कि, संघ के लोग बुरे नहीं है| व्यक्तियों से दूर रहकर हम कुछ भी बोलते हैं और गलफमियॉं बना लेते है| लेकिन किसी व्यक्ति के पास जाने पर ही समझ पाते है कि वह व्यक्ति कैसी है| कुछ जाने बिना किसी के बारे में कुछ बोलना अल्लाह और उसके रसूल को नाराज करने के समान है|


रेंगेपार (कोहळी) की मातोश्री गौशाला

रेंगेपार एक छोटा देहात है| जनसंख्या दो हजार भी नहीं| वहॉं एक अच्छी गौशाला है| मतलब बाहर से देखने में नहीं| उसका अंतरंग अतिसुंदर है| प्रशंसनीय है|
रेंगेपार, भंडारा जिले के लाखनी तहसील में है| लाखनी से करीब ८ किलोमीटर दूर| इस तहसील में ‘रेंगेपार’ नाम के कुछ और भी गॉंव होने के कारण इसका नाम रेंगेपार (कोहळी) है| कारण यहॉं कोहळी समाज बहुसंख्य है|
‘मातोश्री गौशाला’ यह गौशाला का नाम है| कसाईयों से बचाई गई गायें ही यहॉं है| उनकी संख्या करीब ४०० है| अधिकांश गाय और बैल अत्यंत कृश, जख्मी और रोगी है| उन सब की देखभाल यह गौशाला करती है| यहॉं अब एक बड़ा हॉंल भी बनाया गया है|
यह गौशाला, यादवराव कापगते के परिश्रम से बनी है| यादवराव कँसर के रुग्ण थे| डॉक्टरों ने उनके जीवन की आशा छोड़ दी थी| अधिक से अधिक एक-देढ माह जिवीत रहोगे, ऐसा उन्हे बताया गया था| २००१ की यह घटना है| उसी समय देवलापार के गौ-विज्ञान केन्द्र के लोग उन्हें मिले| उन्होंने, गौमूत्र चिकित्सा बताई| रोज-सुबह सायंकाल, यादवराव ताजा गौमूत्र पीने लगे| दस माह तक की गई एक प्रकार की इस तपस्या के बाद, वे रोगमुक्त हुए| ६२ वर्ष के यादवराव अब अच्छे धट्टे-कट्टे है|
१२ अक्टूबर को, हमने वह गौशाला देखी| वहॉं, और एक व्यक्ति ने हमें चकित किया| हम सुबह १०.३० के करीब वहॉं पहुँचे| एक गाय को जमीन पर गिरा कर दो लोगों ने उसे जकड रखा था और तिसरा एक व्यक्ति, उस गाय का घाव धोकर उसे दवा लगा रहा था| हमें लगा वे पशु-वैद्य होगे| लेकिन वे पशु-वैद्य नहीं है| वे नागपुर के व्यापारी है| लकड़गंज में रहते है| उन्होंने पशु-रोग चिकित्सा का प्राथमिक ज्ञान लिया है, इसी ज्ञान के आधार पर वे बीमार गायों की सेवा करते है| यह विशेष आश्‍चर्य की बात नहीं| आश्‍चर्य की बात यह है कि, वे रोज सुबह नागपुर से रेंगेपार आते है| नागपुर-रेंगेपार अंतर करीब ९० किलोमीटर है| वे रोज यह ९० किलोमीटर आना-जाना करते है| और धनप्राप्ती शून्य! केवल गौ-सेवा के लिए इतनी भाग-दौड़| सही में यह एक तपस्या ही है| इस व्यक्ति का नाम है शंभुभाई पटेल| वे इस संस्था के सहसचिव है| सहसचिव इतने कष्ट ले? रोज १८० किलोमीटर यात्रा, अपने वाहन से करें? गौ-भक्ति का यह असाधारण दर्शन यहॉं हुआ| यहॉं के बछड़ों को भी शंभुभाई के प्रति अनोखा लगाव है| शंभुभाई ने आवाज लगाते ही पॉंच-छ: बछड़े उनके ईद-गिर्द जमा हो गए| शंभुभाई ने नागपुर से लाए ब्रेड का एक-एक टुकड़ा उन्हें खिलाया| शायद यह उनका रोज का ही क्रम होगा और बछड़े यह जानते है|
सेवानिवृत्त कृषि उपसंचालक श्री दादासाहब राजहंस के मार्गदर्शन में यहॉं आम का एक बड़ा बगीचा भी विकसित हुआ है| वहॉं आम के ४०० सुंदर पेड़ है| साथ ही बास के कुंज भी है, सागवान भी है| वह आम का बगीचा देखकर हम बहुत खूश हुए|
लेकिन रेंगेपार का चमत्कार यहीं समाप्त नहीं होता| यहॉं हर घर में शौचालय है और आश्‍चर्य तो यह है कि हर घर में गोबर गॅस भी है| गौशाला और आम के बगीचे के साथ फुलों का भी बगीचा है, रोपवाटिका है, जैविक खाद का उपयोग किया जाता है| एक सुंदर तालाब है और सैर (ट्रीप) के लिए सबको आमंत्रण भी है| एक व्यक्ति चाहे तो क्या परिवर्तन कर सकता है इसका प्रमाण हमने रेंगेपार में देखा| यादवराव कहते है, वैसे तो मैं दस वर्ष पूर्व ही मर गया होता| गौमाता ने मुझे जीवनदान दिया| यह मेरा बोनस जीवन गायों की सेवा को समर्पित है|

