Thursday 10 November 2011

भाजपा का कॉंग्रेसीकरण हो रहा है?

लेख का शीर्षक प्रश्‍नात्मक है और मेरा उत्तर ‘हॉं’ है| कॉंग्रेसीकरण की राह पर भाजपा की ‘प्रगति’ हो रही है| लेकिन कॉंग्रेस ने इस ‘प्रगति’ में जो मुक्काम हासिल किया है, वह भाजपा ने हासिल नहीं किया है; शायद हासिल कर भी नहीं पाएगी|

परिवारवाद

इस दृष्टि से कुछ मुद्दों का हम इस लेख में विचार करेगे| पहला मुद्दा ‘परिवारवाद’ का है| कॉंग्रेस पार्टी ने इस बारे में जो शिखर पार किया है, भाजपा अभी तक वहॉं पहुँच नहीं पाई है; और शायद कभी पहुँच भी नहीं सकेगी| लेकिन, अपने रिश्तेदारों को लाभ और प्रतिष्ठा के पदों पर आरूढ करने की प्रक्रिया भाजपा में भी शुरू हुई है| भाजपा के राष्ट्रीय स्तर के एक उपाध्यक्ष और हिमाचल प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री शांताकुमार ने इस बारे में सार्वजनिक रूप से खेद भी व्यक्त किया है| शांताकुमार के उद्गारों का आशय है : ‘‘परिवारवाद राजनीति की ओर (भाजपा) पार्टी की प्रवृत्ति बढ़ रही है| पार्टी के सामने बहुत बड़ा संकट है| हिमाचल प्रदेश से कर्नाटक तक भाजपा, लड़के, लड़कियॉं और परिवाजनों की पार्टी बन रही है, ऐसा दिखता है|’’ शांताकुमार अखिल भारतीय स्तर के भाजपा के अधिकारी है| वे कुछ भी बोलनेवाले नेता के प्रवृत्ति के नहीं है| मेरा उनसे कुछ परिचय है, उसके आधार पर मैं यह कह सकता हूँ| हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री धुमल के पुत्र सांसद है, यह तो उन्हें निश्‍चित ही पता होगा| लेकिन उन्होंने जिस प्रकार यह सार्वजनिक विधान किया है, उससे लगता है की उनके पास बहुत कुछ मसाला होना चाहिए| हमें केवल महाराष्ट्र में की ही घटनाएँ पता है| लेकिन वह भी बहुत कुछ स्पष्ट करनेवाली है| गोपीनाथ मुंडे महाराष्ट्र में के भाजपा के श्रेष्ठ नेता है| वे सांसद है ही| लेकिन उनकी लड़की और दामाद भी विधायक है| उनकी भांजी भी चुनाव में खड़ी थी| वह दुर्भाग्य से पराजित हुई| एकनाथ खडसे ये भाजपा के नेता आज महाराष्ट्र विधानसभा में विपक्ष के नेता है| उनका लड़का विधान परिषद के चुनाव में खड़ा था| वह पराभूत हुआ| यही प्रवृत्ति सर्वत्र होगी, इस कारण ही शांताकुमार जैसा नेता ऐसा बोल सका|