बाल मुख्याध्यापक      

पश्‍चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में भापता उत्तरपारा यह एक गॉंव है| उस गॉंव में गत पॉंच वर्षों से एक शाला चल रही है| इस शाला का, संचालक या मुख्याध्यापक कहे, एक १७ वर्ष का युवक है| यह उसकी आज की आयु है| शाला आरंभ की, उस समय वह केवल १२ वर्ष का था| उसका नाम है बाबर अली|
उसकी शाला में ९७७ विद्यार्थी है| वर्ष २००५ में, उसके पिता मोहम्मद नसीरुद्दीन ने उसे ६०० रुपये पूंजी दी| मोहम्मद नसीरुद्दीन अनाज और खाद का छोटा व्यापार करते है| उन्होने दी पूंजी से बाबर अली ने शाला शुरू की| ‘आनंद शिक्षा निकेतन’ यह उस शाला का नाम है| शाला को ग्राम पंचायत, स्थानिक शासकीय अधिकारी, रामकृष्ण मिशन के प्रमुख, जिलाधिकारी और कोलकाता विकास प्राधिकरण से सहायता मिलती है|
२०१० में बाबर अली ने १२ वी की परीक्षा उत्तीर्ण की और अब पदवी परीक्षा के लिए महाविद्यालय में प्रवेश लिया है| स्वयंसेवा की वृत्ती से काम करनेवाले और भी दस शिक्षक उसकी सहायता करते है| उसकी शाला में मुमताज बेगम नाम की विवाहित महिला, रोज पॉंच किलोमीटर दूर से आकर पढ़ाती है| वह ८ वी में है, और उसकी लड़की पहली कक्षा में है| यह महिला रोज पैदल शाला में आती है|
बाबर अली के इस काम की दखल बीबीसी ने भी ली है| अक्टूबर २००९ को इस बारे में प्रसारित समाचार में बीबीसी ने बताया कि, यह दुनिया में का सबसे युवा मुख्याध्यापक है| खाकी की आधी चड्डी और टी शर्ट यह उस अध्यापक का पोशाक है| 

 (‘विकल्प वेध’के १ से १५ सितंबर के अंक से)

       
हमारी रेल

हमारी रेल को कौन नहीं जानता? उसके बारे मे कुछ मनोरंजक जानकारी -
१) हमारे देश में के रेल मार्गो की लंबाई ६३९४० किलोमीटर है|
२) रोज १४२४४ गाड़ियॉं दौड़ती हैं|
३) ७०९२ स्टेशन है|
४) ‘गिनिज बुक ऑफ रेकॉर्ड’ में, रेल स्टेशन द्वारा दी जाने वाली विविध सेवाओं के लिए, पुरानी दिल्ली स्टेशन का नाम है|
५) अंग्रेज गव्हर्नर जनरल लॉर्ड डलहौसी के कार्यकाल १६ अप्रेल १८५३ में मुंबई (बोरीबंदर) से ठाणे, यह पहली रेल चली थी|
६) जम्मू से कन्याकुमारी सीधे जानेवाली गाड़ी का नाम ‘हिमसागर एक्सप्रेस’ है| वह ३७५१ किलोमीटर दूरी ६६ घंटे मेें पूरी करती है| वह १२ राज्यों में से जाती है और हमारे देश में सर्वाधिक अंतर पार करनेवाली गाड़ी है|
७) कंम्प्युटर से रेल आरक्षण करने की सुविधा १९६६ में सर्वप्रथम दिल्ली से आरंभ हुई|
८) खडकपुर का प्लॅटफॉर्म सबसे लंबा - २७३३ फुट है|
९) शोण नदि पर बना पुल सबसे लंबा - १० हजार ४४ फुट है|
१०) कोकण रेल्वे के अंतर्गत बने पुल के एक खंबे की ऊँचाई, कुतुबमिनार से भी अधिक है|   
११) ट्राम सेवा सर्वप्रथम मुंबई और चेन्नई में शुरू हुई| वर्ष था १८७४| 