संघ की रीत

नेताओं के रिश्तेदारों की गुणवत्ता के बारे में मुझे प्रश्‍न नहीं उपस्थित करना है| वे कभी संघ में आए भी होगे| लेकिन उन्होंने संघ जीवन में उतारा नहीं | मुझे एक सामान्य कार्यकर्ता की जानकारी है| वह एक शिक्षा संस्था का पाव शतक से अधिक समय अध्यक्ष था| उसने निश्‍चय किया था की अपने करीबी रिश्तेदारों को संस्था की ओर से चलाई जानेवाली शाला में नौकरी नहीं देना| वह अध्यक्ष था उस समय, एक शाला में की शिक्षिका प्रसूति और वैद्यकीय छुट्टी पर गई| तीन माह के लिए वह जगह रिक्त हुई थी| अध्यक्ष की लड़की बी. ए., बी. एड. थी| मतलब आवश्यक आर्हता उसके पास थी| किसी ने उसे बताया की, तू आवेदन दे| उसने अपने पिता से पूँछा| उन्होंने कहा, ‘तू आवेदन मत दे| तुझे नौकरी नहीं मिलेगी|’ उसने पूँछा, ‘क्यों?’ पिता ने कहा, ‘कारण तू अध्यक्ष की लड़की है|’ मैं तरुण भारत में कार्यकारी संपादक था उस समय, हमने परीक्षा लेकर तीन संपादकों को नौकरी दी| परीक्षा के लिए आए उम्मीदवारों में तरुण भारत का संचालन करनेवाली संस्था के अध्यक्ष श्री बाळासाहब देवरस का सगा ममेरा भाई भी था| बाळासाहब ने बुलाकर मुझे बताया कि, ‘‘तुम्हें योग्य लगा तो ही उसे ले| मेरा रिश्तेदार है इस कारण उसका विचार ना करे|’’ और उस परीक्षा में गुणानुक्रमानुसार हमने प्रभाकर सिरास, शशिकुमार भगत और बाळासाहब बिनीवाले का चुनाव किया| बाळासाबह देवरस ने मुझे एक शब्द भी नहीं पूँछा| यह संघ की रीत है| द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी ने ‘‘मैं नहीं, तू ही’’ इस आशयगर्भ संक्षेप में उसे व्यक्त किया है| संघ के स्वयंसेवक को प्रथम औरों का विचार करते आना चाहिए|

कॉंग्रेस की रीत

कॉंग्रेस का क्या कहना! पंडित जवाहरलाल के बाद उनकी पुत्री श्रीमती इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी| उनके बाद कनिष्ठ पुत्र संजय गांधी ही प्रधानमंत्री बनते| लेकिन एक अपघात में उनकी मृत्यु हुई इसलिए उनके वैमानिक पुत्र राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने| उनके बाद श्रीमती सोनिया गांधी, उनके बाद राहुल गांधी यह परिवारवाद कहे या राजशाही कहे परंपरा चल रही है| लेकिन कॉंग्रेसजनों को इसके बारे में कुछ नहीं लगता| उनकी पार्टी में निकला कोई शांताकुमार? जो परंपरा उपर चल रही है वही नीचे भी चालू रही तो आश्‍चर्य कैसा! भुजबळ का पुत्र और भतीजा सांसद-विधायक नहीं बनेगे तो कौन बनेगा? सुशीलकुमार शिंदे की लड़की विधायक नहीं बनेगी तो कौन बनेगा? श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान ने ही कहा है कि, ‘‘यद् यदाचरति श्रेष्ठ: तत् तदेवेतरो जन:| स यत् प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते’’ (अध्याय ३, श्‍लोक २१) - अर्थ बिल्कुल आसान है : श्रेष्ठ व्यक्ति जिस प्रकार आरचण करती है, वैसा ही आरचण अन्य लोग करते है| वे जो प्रमाणभूत करती है, उसका ही अनुसरण लोग करते है| इस कारण इनमें कौन भला और कौन बुरा, यह बताना कठिन है| हम इतना ही कह सकते है की, कॉंग्रेस और भाजपा में अंतर होगा ही तो वह अनुपात का है, प्रकार का नहीं|

गुटबाजी

दुसरा मुद्दा गुटबाजी का है| वह दोनों पार्टियों में है| लेकिन हाल ही में, पुणे शहर भाजपा के अध्यक्ष की नियुक्ति के संदर्भ में गोपीनाथ जी की नाराजी समाचारपत्रों एवं प्रसारमाध्यमों में प्रमुखता से प्रकट हुई, उस समय उन्होंने, वे स्वयं अपनी नाराजी नहीं व्यक्त कर रहे, कार्यकर्ताओं की नाराजी व्यक्त कर रहे है, यह जोर देकर बताया था| मेरा उस समय भी प्रश्‍न था और आज भी है की, यह कार्यकर्ता किसके? गोपीनाथ जी के या भाजपा के? उनपर अन्याय हुआ तो उन्होंने प्रदेश अध्यक्ष के पास जाना चाहिए या नहीं? मान ले वहॉं भी न्याय नहीं मिला तो केन्द्र से शिकायत करनी चाहिए या नहीं? गोपीनाथ जी ने उनकी पैरवी पार्टी स्तर पर करने के बारे में कोई आक्षेप नहीं लेता| लेकिन उन्होंने जो सार्वजनिक हो हल्ला मचाया उसका कारण क्या है?  कारण एक ही हो सकता है, वह है नेता का अहंकार और उसका पोषण करनेवाले अनुयायी| केवल महाराष्ट्र में ही ऐसे गुट होंगे ऐसा नहीं| राजस्थान में, मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का पराभव करने की योजना में भैरोसिंह शेखावत, जसवंत सिंह, प्रदेशाध्यक्ष माथुर जैसे बड़े बड़े लोग शामिल थे, ऐसे समाचार थे और वह झूठ थे ऐसा किसी ने नहीं कहा| कॉंग्रेस में तो गुटबाजी का कहर ही है| उस पार्टी के सौभाग्य से वह केन्द्रीय स्तर पर प्रकट नहीं हुई, लेकिन प्रदेश स्तर पर वह खूब है| केन्द्रीय नेताओं को, सारे सूत्र अपने हाथों में रखने के लिए यह गुटबाजी लाभदायक ही होती है| इससे उन्हें छोटे नेताओं को एक के विरुद्ध दूसरे संघर्ष में लगा देना संभव होता है, जिससे किसे भी वरिष्ठ को आव्हान देने की शक्ति प्राप्त नहीं होती| श्रीमती इंदिरा गांधी ने महाराष्ट्र में यशवंतराव चव्हाण के समर्थ नेतृत्व को लगाम लगाने के लिए यही चाल चली थी| भाजपा में, सौभाग्य से, केन्द्रीय नेताओं का गुटबाजी को आशीर्वाद नही और पार्टी को कमजोर करने की साजिश भी नहीं होती, यह सच है|