- मा. गो. वैद्य, नागपुर
E-mail : babujaivaiday@gmail.com
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)   


डोंबिवली में नागालँड

पाकिस्तान की दुर्दशा पर एकमात्र उपाय

प्रथम यह मान्य होना चाहिए कि, पाकिस्तान की दुर्दशा हुई है| यह तुम्हें या - हमें मान्य होने से नहीं चलेगा| यह पाकिस्तान को मान्य होना चाहिए;
अमेरिका का सहारा
यह सर्वमान्य है कि, पाकिस्तान अपने बुते पर टिक नहीं सकता| वह कब का ही समाप्त हुआ होता; लेकिन अमेरिका की फौजी और आर्थिक सहायता ने उसे बचा लिया, उस समय अमेरिका को पाकिस्तान की आवश्यकता थी| अफगानिस्थान पर रूस ने आक्रमण किया था| अपनी एक कठपुतली उसने राज्य पर बिठाई थी| आफगानिस्थान में से रूस की सत्ता समाप्त करने के लिए अमेरिका ने पाकिस्तान को बड़ी मात्रा में फौजी और आर्थिक सहायता दी| रूस का वर्चस्व समाप्त होने के बाद, कुछ वर्ष अफगानिस्थान में गृहयुद्ध चला| उसमें तालिबान सफल हुआ और १९९४ में वहॉं तालिबान की सत्ता स्थापन हुई| इस तालिबान को पाकिस्तान की संपूर्ण सहायता प्राप्त थी| २००१ को न्यूयार्क शहर पर अल-कायदा ने आतंकी हमला कर तीन हजार से अधिक नागरिकों की हत्या करने के बाद, अमेरिका अफगानिस्थान में उतरी और उसने तालिबान को परास्त कर हमीद करजाई की सरकार स्थापन की| तथापि, पाकिस्तान के तालिबान के साथ तार जुड़े ही थे|
अमेरिका का भ्रमनिरास
अमेरिका की दृष्टि से तालिबान यह आतंकवादी संगठन है| अफगानिस्थान में अभी भी नाटो की फौज है| जब तक वह फौज वहॉं है, तब तक तालिबान की दाल नहीं गलनेवाली| ११ सितंबर २००१ के आतंकी हमले के बाद, आतंकवाद के उग्र संकट का अमेरिका को अहसास हुआ; और उसकी नीति सर्वत्र का आतंकवाद मिटाने की दिशा में मुड़ी| अमेरिका की कल्पना थी कि, इस आतंकवाद विरोधी संघर्ष में पाकिस्तान सच्चे मन से उसकी सहायता करेगा| लेकिन वह कल्पना झूठ साबित हुई| पाकिस्तान की खुफिया एजंसी -आयएसआय - के अफगानिस्तान में आतंकवाद फैलानेवाले तालिबान के ही, सिराज हक्कानी गुट के साथ अंदरूनी संबंध है, अमेरिका को अब इसका पता लग चुका है| अमेरिका के मुख्य सेनापति मुलेन ने ऐसा स्पष्ट आरोप ही किया है| अमेरिका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिटंन ने भी यही कहा है और अब तो अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा ने भी इसकी पुष्टी की है| अमेरिका की संसद में भाषण करते समय ओबामा ने कहा है कि, ‘‘आतंकवाद के विरुद्ध पाकिस्तान के योजित उपाय परिणाम देने में असफल रहे है| विद्रोही, और अधिक शक्तिशाली बने है, नाटो की फौज के लिए खतरा और भी अधिक बढ़ गया है|’’
अफगानिस्थान का नया मोड
अमेरिका के राजनीतिज्ञ और फौज के अधिकारियों के वक्तव्यों के कारण पाकिस्तान की मुश्किल हुई है| अमेरिका पाकिस्तान की उपेक्षा करेगा तो अपना एक मित्र खो बैठेगा, ऐसी सीधी धमकी ही पाकिस्तान के विदेश मंत्री ने दी है| लेकिन, इस धमकी का अमेरिका पर कोई परिणाम नहीं होगा| परंतु, इसके साथ ही पाकिस्थान के तालिबान के साथ के संबंध भी समाप्त नहीं होगे| पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने हाल ही में कहा है कि, उनकी सरकार तालिबान के साथ वार्ता करने के लिए तैयार है| तालिबान के किस गुट के साथ गिलानी साहब वार्ता करनेवाले है, यह उन्होंने स्पष्ट नहीं किया| संभवत: वे सिराज हक्कानी के ही गुट के साथ चर्चा करेंगे| इसी हक्कानी गुट ने अफगानिस्थान के भूतपूर्व राष्ट्रपति बुराहनुद्दीन रब्बानी की हाल ही में हत्या की है| इस हत्या के कारण, अफगानिस्थान की राजनीति ने नया मोड लिया है| पाकिस्तान के बारे में अफगाणिस्तान का सरकार का भ्रमनिरास हुआ है| उसने तालिबान के साथ समझौते की वार्ता रोक दी है| पाकिस्तान का दबाव उन्होंने नहीं माना|       