पार्टी संगठन

गुटबाजी निर्माण होने अनेक कारण हो सकते है लेकिन, मेरे मतानुसार, एक महत्त्व का कारण - वैधानिक (लेजिस्लेटिव विंग) पक्ष, संगठनात्मक पक्ष (ऑर्गनायझेशनल विंग) से शक्तिशाली होना है| वैधानिक पक्ष का आकर्षण होना बिल्कुल स्वाभाविक है| कारण उससे ही मंत्री, विधायक, सांसद जैसे लाभ और प्रतिष्ठा के पद प्राप्त होते है| संगठन शास्त्र का जो थोड़ा बहुत ज्ञान और अनुभव मेरे पास संग्रहीत है, उसके आधार पर मैं यह कह सकता हूँ की संगठनात्मक पक्ष वैधानिक पक्ष से शक्तिशाली होना चाहिए| कम से कम समतुल्य होना चाहिए| कॉंग्रेस ने पार्टी संगठन करीब समाप्त ही कर डाला है| एक औपचारिकता मात्र दिखाई देती है| मतलब वह दिखावटी है| इस संदर्भ में थोडा इतिहास देखनेलायक है| पंडित जवाहरलाल नेहरु प्रधानमंत्री थे उस समय, उनके जैसे ही वयोज्येष्ठ अनुभवी नेता पुरुषोत्तमआस टंडन कॉंग्रेस पार्टी के अध्यक्ष थे| पंडित जी और उनके बीच किसी बात को लेकर विवाद हुआ| तब टंडन जी को अध्यक्षपद छोडना पड़ा; और पंडित नेहरु ही प्रधानमंत्री और पक्षाध्यक्ष भी बने| वे पुरानी विचारधारा के थे, इसलिए यह व्यवस्था उन्हें जची नहीं और जल्द ही उन्होंने पक्षाध्यक्ष का पद छोड दिया| लेकिन उस पद पर अपने अनुकूल, तुलना में बौना, अध्यक्ष चुना| श्रीमती इंदिरा गांधी ने भी वहीं परंपरा जारी रखी| कामराज जैसे जनसामान्य से उभरे समर्थ व्यक्ति के अध्यक्ष बनते ही, इंदिरा जी ने पार्टी तोडी और फिर देवकांत बरुआ, देवराज अर्स, शंकरदयाल शर्मा जैसे उनकी नजर से नजर मिलाने की हिंमत ना रखनेवाले अध्यक्ष बनाए| आगे चलकर यह उपचार भी उन्होंने बंद कर दिया| अपने ही पास प्रधानमंत्रीपद और अध्यक्षपद भी रखा| वहीं प्रथा राजीव गांधी ने चालू रखी| नरसिंहराव ने भी उसी का अनुसरण किया| सोनिया जी भी वहीं परंपरा चलाती, लेकिन वे कुछ तकनीकी कारणों से प्रधानमंत्री नहीं बन सकी| वे पार्टी की अध्यक्ष है और उनके पास कोई भी सरकारी अधिकारपद नहीं है, इसलिए उनका दबदबा है| इसी कारण संगठन में उपरी स्तर पर गुटबाजी नहीं| भाजपा में भी अटलबिहारी बाजपेयी ने संगठन के पक्ष की भरपूर उपेक्षा की थी| एक बार मंत्रिमंडल में बदल होतेसमय, नए मंत्री बने एक विशिष्ट व्यक्ति के बारे में कुछ बातें मेरे सुनने में आई थी| सहज मैंने राष्ट्रीय अध्यक्ष को दूरध्वनि कर पूँछा कि, मंत्रिमंडल के नए बदल के बारे में आपसे कुछ चर्चा हुई थी? उनका उत्तर था, मंत्रिमंडल में हुए बदल मैंने समाचार पत्रों में पढ़े!

कम्युनिस्ट पार्टी में

कम्युनिस्ट पार्टी में स्थिति इससे भिन्न है| वहॉं संगठन पक्ष अधिक शक्तिशाली है| प्रकाश कारत या अर्धेन्दुभूषण बर्धन, पार्टी संगठन में सर्वोच्च पद पर है; लेकिन वे ना सांसद है, ना विधायक| राज्य स्तर भी ऐसी ही स्थिति होगी, ऐसा मेरा तर्क है| केरल के मुख्यमंत्री अच्युतानंद और पार्टी के महासचिव विजयन् के बीच बेवनाव की चर्चा हमने पढ़ी है| ये विजयन् विधायक नहीं थे| ऐसी ही परिस्थिति बंगाल में भी थी| बुद्धदेव भट्टाचार्य के समान या संभवत: उनसे भी अधिक दबदबा बिमान सेन इस पार्टी के महासचिव का था और अभी भी है| मेरे मतानुसार पार्टी अनुशासन के लिए, गुटबाजी निर्माण नहीं होनी चाहिए इसलिए यह पद्धति अधिक उपयुक्त है| राज्य स्तरपर और उसी प्रकार केन्द्र स्तरपर कम से कम एक श्रेष्ठ पद ऐसा होना चाहिए की जिस पद पर की व्यक्ति लाभार्थी पद के बारे में निरपेक्ष होगी| संगठन में के पद का उपयोग लाभार्थी पद पर चढने की एक पायदान जैसा नहीं होना चाहिए| राज्यस्थान में पार्टी के अध्यक्ष को ही मुख्यमंत्री बनने की इच्छा हुई और वे चुनाव में खडे हुए| क्यों? मुख्यमंत्री बनने के लिए| परिणाम सबके सामने है| मैं पॉंच वर्ष भारतीय जनसंघ के नागपुर शहर और जिले का संगठनमंत्री था| मैं किसी भी लाभार्थी पद के लिए इच्छुक नहीं होने के कारण, व्यक्तिनिरपेक्ष विचार कर सकता था और मेरे शब्द को मान भी था| कॉंग्रेस और भाजपा इन दोनों पार्टिंयों के नीतिनिर्धारकों को अभी तक पार्टी संगठन का सही महत्त्व समझ आया है, ऐसा दिखता नहीं| इतना सही है की, कॉंग्रेस के समान भाजपा में गिरावट नहीं हुई है| लेकिन राह वही है, ऐसा दिखाई देता है|

सैद्धांतिक अधिष्ठान

राजनीतिक पार्टिंयों का उद्दिष्ट सत्ता प्राप्त करना, और बनाए रखना होने में अनुचित कुछ भी नहीं है| विपरित वह स्वाभाविक ही है| लेकिन सत्ता किसलिए, इस बारे में पार्टी का उद्दिष्ट स्पष्ट और निस्संदिग्ध होना चाहिए| यह स्पष्टता और निस्संदिग्धता पार्टी को आधारभूत सिद्धांतों से मिलती है| कॉंग्रेस के पास कोई सिद्धांत ही नहीं बचा है| वहॉं गांधीजी का नाम लिया जाता है, लेकिन कॉंग्रेस गांधीतत्त्वज्ञान कोे सौ प्रतिशत छोड चुकी है| यह अहेतुकता से नहीं हुआ है| पंडित नेहरु के जमाने में समाजवाद यह लक्ष्य था| श्रीमती इंदिरा गांधी ने वही उद्दिष्ट सामने रखा था| राजेरजवाड़ों की प्रिव्ही पर्स उन्होंने रद्द की| बँकों का राष्ट्रीयकरण किया| अनेक मूलभूत उद्योगों में सरकार ने पूँजी लगाई| आपात्काल की विशेष परिस्थिति का उनचित लाभ उठाकर संविधान की आस्थापना में (प्रिऍम्बल) बदल कर उन्होंने ‘सोशॅलिस्ट’ शब्द घुसेडा| अनाज का व्यापार भी अल्प समय के लिए ही सही, सरकार ने अपने अधिकार में लिया| लेकिन, समाजवाद के साफल्य के लिए जनतांत्रिक प्रणाली उपयुक्त नहीं| समाजवाद में आर्थिक एवं राजनीतिक शक्ति का एकत्रीकरण अभिप्रेत है| वह तानाशाही को जन्म देता है| इसलिए समाजवाद के पीछे उसे सौम्य बनानेवाला कोई विशेषण लगाना पड़ता है| वह उसकी सर्वंकषता मर्यादित करता है : जैसे जनतांत्रिक समाजवाद (डेमोक्रेटिक सोशॅलिझम्), गांधीवादी समाजवाद, फेबियन सोशॅलिझम् इत्यादि| इस समाजवादी आर्थिक नीति के कारण देश की अर्थव्यवस्था तहसनहस हुई| फिर १९९१ से नए मुक्त व्यापार का तत्त्व स्वीकारा गया| उसके अवश्य ही कुछ लाभ हुए है| लेकिन अब उनका भी पुनर्विचार आरंभ हुआ है| अर्थात यह हुई आर्थिक नीति| कॉंग्रेस के पास तात्त्विक आधार नहीं होने के कारण, उसका स्वरूप किसी सत्ताकांक्षी विशाल टोली के समान हो गया है| उनकी राजनीति को नैतिक अधिष्ठान यत्किंचित भी नहीं बचा है| स्वाभाविक ही राजनीतिक क्षेत्र में प्रचंड भ्रष्टाचार बढ़ा है|