भारत-अफगान मैत्री
अमेरिका के हवाई हमलों से उद्ध्वस्त हुए अफगानिस्थान के पुनर्निर्माण में भारत उसकी सहायता कर ही रहा था| सड़क निर्माण और आरोग्य इन दो क्षेत्रों में भारत अफगानिस्थान को बड़ी मात्रा में सहायता कर ही रहा था| नए अनुबंध के कारण, भारत अफगानिस्तान की फौज और सुरक्षा दलों को भी प्रशिक्षण देगा| अफगानिस्तान के अध्यक्ष ने पाकिस्तान हमारा जुड़वा भाई और भारत सच्चा मित्र है, ऐसा कहा है लेकिन, अफगानिस्तान के इस जुड़वे भाई को भारत-अफगान मित्रता हजम नहीं होगी| हमारे पुराण में सुंद और उपसुंद इन राक्षसों की कथा है| दोनों सग्गे भाई थे| लेकिन तिलोत्तमा नाम की अप्सरा सामने आते ही, उसको प्राप्त करने के लिए ये दोनों भाई एकदूसरे पर टूट पड़ें और परस्परों को मार डाला| पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बंधुत्व कीपरिणति इससे अलग नहीं होगी| पाकिस्तान को अफगानिस्तान उसका मांडलिक (अधीन राष्ट्र) बने और सदैव वैसा ही रहे, ऐसा ही लगेगा किंतु अफगानिस्तान के आज के सत्ताधारी यह मान्य नहीं करेंगे| अफगानिस्तान का हित स्वयं को भारत के साथ जोड़ लेने में ही है| आर्य चाणक्य के भू-राजनैतिक सिद्धांत के अनुसार भारत और अफगानिस्तान सहजमित्र है| अमेरिका को भी यह मित्रता मान्य होगी| अमेरिका और नाटो राष्ट्रों ने २०१४ मेंे अपनी फौज वापस ले जाना तय किया है| तब तक, अफगानिस्तान में पाकिस्तान उधम नहीं मचा सकता| उसे चीन ने उसकाया तो भी वह ऐसा नहीं कर सकता| दूसरी बात यह भी है कि, चीन का इस भाग में वर्चस्व स्थापन होने देना अमेरिका को पुराएगा नहीं| नाटो फौज हटने के बाद, अफगानिस्थान की मदद भारत ही कर सकता है| भारत, इस दौरान के तीन वर्षों में अफगान की फौज को और सक्षम बनाएगा, इसके अलावा पाकिस्तान ने दु:साहस किया तो भारत ही पाकिस्तान को रोक सकेगा| इस प्रदेश की भावी राजनीति की दृष्टि से भारत-अफगान मित्रता ऐसी महत्त्वपूर्ण है| इस कारण हाल ही में अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हमीद करजाई ने भारत की जो दो दिनों की यात्रा की और भारत सरकार के साथ मित्रता का नया अनुबंध किया वह बहुत महत्त्वपूर्ण है|