भाजपा की स्थिति

भाजपा को उसके पूर्वावतार में - जनसंघ को - आधारभूत सैद्धांतिक अधिष्ठान था| उसका स्थूल नाम ‘हिंदुत्व’ है| उस सर्वव्यापक हिंदुत्व के प्रकाश में पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने ‘एकात्म मानववाद’ का सिद्धांत रखा| अब वह शब्द पीछे छूट गया है| भाजपा में उसका उच्चार भी नहीं होता होगा| संघ में विशेषत: संघ शिक्षा वर्ग में, प्रतिवर्ष दो-तीन बौद्धिक वर्ग होते है| १९७७ में जनसंघ जनता पार्टी में विलीन हुआ| तीन वर्ष के भीतर ही उसे, उसमें से बाहर निकलना पड़ा| उसने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) नाम धारण किया| पुराना भारतीय जनसंघ यह नाम क्यो छोड़ा? कारण एक ही दिखता है की, वह नाम लोकप्रिय नहीं होगा, ऐसा उस समय के पार्टी नीतिनिर्धारकों को लगा| लेकिन यह नाम का बदल वैसे खटकनेशवाला मुद्दा नहीं था| किंतु मूल अधिष्ठान ही बदला| ‘गांधीवादी समाजवाद’ यह सिद्धांत स्वीकारा गया| क्यों? कारण समाजवाद का बहुत आकर्षण लगा| उस दशक में सारी दुनिया में ही समाजवाद का आकर्षण था| १९८४ के आम चुनाव में हुए सफाए के बाद भाजपा का समाजवाद भी गया और गांधीवाद भी खत्म हुआ| फिर पुन: हिंदुत्व अपनाया गया; लेकिन ढूलमूल तरीके से, एक औपचारिकता के रूप में| ऐसी अनिशचितता से शायद मत मिल सकेंगे| लेकिन इभ्रत नहीं मिलती| फिर अयोध्या में की राम जन्मभूमि का मुद्दा स्वीकारा गया| अच्छी बात थी| अयोध्या में राममंदिर बनाना मतलब समग्र हिंदुत्व नहीं; लेकिन वह हिंदुत्व को पोषक था| अडवाणी ने रथयात्रा निकाली| लोग फिर भाजपा के साथ आए| वह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में चुनकर आया| लेकिन सत्ता के मोह में उसने अपनी अस्मिता ही धूमिल कर डाली| सत्ताग्रहण के लिए जो पार्टियॉं भाजपा की सहायता में आई, उनकी नीतियॉं भाजपा ने स्वीकार की| धारा ३७० के निराकरण का आग्रह छोडा, हरकत नहीं, लेकिन कम से कम काश्मीरी हिंदुओं के पुनवर्सन को महत्त्व था या नहीं? ‘साझा’ कार्यक्रम में इस मुद्दे को स्थान क्यों नहीं? संपूर्ण ‘समान नागरी संहिता’ का मुद्दा बाजू में रख दिया| ठीक है| लेकिन कम से कम ‘विवाह और तलाक’ का समान कायदा क्यों नहीं? राम मंदिर नहीं बना सके तो वह भी समझा जा सकता है| लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की सूचना के अनुसार अविवादित अधिगृहित जमीन पहले के मालिकों को वापस लौटाने का क्यों नहीं सुझा? कारण एक ही सिद्धांतनिष्ठा छूटी| फिर स्वाभाविक ही भटकना आरंभ हुआ| जो अपना था उससे दूर हो गए, और नया कुछ भी नहीं मिला| अधोगति इतनी हुई कि, ६ दिसंबर का बाबरी ढ़ांचा उद्ध्वस्त करने का दिन, कुछ महान नेताओं के जीवन में का सर्वाधिक ‘क्लेशदायक’ और ‘दु:खदायक’ दिन बन गया! यह प्रश्‍न भी मन में नहीं आया कि, रथयात्रा क्यों निकाली थी? ढ़ांचा गिरता नहीं तो उसके नीचे दबे सबूत मिलते? और अलाहबाद उच्च न्यायालय ने हाल ही जो निर्णय दिया, क्या वह निर्णय भी न्यायालय दे पाता? २००४ और २००९ के चुनावों के परिणाम अस्थिर राजनीति के फल है|