इस्लाम और सर्व समावेशकता
आज पाकिस्तान घोर राजनीतिक संकट में फंसा है| उसने अमेरिका का विश्‍वास खो दिया है| चीन, पाकिस्तान को हडपने का मौका ही ताक रहा है| ऍग्लो अमेरिकनों को यह पसंद होगा, इसकी संभावना नहीं| लेकिन, अन्य राष्ट्र कुछ भी सोचे, पाकिस्तान ने मतलब पाकिस्तान की जनता ने ही इस बारे में गंभीरता से विचार करना चाहिए; और उसके लिए मूलगामी चिंतन भी करना चाहिए|
एक मूलभूत बात यह है कि, पाकिस्तान की निर्मिती इस्लाम खतरे मेंइस घोषणा से हुई| यह खतराकिससे, अर्थात् भारत से; और स्पष्ट ही कहे तो हिंदुस्थान से! आधारभूत तत्त्व था हिंदूद्वेष का और दिखावटी तत्त्व था इस्लामी बंधुभाव का| इसी दिखावटी तत्त्व के कारण, देड-दो हजार किलोमीटर की दूरी होते हुए भी, पश्‍चिम पाकिस्तान और पूर्व पाकिस्तान मिलकर एक पाकिस्तान बना| लेकिन, इस्लाम की शिक्षा में गुण है पर, सर्वसमावेशकता (inclusiveness) और (comradeship) सौहार्द नहीं है| वह होता तो, पूर्व पाकिस्तान (विद्यमान बांगला देश) पश्‍चिम पाकिस्तान से केवल पचीस वर्ष के भीतर अलग नहीं होता| इस विभाजन ने यह सिद्ध किया कि, भाषा का अभिमान इस्लामता पर मात कर सकता है| सर्वसमावेशकता नहीं होने के कारण ही, पाकिस्तान में, गत करीब ४५ वर्षों से अहमदिया मुसलमानों को मुस्लिमेत्तर ठहराया गया है| यहॉं यह ध्यान में ले कि, पाकिस्तान की निर्मिति होने के बाद उसके पहले विदेश मंत्री झाफरउल्ला खान अहमदिया थे| आज शिया विरुद्ध सुन्नी, पंजाबी विरुद्ध सिंधी, पंजाबी विरुद्ध बलुची ऐसे संघर्ष पाकिस्तान में हरदम चलते रहते है|

अभी की घटना
यह ताजी घटना ४ अक्टूबर की है| बलुचीस्थान की राजधानी क्वेटा शहर की| वहॉं एक बस रोककर, १३ शिया यात्रियों को बस में से उतारा और फिर उन्हें एक कतार में खड़ा कर गोलियों से भून डाला| इन शियापंथी मुसलमानों का अपराध क्या था? यही कि, वे बहुसंख्य सुन्नी पंथ के नहीं थे| क्वेटा में की यह क्रूर घटना अपवादात्मक नहीं| कराची में यह नित्य ही चलता है| शिया भी मुसलमान ही है| लेकिन वे अल्पसंख्यक है| वे सम्मान से जी सकें, ऐसा वातावरण पाकिस्तान में नहीं है| क्या ऐसा पाकिस्तान एक रहेगा? चीन का आजकल पाकिस्तान के लिए बहुत प्रेम उमड़ रहा है| क्या चीन मुसलमानों में सामंजस्य निर्माण करेगा? पाकिस्तान की जनता ने, मैं आग्रह से कहता हूँ जनता - सरकार नहीं - चीन के सिकियांग प्रांत में के मुसलमानों की स्थिति जान ले| उसी प्रकार, तिब्बत में गत साठ वर्षों में चीन ने क्या किया है, और क्या कर रहा है, यह भी समझ ले और बाद में ही चीन की ओर मुड़े|
फौज का प्राबल्य
पाकिस्तान का टुटना अटल है| वह कभी भी एक राष्ट्र नहीं था| एक राज्य’ - एक सभ्य राज्य के रूप में - वह टिक नहीं सकता| हॉं, फौज फिर अपनी सत्ता स्थापित करेगी| जरदारी-गिलानी के स्थान पर कयानी आएगे| पाकिस्तान का गत साठ वर्षों का इतिहास यही बताता है| इस्कंदर मिर्झा, अयूबखान, झिया-उल-हक, याह्याखान, मुशर्रफ ही जनता को फौज की धाक में रख सके| लियाकत अली खान का पाकिस्तान की निर्मिति में बहुत बड़ा योगदान था| लेकिन वे प्रधानमंत्री के रूप में टिक नहीं सके| लोगों ने उनके विरुद्ध अविश्‍वास व्यक्त कर, चुनाव में पराभूत कर, उन्हें पदच्युत नहीं किया| उनकी हत्या की गई| झुल्फिकार अली भुत्तो कट्टर मुसलमान थे| वे कट्टर भारतद्वेष्टा भी थे| लेकिन सेनाधिकारी नहीं थे| सेनाधिकारी झिया-उल-हक  ने उन्हें फॉंसी पर लटका दिया| नवाज शरीफ, पाकिस्तान के इस भूतपूर्व प्रधानमंत्री नसीब बलवान है, वे अभी तक जीवित है| अन्यथा उनका भी लियाकत अली खान या भुत्तों हुआ होता| बेनझीर भुत्तो भी प्रधानमंत्री थी| लेकिन फौज के प्रशासन को मान्य नहीं थी| उनकी भी हत्या हुई| क्या यह पाकिस्तान की जनता को मान्य है?

वैमनस्य छोड़ो
अमेरिका और नाटो के अफगानिस्थान से हटते ही पाकिस्तान में तालिबान की सत्ता स्थापन होना तय है| क्या बहुसंख्य पाकिस्तानी जनता तालिबान की मतांध सत्ता चाहती है? ऐसा हो तो फिर वे हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे और जो उनके नसीब आए वह भोगे| लेकिन तालिबान की सत्ता नहीं चाहती हो, सभ्य, सुसंस्कृत समाजस्थिति चाहती हो तो करजाई की राह अपनाए| भारत के प्रति मतलब हिंदुस्थान के प्रति मतलब हिंदूओं के प्रति पाला वैमनस्य समाप्त करे| १४ अगस्ट १९४७ के पूर्व की स्थिति पाकिस्तान की जनता याद करे| बलुचिस्थान, वायव्य प्रांत, पंजाब, सिंध में के मुसलमानों को - फिर वे शिया या सुन्नी, सुफी हो या अहमदिया - उन्हें हिंदूओं की ओर से क्या कष्ट हुआ? हिंदूओं ने मुसलमानों की लड़कियों का अपहरण किया? या, मसजिदे गिराई थी? हिंदुस्थान में के मुसलमानों की ओर भी वे कुछ खुले दिल से और निर्विकार दृष्टि से देखें| जो अधिकार बहुसंख्य हिंदूओं को प्राप्त है, वह मुसलमानों को भी प्राप्त है| मुसलमान राष्ट्रपति भी हुए है| एक नहीं तो तीन : जाकीर हुसैन, फक्रुद्दीन अली अहमद, अब्दुल कलाम|बहुसंख्य हिंदूओं ने क्या कभी इसपर आक्षेप लिया? सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का पद भी मुसलमानों ने विभूषित किया है| उच्च न्यायालय में वे चुने गए है| राज्यों के राज्यपाल और राजदूत भी बने हैं| केवल प्रधानमंत्री और मुख्य सेनापति इस पद पर वे अभी तक आरूढ नहीं हुए है| पाकिस्तान में के प्रांत भारत में शामिल हुए तो यह भी संभव होगा|
जनता का दायित्व
यह सच है कि, पाकिस्तान की फौज यह नहीं होने देगी और चीन को भी यह पसंद नहीं होगा| लेकिन इसकाभी रास्ता है| वह ट्युनिशिया, मिस्र और लिबिया इन देशों में की जनता ने दिखाया है और येमेन की जनता भी उसका अनुसरण कर रही है| क्या होस्नी मुबारक के पास सेना नहीं थी? प्रारंभ में वह जनता के साथ नहीं थी| लेकिन जनता की ताकद देखकर बाद में वह तटस्थ बन गई| गद्दाफी को तो फौज के ताकद की ही घमंड थी| लेकिन वह चली नहीं| यह सच है कि, लिबिया की जनता को अमेरिकादि नाटो देशों ने भी मदद की इसलिए ही वे विजयी हुए| पाकिस्तान की जनता को भी आवश्यकता पड़ने पर ऐसी अंतर्राष्ट्रीय सहायता मिल सकती है| लेकिन उसकी आवश्यकता नहीं पड़ेगी| कयानी मतलब गद्दाफी नहीं| १४ अगस्ट १९४७ के समान भारत का एक घटक राष्ट्र बना, तो जो प्रांत मिलकर पाकिस्तान बना है, वहॉं मुसलमान ही मुख्यमंत्री रहेगा| क्योंकि, वह खुले और पारदर्शी चुनाव से चुना जाएगा| कुछ माह पूर्व कराची के एक मतदार संघ में हुए चुनाव में, हिंसाचार में ६५ लोगों की जान गई, भारत के साथ संलग्नता मिलने के बाद ऐसा नहीं होगा|