‘बी टीम’

सिद्धांत ना होने पर, सही में उससे निष्ठा, प्रतिबधता, और उसका स्मरण नहीं रहने से स्वार्थ बलवान होता है; अहंकार बढता है| फिर पार्टी हित ताक पर रख दिया जाता है और भ्रष्टाचार पनपता है| येदियुपरप्पा का उदाहरण ताजा है| शांताकुमार कर्नाटक के ही प्रभारी थे| उन्होंने वहॉं के अनुचित प्रकार की जानकारी निश्‍चित ही श्रेष्ठियों को दी होगी| लेकिन उन्होंने ध्यान नहीं दिया| ऐसा बताते है कि, येदियुरप्पा को पद छोडने केलिए कहने का निर्णय हो चुका था| लेकिन येदियुरप्पा ने विधानसभा बरखास्त करने की धमकी दी और श्रेष्ठि झुक गए| लोकायुक्त ने ही उन्हें दोषी बताने के बाद पद छोडना पड़ा| आज वे जेल में है| प्रश्‍न यह है की, सत्ता का मोह इतना प्रखर बने या इतना होने दे कि सारे पार्टी की ही बदनामी हो? कॉंग्रेस के पास सिद्धांत नहीं है| इसलिए कलमाडी, हसनअली और अभी भी उनके जो मित्र है वे राजा, मारन और कनीमोळी के कांड हुए| भाजपा को कॉंग्रेस का विकल्प बनना है| लेकिन क्या उसका अर्थ यह है कि, वह कॉंग्रेस के समान ही हो? अनेक लोग अब खुलेआम कहते है कि भाजपा कॉंग्रेस की ‘बी टीम’ बन गई है|

अस्मिता को ग्रहण

तात्पर्य यह कि, कॉंग्रेस का विकल्प चाहिए| वह भाजपा ही दे सकती है| लेकिन भ्रष्टाचारियों को पनाह देनेवाली, बाबरी ढ़ांचा गिरने का शोक मनानेवाली, बॅ. जिना की आरती उतारनेवाली, गुटबाजी से लिप्त और नेताओं के अहंकार का पोषण करनेवाली - भाजपा सही अर्थ में विकल्प नहीं बन सकती है| राजनीति की दलदल में, एक शुद्ध, प्रखर राष्ट्रवादी प्रवाह रहना चाहिए - ऐसा प्रवाह की जो दलदल में की गंदगी साफ करेगा - इसके लिए ही जनसंघ बना था| इसके लिए संघ ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय, नानाजी देशमुख जैसे अनेक श्रेष्ठ कार्यकर्ताओं को, उनकी राजनीति के कीचड में उतरने की इच्छा ना होते हुए भी उस क्षेत्र में काम करने के लिए प्रेरित किया| ‘अ’ या ‘ब’ को सत्ता प्राप्त हो, वह और उसके रिश्तेदार करोडपति बनकर शान से घूमे, इसके लिए नहीं| मेरा विचारपूर्वक मत बना है कि, १९९८ को जिस घोेषणापत्र के आधार पर भाजपा ने चुनाव लढ़ा था, और जिसके आधार पर उसे १८० सिटें मिली और वह सबसे बड़ी पार्टी बनी, वह घोषणापत्र बाजू में ना रखकर भाजपा खड़ी रहती, तो शायद उस वर्ष उसे सत्ता नहीं मिलती| लेकिन दूसरी कोई भी पार्टी स्थिर सरकार नहीं पाती और शीघ्र ही फिर चुनाव होता| वैसे भी १९९९ में फिर चुनाव हुआ ही| उस चुनाव में, भाजपा ने अपनी अस्मिता का परिचय देनेवाला घोषणापत्र ही बाजू में रख दिया| कितना लाभ हुआ? १८० से १८२! लेकिन अपने सिद्धांत और नीति पर वह कायम रहती तो २०० से आगे निकल जाती|
तात्पर्य यह कि, भाजपा अपने मूल ‘हिंदुत्व’ के सिद्धांतभूमि पर खड़ी रहे; ‘हिंदुत्व’ मतलब राष्ट्रीयत्व यह जनता को समझाकर बताते आना चाहिए| ‘हिंदू’ कोई पंथ नहीं, रिलिजन नहीं, मजहब नहीं, वह धर्म है मतलब वैश्‍विक सामंजस्य का सूत्र है| हिंदुत्व मतलब आध्यात्मिकता और भौतिकता का संगम, चारित्र्य और पराक्रम का समन्वय, निष्कलंक सार्वजनिक एवं व्यक्तिगत चारित्र्य का आदर्श, विविधता का सम्मान, सर्व संप्रदाय का समादर और इसी कारण पंथनिरपेक्ष राज्यरचना का भरोसा, यह आत्मविश्‍वास से बताते आना चाहिए| अटलबिहारी जी ने, गुजरात दंगों के संदर्भ में वहॉं के मुख्यमंत्री को ‘राजधर्म’ की याद दिलाई थी| क्या अर्थ है उस शब्द का? क्या ‘राजधर्म’ मतलब राजा का रिलिजन हुआ? या राजा ने पालने का उपासना का कर्मकांड? धर्म का व्यापक अर्थ बताते आना चाहिए| ‘राष्ट्र’ और ‘राज्य’ इन दो संकल्पनाओं के बीच का अंतर स्पष्ट करते आना चाहिए| राज्य, राजनीति, सरकार यह सब राष्ट्रानुकूल होने चाहिए| राष्ट्र मतलब लोग होते है, Peoele are the Nation   यह मन में धारण कर और जनता की भाव-भावनाओं का विचार कर सारी राजनीति चलनी चाहिए| भाजपा ऐसा करना तय करेगी तब ही वह सही मायने में अलग प्रकार की पार्टी  (Party with a difference) बनेगी| ऐसी पार्टी कॉंग्रेस का विकल्प बनकर आगे आनी चाहिए| कॉंग्रेस में भ्रष्टाचार बड़ी मात्रा में है, हममें थोड़ा रहा तो क्या बिगड़ा, ऐसी मनोधारणा रखनेवाली पार्टी भारतीय जनता को नहीं चाहिए| कॉंग्रेस पार्टी के रास्ते से भाजपा वापस लौटी तो ही उसकी अलग पहेचान सिद्ध होगी| बहुसंख्य जनता की यहीं इच्छा है, अपेक्षा है|

         ('दैनिक देशोन्नती' के दीपावली अंक से साभार)
- मा. गो. वैद्यनागपुर
e-mail: babujivaidya@gmail.com
(अनुवाद : विकास कुलकर्णी)

1 comment:

  1. Deen Dayal Upadhyay ke Janm se 150 varsh poorv Hagel naam ke vyakti ne "Integral Humanism" naam ki book likhi thi.
    Deen Dayal ji ne to kewal uska Hindi me anuvaad karke apne naam par likhwa liya.

    aur BJP kkewal Hindutwa ki baat karti hai ...
    Hinduwaad ki nahi....

    ye to Bhagwan Shri Ram ka hi shraap hai BJP Ko, ab ydi BJP garm tave par baith kar bhi Jai Shri Ram kahegi to bhi BJP satta me nahi ayegi.

    Jai Shri Ram Krishn Parshuram AUM

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