व्यावहारिक स्वायत्तता
इस प्रत्येक प्रांत का स्वतंत्र और स्वायत्त अस्तित्व भी रहेगा| उन्हें सब प्रकार की व्यावहारिक स्वायत्तता (functional autonomy) होगी| अंग्रेजों की सत्ता के समय भारत में अनेक रियासतें थी| हैद्राबाद, म्हैसूर, काश्मीर, ग्वालियर तो आज के प्रांतों से भी विस्तार और / या जनसंख्या से भी बडी थी और उनके राजाओं को सब प्रकार की अंतर्गत स्वतंत्रता थी| भारत के साथ संलग्न होने के बाद पाकिस्तान में के प्रांतों को भी ऐसी स्वतंत्रता मिल सकती है| उसी प्रकार काश्मीर के लिए जैसी धारा ३७० है, उस प्रकार का प्रावधान भी किया जा सकता है| इस प्रकार अंतर्गत कारोबार के लिए उन्हें पूर्ण स्वयत्तता मिल सकती है| लेकिन, तीन बातों पर भारत का नियंत्रण रहेगा : (१) विदेश संबंध| इसमें आर्थिक अनुबंधों का भी समावेश है|  (२) सुरक्षा और (३) जनतांत्रिक व्यवस्था| पाकिस्तान में जनतांत्रिक राज्यप्रणाली ही रहनी चाहिए| संसदीय या अध्यक्षीय यह तपसील का मुद्दा है| किसी फौजी अधिकारी की, जनतंत्र उखाडकर अपना एकछत्र राज्य निर्माण करने की हिंमत नहीं होनी चाहिए| इस दृष्टि से संवैधानिक व्यवस्था की जा सकती है| ब्रिटीश राज में, इस प्रकार की स्वायत्तता भोगनेवाली रियासतों में एक ब्रिटीश रेसिडेंट रहता था| उसी प्रकार भारत का कोई अधिकारी रहेगा| उसे राज्यपाल भी कह सकेगे| वह केवल संवैधानिक प्रमुख रहेगा| वह अंतर्गत कारोबार में हस्तक्षेप नहीं करेगा| लेकिन विदेश संबंध, सुरक्षा व्यवस्था और जनतंत्र की प्रतिष्ठापना देखने की जिम्मेदारी उसकी होगी| आज अस्तित्व का संकट निर्माण होने की परिस्थिति में, जनता ने ही विचार करना है कि, चीन के पीछे जाना है या भारत के साथ सौहार्द बनाना है? जनतांत्रिक व्यवस्था और मूल्य मानना है या, फौज की सत्ता अथवा तालिबानी पद्धति स्वीकारनी है? प्रश्‍न स्वार्थी राजकर्ताओं का नहीं| प्रश्‍न पाकिस्तान के आम आदमी का है| अंतिम स्वरूप का सौहार्द प्रस्थापित हो इसलिए मैं यह लिख रहा हूँ| लेकिन वह एक क्षण में होना चाहिए, ऐसा नहीं| वह क्रमश: हो| लेकिन कदम उस दिशा में बढ़ने चाहिए| इस बारे में अंतिम निर्णय पाकिस्तान की जनता को करना है| उसे कोई भी शक्ति बाहर से नहीं थोपेगी|   
                     

- मा. गो. वैद्य, नागपुर
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(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)